रोज़ काग़ज़ पे बनाता हूँ मैं क़दमों के नुक़ूश By Sher << कह रही है ये तिरी तस्वीर ... फिर आज 'अदम' शाम ... >> रोज़ काग़ज़ पे बनाता हूँ मैं क़दमों के नुक़ूश कोई चलता नहीं और हम-सफ़री लगती है Share on: