जाना पड़ा रक़ीब के दर पर हज़ार बार By Sher << ज़िंदगी किस तरह बसर होगी ज़िंदगी तेरी अता थी सो ति... >> जाना पड़ा रक़ीब के दर पर हज़ार बार ऐ काश जानता न तिरे रह-गुज़र को मैं to my rival's stead a thousand times i had to go would it be, the path you often tread i did not know Share on: