ग़रज़ न फ़ुर्क़त में कुफ़्र से थी न काम इस्लाम से रहा था By Sher << नियाज़-ए-इश्क़ को समझा है... मुस्कुराए बग़ैर भी वो हों... >> ग़रज़ न फ़ुर्क़त में कुफ़्र से थी न काम इस्लाम से रहा था ख़याल-ए-ज़ुल्फ़-ए-बुताँ ही हर दम हमें तो लैल-ओ-नहार आया Share on: