क्यूँ मता-ए-दिल के लुट जाने का कोई ग़म करे By Sher << मैं अपनी दास्ताँ को आख़िर... कोई टूटा हुआ रिश्ता न दाम... >> क्यूँ मता-ए-दिल के लुट जाने का कोई ग़म करे शहर-ए-दिल्ली में तो ऐसे वाक़िए होते रहे Share on: