इक काफ़िर-ए-मुतलक़ है ज़ुल्मत की जवानी भी By Sher << न हो कुछ और तो वो दिल अता... ज़िंदगी और हैं कितने तिरे... >> इक काफ़िर-ए-मुतलक़ है ज़ुल्मत की जवानी भी बे-रहम अँधेरा है शमएँ हैं न परवाने Share on: