जब कि ले ज़ुल्फ़ तिरी मुसहफ़-ए-रुख़ का बोसा By Sher << वो शोरिशें निज़ाम-ए-जहाँ ... तिरे होते जो जचती ही नहीं... >> जब कि ले ज़ुल्फ़ तिरी मुसहफ़-ए-रुख़ का बोसा फिर यहाँ फ़र्क़ हो हिन्दू ओ मुसलमान में क्या Share on: