तिरे मकाँ का तक़द्दुस अज़ीज़ था इतना By Sher << रात के बाद वो सुब्ह कहाँ ... मैं ने बचपन में अधूरा ख़्... >> तिरे मकाँ का तक़द्दुस अज़ीज़ था इतना मैं आ रहा हूँ गली से परे उतार के पाँव Share on: