तमाम मज़हर-ए-फ़ितरत तिरे ग़ज़ल-ख़्वाँ हैं By Sher << एक काँटे की खटक से दिल मि... आशिक़ का बाँकपन न गया बाद... >> तमाम मज़हर-ए-फ़ितरत तिरे ग़ज़ल-ख़्वाँ हैं ये चाँदनी भी तिरे जिस्म का क़सीदा है Share on: