न जाने बाहर भी कितने आसेब मुंतज़िर हों By आदमी, Sher << इक दास्तान अब भी सुनाते ह... बे-पिए शैख़ फ़रिश्ता था म... >> न जाने बाहर भी कितने आसेब मुंतज़िर हों अभी मैं अंदर के आदमी से डरा हुआ हूँ Share on: