सहरा में ज़माँ मकाँ के खो जाती हैं By Rubaai << जिस पर कि नज़र लुत्फ़ की ... इतना न ग़ुरूर कर कि मरना ... >> सहरा में ज़माँ मकाँ के खो जाती हैं सदियों बेदार रह के सो जाती हैं अक्सर सोचा किया हूँ ख़ल्वत में 'फ़िराक़' तहज़ीबें क्यूँ ग़ुरूब हो जाती हैं Share on: