इसी उम्मीद पर तो जी रहे हैं हिज्र के मारे By Sher << बेगम भी हैं खड़ी हुई मैदा... ये इंतिक़ाम है या एहतिजाज... >> इसी उम्मीद पर तो जी रहे हैं हिज्र के मारे कभी तो रुख़ से उट्ठेगी नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता Share on: