कभी तो मंज़रों के इस तिलिस्म से उभर सकूँ By Sher << ज़ुल्फ़ क्यूँ खोलते हो दि... क़द ओ गेसू लब-ओ-रुख़्सार ... >> कभी तो मंज़रों के इस तिलिस्म से उभर सकूँ खड़ा हूँ दिल की सतह पर ख़ुद अपने इंतिज़ार में Share on: