ये माना शीशा-ए-दिल रौनक़-ए-बाज़ार-ए-उल्फ़त है By Sher << उसी को जीने का हक़ है जो ... काश हम नाकाम भी काम आएँ त... >> ये माना शीशा-ए-दिल रौनक़-ए-बाज़ार-ए-उल्फ़त है मगर जब टूट जाता है तो क़ीमत और होती है Share on: