ज़ुल्म सहते रहे शुक्र करते रहे आई लब तक न ये दास्ताँ आज तक By Sher << आसाँ नहीं इंसाफ़ की ज़ंजी... ये रंग-ओ-कैफ़ कहाँ था शबा... >> ज़ुल्म सहते रहे शुक्र करते रहे आई लब तक न ये दास्ताँ आज तक मुझ को हैरत रही अंजुमन में तिरी क्यूँ हैं ख़ामोश अहल-ए-ज़बाँ आज तक Share on: