रोता हूँ तो सैलाब से कटती हैं ज़मीनें By Sher << गुफ़्तुगू कर के परेशाँ हू... कुछ ऐसी बे-यक़ीनी थी फ़ज़... >> रोता हूँ तो सैलाब से कटती हैं ज़मीनें हँसता हूँ तो ढह जाते हैं कोहसार मिरी जाँ Share on: