मुमताज़ ने सुबह सवेरे उठ कर हस्ब-ए-मामूल तीनों कमरे में झाड़ू दी। कोने खद्दरों से सिगरेटों के टुकड़े, माचिस की जली हुई तीलियां और इसी तरह की और चीज़ें ढूंढ ढूंढ कर निकालीं। जब तीनों कमरे अच्छी तरह साफ़ होगए तो उसने इत्मिनान का सांस लिया। उसकी बीवी बाहर सहन में सो रही थी। बच्चा पँगोड़े में था। मुमताज़ हर सुबह सवेरे उठ कर सिर्फ़ इसलिए ख़ुद तीनों कमरों में झाड़ू देता था कि उसका लड़का ख़ालिद अब चलता फिरता था और आम बच्चों के मानिंद, हर चीज़ जो उसके सामने आए, उठा कर मुँह में डाल लेता था। मुमताज़ हर रोज़ तीनों कमरे बड़े एहतियात से साफ़ करता मगर उसको हैरत होती जब ख़ालिद फ़र्श पर उसे अपने छोटे छोटे नाखुनों की मदद से कोई न कोई चीज़ उठा लेता। फ़र्श का पलस्तर कई जगह उखड़ा हुआ था। जहां कूड़े-करकट के छोटे छोटे ज़र्रे फंस जाते थे। मुमताज़ अपनी तरफ़ से पूरी सफ़ाई करता मगर कुछ न कुछ बाक़ी रह जाता जो उसका पलौठी का बेटा ख़ालिद जिसकी उम्र अभी एक बरस की नहीं हुई थी, उठा कर अपने मुँह में डाल लेता। मुमताज़ को सफ़ाई का ख़ब्त होगया था। अगर वो ख़ालिद को कोई चीज़ फ़र्श पर से उठा कर अपने मुँह में डालते देखता तो वो ख़ुद को उसका मुल्ज़िम समझता। अपने आपको दिल ही दिल में कोसता कि उसने क्यों बद एहतियाती की। ख़ालिद से उसको प्यार ही नहीं इश्क़ था, लेकिन अजीब बात है कि जूं जूं ख़ालिद की पहली सालगिरह का दिन नज़दीक आता था, उसका ये वहम यक़ीन की सूरत इख़्तियार करता जाता था कि उसका बेटा एक साल का होने से पहले पहले मर जाएगा। अपने इस ख़ौफ़नाक वहम का ज़िक्र मुमताज़ अपनी बीवी से भी कर चुका था। मुमताज़ के मुतअल्लिक़ ये मशहूर था कि वो औहाम का बिल्कुल क़ाइल नहीं। उसकी बीवी ने जब पहली बार उसके मुँह से ऐसी बात सुनी तो कहा, आप और ऐसे वहम... अल्लाह के फ़ज़ल-ओ-करम से हमारा बेटा सौ साल ज़िंदा रहेगा। मैंने उसकी पहली सालगिरह के लिए ऐसा एहतिमाम किया है कि आप दंग रह जाऐंगे। ये सुन कर मुमताज़ के दिल को एक धक्का सा लगा था। वो कब चाहता था कि उसका बेटा ज़िंदा न रहे लेकिन उसके वहम का क्या ईलाज था। ख़ालिद बड़ा तंदुरुस्त बच्चा था। सर्दियों में जब नौकर एक दफ़ा उसको बाहर सैर के लिए ले गया तो वापस आकर उसने मुमताज़ की बीवी से कहा, बेगम साहब, आप ख़ालिद मियां के गालों पर सुर्ख़ी न लगाया करें... किसी की नज़र लग जाएगी। ये सुन कर उसकी बीवी बहुत हंसी थी, बेवक़ूफ़ मुझे क्या ज़रूरत है सुर्ख़ी लगाने की। माशाअल्लाह इसके गाल ही क़ुदरती लाल हैं। सर्दियों में ख़ालिद के गाल बहुत सुर्ख़ रहते थे मगर अब गर्मियों में कुछ ज़र्दी माइल होगए थे। उस को पानी का बहुत शौक़ था। चुनांचे वो अंगड़ाई लेकर उठता और दूध की बोतल पी लेता तो दफ़्तर जाने से पहले मुमताज़ उसको पानी की बाल्टी में खड़ा करदेता। देर तक वो पानी के छींटे उड़ा उड़ा कर खेलता रहता। मुमताज़ और उसकी बीवी ख़ालिद को देखते और बहुत ख़ुश होते। लेकिन मुमताज़ की ख़ुशी में गुम एक बर्क़ी धक्का सा ज़रूर होता। वो सोचता ख़ुदा मेरी बीवी की ज़बान मुबारक करे, लेकिन ये क्या ये कि मुझे उसकी मौत का खटका रहता है। ये वहम क्यों मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में बैठ गया है कि ये मर जाएगा... क्यों मरेगा? अच्छा भला सेहत मंद है। अपनी उम्र के बच्चों से कहीं ज़्यादा सेहत मंद। मैं यक़ीनन पागल हूँ। इससे मेरी हद से ज़्यादा बढ़ी हुई मोहब्बत दरअसल इस वहम का बाइस है... लेकिन मुझे इससे इतनी ज़्यादा मुहब्बत क्यों है? क्या सारे बाप इसी तरह बच्चों से प्यार करते हैं... क्या हर बाप को अपनी औलाद की मौत का खटका लगा रहता है? मुझे आख़िर हो क्या गया है? मुमताज़ ने जब हस्ब-ए-मामूल तीनों कमरे अच्छी तरह साफ़ कर दिए तो वो फ़र्श पर चटाई बिछा कर लेट गया। ये उसकी आदत थी। सुबह उठ कर, झाड़ू वग़ैरा दे कर वो गर्मियों में ज़रूर आधे घंटे के लिए चटाई पर लेटा करता था। बग़ैर तकिए के इस तरह उसको लुत्फ़ महसूस होता था। लेट कर वह सोचने लगा, “परसों मेरे बच्चे की पहली सालगिरह है... अगर ये बख़ैर-ओ-आफ़ियत गुज़र जाये तो मेरे दिल का सारा बोझ हल्का हो जाएगा। ये मेरा वहम बिलकुल दूर हो जाएगा... अल्लाह मियां ये सब तेरे हाथ में है।” उसकी आँखें बंद थीं। दफ़अतन उसने अपने नंगे सीने पर बोझ महसूस किया। आँखें खोलीं तो देखा ख़ालिद है। उसकी बीवी पास खड़ी थी। उसने कहा, “सारी रात बेचैन सा रहा है सोते में जैसे डर डर के काँपता रहा है।” ख़ालिद, मुमताज़ के सीने पर ज़ोर से काँपा। मुमताज़ ने उस पर हाथ रखा और कहा, “ख़ुदा मेरे बेटे का मुहाफ़िज़ हो!” मुमताज़ की बीवी ने ख़फ़गी आमेज़ लहजे में कहा, “तौबा, आपको बस वहमों ने घेर रखा है। हल्का सा बुख़ार है, इंशाअल्लाह दूर हो जाएगा।” ये कह कर मुमताज़ की बीवी कमरे से चली गई। मुमताज़ ने हौले-हौले बड़े प्यार से ख़ालिद को थपकना शुरू किया जो उसकी छाती पर औंधा लेटा था और सोते में कभी कभी काँप उठता था। थपकने से वो जाग पड़ा। आहिस्ता-आहिस्ता उसने अपनी बड़ी बड़ी स्याह आँखें खोलीं और बाप को देख कर मुस्कुराया। मुमताज़ ने उसका मुँह चूमा, “क्यों मियां ख़ालिद क्या बात है... आप काँपते क्यों थे?” ख़ालिद ने मुस्कुरा कर अपना उठा हुआ सर बाप की छाती पर गिरा दिया। मुमताज़ ने फिर उसको थपकाना शुरू कर दिया। दिल में वो दुआएं मांग रहा था कि उसके बेटे की उमर दराज़ हो। उसकी बीवी ने ख़ालिद की पहली सालगिरह के लिए बड़ा एहतिमाम किया था। अपनी सारी सहेलियों से कहा था कि वो इस तक़रीब पर ज़रूर आएं। दर्ज़ी से ख़ासतौर पर उसकी सालगिरह के कपड़े सिलवाए थे। दावत पर क्या क्या चीज़ होगी, ये सब सोच लिया था। मुमताज़ को ये ठाट पसंद नहीं था। वो चाहता था कि किसी को ख़बर न हो और सालगिरह गुज़र जाये। ख़ुद उस को भी पता न चले और उसका बेटा एक बरस का हो जाये। उसको इस बात का इल्म सिर्फ़ उस वक़्त हो जब ख़ालिद एक बरस और कुछ दिनों का होगया हो। ख़ालिद अपने बाप की छाती पर से उठा। मुमताज़ ने उससे मुहब्बत में डूबे हुए लहजे में कहा, “ख़ालिद बेटा, सलाम नहीं करोगे अब्बा जी को।” ख़ालिद ने मुस्कुरा कर हाथ उठाया और अपने सर पर रख दिया। मुमताज़ ने उसको दुआ दी, “जीते रहो।” लेकिन ये कहते ही उसके दिल पर उसके वहम की ज़र्ब लगी और वो ग़म-ओ-फ़िक्र के समुंदर में ग़र्क़ होगया। ख़ालिद सलाम करके कमरे से बाहर निकल गया। दफ़्तर जाने में अभी काफ़ी वक़्त था। मुमताज़ चटाई पर लेटा रहा और अपने वहम को दिल-ओ-दिमाग़ से मह्व करने की कोशिश करता रहा। इतने में बाहर सहन से उसकी बीवी की आवाज़ आई, “मुमताज़ साहब, मुमताज़ साहब... इधर आईए।” आवाज़ में शदीद घबराहट थी। मुमताज़ चौंक कर उठा। दौड़ कर बाहर गया। देखा कि उसकी बीवी ख़ालिद को ग़ुसलख़ाने के बाहर गोद में लिए खड़ी है और वो उसकी गोद में बल पे बल खा रहा है। मुमताज़ ने उसको अपनी बाँहों में ले लिया और बीवी से जो काँप रही थी पूछा, “क्या हुआ?” उसकी बीवी ने ख़ौफ़ज़दा लहजे में कहा, “मालूम नहीं... पानी से खेल रहा था... मैंने नाक साफ़ की तो दोहरा होगया।” मुमताज़ की बाँहों में ख़ालिद ऐसे बल खा रहा था, जैसे कोई उसे कपड़े की तरह निचोड़ रहा है। सामने चारपाई पड़ी थी। मुमताज़ ने उसको वहां लिटा दिया। मियां-बीवी सख़्त परेशान थे। वो पड़ा बल पे बल खा रहा था और उन दोनों के औसान ख़ता थे कि वो क्या करें। थपकाया, चूमा, पानी के छींटे मारे मगर उसका तशन्नुज दूर न हुआ। थोड़ी देर के बाद ख़ुदबख़ुद दौरा आहिस्ता आहिस्ता ख़त्म होगया और ख़ालिद पर बेहोशी सी तारी होगई। मुमताज़ ने समझा, मर गया है। चुनांचे उसने अपनी बीवी से कहा, “ख़त्म होगया।” वो चिल्लाई, “लाहौल वला... कैसी बातें मुँह से निकालते हैं। कनोलशन थी, ख़त्म होगई। अभी ठीक हो जाएगा।” ख़ालिद ने अपनी मुरझाई हुई बड़ी बड़ी स्याह आँखें खोलीं और अपने बाप की तरफ़ देखा। मुमताज़ की सारी दुनिया ज़िंदा होगई। बड़े ही दर्द भरे प्यार से उसने ख़ालिद से कहा, “क्यों ख़ालिद बेटा... ये क्या हुआ आपको?” ख़ालिद के होंटों पर तशन्नुज ज़दा मुस्कुराहट नमूदार हुई। मुमताज़ ने उसको गोद में उठा लिया और अंदर कमरे में ले गया। लेटाने ही वाला था कि दूसरी कनोलशन आई। ख़ालिद फिर बल खाने लगा। जिस तरह मिर्गी का दौरा होता है, ये तशन्नुज भी उसी क़िस्म का था। मुमताज़ को ऐसा महसूस होता कि ख़ालिद नहीं बल्कि वो इस अज़ीयत के शिकंजे में कसा जा रहा है। दूसरा दौरा ख़त्म हुआ तो ख़ालिद और ज़्यादा मुरझा गया। उसकी बड़ी बड़ी स्याह आँखें धँस गईं। मुमताज़ उससे बातें करने लगा। “ख़ालिद बेटे, ये क्या होता है आपको?” “ख़ालिद मियां, उठो ना... चलो फ़िरो।” “ख़ालिदी... मक्खन खाएंगे आप?” ख़ालिद को मक्खन बहुत पसंद था मगर उसने ये सुन कर अपना सर हिला कर हाँ न की, लेकिन जब मुमताज़ ने कहा, “बेटे, गुलो खाएंगे आप?” तो उसने बड़े नहीफ़ अंदाज़ में नहीं के तौर पर अपना सर हिलाया। मुमताज़ मुस्कुराया और ख़ालिद को अपने गले से लगा लिया फिर उसको अपनी बीवी के हवाले किया और उससे कहा, तुम इसका ध्यान रखो मैं डाक्टर लेकर आता हूँ। डाक्टर साथ लेकर आया तो मुमताज़ की बीवी के होश उड़े हुए थे। उसकी ग़ैर हाज़िरी में ख़ालिद पर तशन्नुज के तीन और दौरे पड़ चुके थे। उनके बाइस वो बेजान हो गया था। डाक्टर ने उसे देखा और कहा, “तरद्दुद की कोई बात नहीं। ऐसी कनोलशन बच्चों को उमूमन आया करती है... इसकी वजह दाँत हैं। मेदे में कृम वग़ैरा हों तो वो भी इसका बाइस हो सकते हैं... मैं दवा लिख देता हूँ। आराम आजाएगा। बुख़ार तेज़ नहीं है, आप कोई फ़िक्र न करें।” मुमताज़ ने दफ़्तर से छुट्टी ले ली और सारा दिन ख़ालिद के पास बैठा रहा। डाक्टर के जाने के बाद उसको दो मर्तबा और दौरे पड़े। इसके बाद वो निढाल लेटा रहा। शाम होगई तो मुमताज़ ने सोचा, “शायद अब अल्लाह का फ़ज़ल होगया है... इतने अर्से में कोई कनोलशन नहीं आई... ख़ुदा करे रात इसी तरह कट जाये।” मुमताज़ की बीवी भी ख़ुश थी। “अल्लाह ताला ने चाहा तो कल मेरा ख़ालिद दौड़ता फिरेगा।” रात को चूँकि मुक़र्ररा औक़ात पर दवा देनी थी, इसलिए मुमताज़ चारपाई पर न लेटा कि शायद सो जाये। ख़ालिद के पँगोड़े के पास आराम कुर्सी रख कर वो बैठ गया और सारी रात जागता रहा, क्योंकि ख़ालिद बेचैन था। काँप-काँप कर बार-बार जागता था। हरारत भी तेज़ थी। सुबह सात बजे के क़रीब मुमताज़ ने थर्मामीटर लगा के देखा तो एक सौ चार डिग्री बुख़ार था। डाक्टर बुलाया। उसने कहा “तरद्दुद की कोई बात नहीं, ब्रोंकाइटिस है मैं नुस्ख़ा लिख देता हूँ। तीन चार रोज़ में आराम आजाएगा।” डाक्टर नुस्ख़ा लिख कर चला गया। मुमताज़ दवा बनवा लाया। ख़ालिद को एक ख़ुराक पिलाई मगर उसको तसकीन न हुई। दस बजे के क़रीब वो एक बड़ा डाक्टर लाया। उसने अच्छी तरह ख़ालिद को देखा और तसल्ली दी, “घबराने की कोई बात नहीं... सब ठीक हो जाएगा।” सब ठीक न हुआ। बड़े डाक्टर की दवा ने कोई असर न किया। बुख़ार तेज़ होता गया। मुमताज़ के नौकर ने कहा। “साहब, बीमारी वग़ैरा कोई नहीं... ख़ालिद मियां को नज़र लग गई है मैं एक तावीज़ लिखवा कर लाया हूँ। अल्लाह के हुक्म से यूं चुटकियों में असर करेगा।” सात कुंओं का पानी इकठ्ठा किया गया। उसमें ये तावीज़ घोल कर ख़ालिद को पिलाया गया। कोई असर न हुआ। हमसाई आई। वो एक यूनानी दवा तजवीज़ कर गई। मुमताज़ ये दवा ले आया मगर उसने ख़ालिद को न दी। शाम को मुमताज़ का एक रिश्ते दार आया। साथ उसके एक डाक्टर था। उस ने ख़ालिद को देखा और कहा, “मलेरीया है... इतना बुख़ार मलेरीया ही में होता है। आप इसमें बर्फ़ का पानी डालिए। मैं कुनैन का इंजेक्शन देता हूँ।” बर्फ़ का पानी डाला गया। बुख़ार एक दम कम होगया। दर्जा-ए-हरारत अठानवे डिग्री तक आगया। मुमताज़ और उसकी बीवी की जान में जान आई। लेकिन थोड़े ही अर्से में बुख़ार बहुत ही तेज़ होगया। मुमताज़ ने थरमा मीटर लगा कर देखा। दर्ज-ए-हरारत एक सौ छ तक पहुंच गया था। हमसाई आई। उसने ख़ालिद को मायूस नज़रों से देखा और मुमताज़ की बीवी से कहा, “बच्चे की गर्दन का मनका टूट गया है।” मुमताज़ और उसकी बीवी के दिल बैठ गए। मुमताज़ ने नीचे कारख़ाने से हस्पताल फ़ोन किया। हस्पताल वालों ने कहा मरीज़ ले आओ। मुमताज़ ने फ़ौरन टांगा मंगवाया। ख़ालिद को गोद में लिया। बीवी को साथ बिठाया और हस्पताल का रुख़ किया। सारा दिन वो पानी पीता रहा था। मगर प्यास थी कि बुझती ही नहीं थी। हस्पताल जाते हुए रास्ते में उस का हलक़ बेहद ख़ुश्क होगया। उसने सोचा उतर कर किसी दुकान से एक गिलास पानी पीले, लेकिन ख़ुदा मालूम कहाँ से ये वहम एक दम उसके दिमाग़ में आन टपका, देखो अगर तुम ने पानी पिया तो तुम्हारा ख़ालिद मर जाएगा। मुमताज़ का हलक़ सूख के लकड़ी होगया मगर उसने पानी न पिया। हस्पताल के क़रीब टांगा पहुंचा तो उसने सिगरेट सुलगाया। वही कश लिए थे तो उसने एक दम सिगरेट फेंक दिया। उसके दिमाग़ में ये वहम गूंजा था, “मुमताज़ सिगरेट न पियो तुम्हारा बच्चा मर जाएगा।” मुमताज़ ने टांगा ठहराया। उसने सोचा, “ये क्या हमाक़त है... ये वहम सब फ़ुज़ूल है। सिगरेट पीने से बच्चे पर क्या आफ़त आसकती है।” टांगे से उतर कर उस ने सड़क पर से सिगरेट उठाया। वापस टांगे में बैठ कर जब उसने कश लेना चाहा तो किसी नामालूम ताक़त ने उसको रोका, “नहीं मुमताज़, ऐसा न करो। ख़ालिद मर जाएगा।” मुमताज़ ने सिगरेट ज़ोर से फेंक दिया... टांगे वाले ने घूर के उस को देखा। मुमताज़ ने महसूस किया कि जैसे उसको उसकी दिमाग़ी कैफ़ियत का इल्म है और वो उसका मज़ाक़ अड़ा रहा है। अपनी ख़िफ़्फ़त दूर करने की ख़ातिर उसने टांगे वाले से कहा, “ख़राब होगया था सिगरेट” ये कह इस ने जेब से एक नया सिगरेट निकाला। सुलगाना चाहा मगर डर गया। उसके दिल-ओ-दिमाग़ में हलचल सी मच गई। इदराक कहता था कि ये औहाम सब फ़ुज़ूल हैं मगर कोई ऐसी आवाज़ थी। कोई ऐसी ताक़त थी जो उसके मंतिक़ उसके इस्तिदलाल, उसके इदराक पर ग़ालिब आजाती थी। टांगा हस्पताल के फाटक में दाख़िल हुआ तो उसने सिगरेट उंगलियों में मसल कर फेंक दिया। उस को अपने ऊपर बहुत तरस आया कि औहाम का ग़ुलाम बन गया है। हस्पताल वालों ने फ़ौरन ही ख़ालिद को दाख़िल कर लिया। डाक्टर ने देखा और कहा, “ब्रंगो निमोनिया है। हालत मख़दूश है।” ख़ालिद बेहोश था। माँ उसके सिरहाने बैठी वीरान निगाहों से उसको देख रही थी। कमरे के साथ गुसलखाना था। मुमताज़ को सख़्त प्यास लग रही थी। नल खोल कर ओक से पानी पीने लगा तो फिर वही वहम उसके दिमाग़ में गूंजा, “मुमताज़, ये क्या कर रहे हो तुम। मत पानी पियो... तुम्हारा ख़ालिद मर जाएगा।” मुमताज़ ने दिल में इस वहम को गाली दी और इंतिक़ामन इतना पानी पिया कि उसका पेट अफर गया। पानी पी कर ग़ुसलख़ाने से बाहर आया तो उसका ख़ालिद उसी तरह मुर्झाया हुआ बेहोश हस्पताल के आहनी पलंग पर पड़ा था। वो चाहता था कि कहीं भाग जाये... उसके होश-ओ-हवास ग़ायब हो जाएं... ख़ालिद अच्छा हो जाये और वो इसके बदले निमोनिया में गिरफ़्तार हो जाये। मुमताज़ ने महसूस किया कि ख़ालिद अब पहले से ज़्यादा ज़र्द है। उसने सोचा, ये सब उसके पानी पी लेने का बाइस है। अगर वो पानी न पीता तो ज़रूर ख़ालिद की हालत बेहतर हो जाती। उसको बहुत दुख हुआ। उसने ख़ुद को बहुत लानत मलामत की मगर फिर उसको ख़्याल आया कि जिसने ये बात सोची थी कि वो मुमताज़ नहीं कोई और था और कौन था? क्यों उसके दिमाग़ में ऐसे वहम पैदा होते थे। प्यास लगती थी, पानी पी लिया। इससे ख़ालिद पर क्या असर पड़ सकता है... ख़ालिद ज़रूर अच्छा हो जाएगा... परसों उसकी सालगिरह है। इंशाअल्लाह ख़ूब ठाट से मनाई जाएगी। लेकिन फ़ौरन ही उसका दिल बैठ जाता। कोई आवाज़ उससे कहती, ख़ालिद एक बरस का होने ही नहीं पाएगा। मुमताज़ का जी चाहता कि वो इस आवाज़ की ज़बान पकड़ ले और उसे गुद्दी से निकाल दे मगर ये आवाज़ तो ख़ुद उसके दिमाग़ में पैदा होती थी, ख़ुदा मालूम कैसे होती थी... क्यों होती थी। मुमताज़ इस क़दर तंग आगया कि उसने दिल ही दिल में अपने औहाम से गिड़गिड़ा कर कहा, “ख़ुदा के लिए मुझ पर रहम करो... क्यों तुम मुझ ग़रीब के पीछे पड़ गए हो!” शाम हो चुकी थी। कई डाक्टर ख़ालिद को देख चुके थे, दवा दी जा रही थी। कई इंजेक्शन भी लग चुके थे मगर ख़ालिद अभी तक बेहोश था। दफ़अतन मुमताज़ के दिमाग़ में ये आवाज़ गूंजी “तुम यहां से चले जाओ... फ़ौरन चले जाओ, वर्ना ख़ालिद मर जाएगा।” मुमताज़ कमरे से बाहर चला गया। हस्पताल से बाहर चला गया। उसके दिमाग़ में आवाज़ें गूंजती रहीं। उसने अपने आपको उन आवाज़ों के हवाले कर दिया। अपनी हर जुंबिश, अपनी हर हरकत उन के हुक्म के सपुर्द करदी... ये उसे एक होटल में ले गईं। उन्होंने उसको शराब पीने के लिए कहा। शराब आई तो उसे फेंक देने का हुक्म दिया। मुमताज़ ने हाथ से गिलास फेंक दिया तो और मंगवाने के लिए कहा। दूसरा गिलास आया तो उसे भी फेंक देने के लिए कहा। शराब और टूटे हुए गिलासों के बिल अदा करके मुमताज़ बाहर निकला। उसको यूं महसूस होता था कि चारों तरफ़ ख़ामोशी ही ख़ामोशी है... सिर्फ़ उसका दिमाग़ है जहां शोर बरपा है। चलता चलता वो हस्पताल पहुंच गया। ख़ालिद के कमरे का रुख़ किया तो उसे हुक्म हुआ? “मत जाओ उधर... तुम्हारा ख़ालिद मर जाएगा।” वो लौट आया... घास का मैदान था। वहां एक बेंच पड़ी थी। उस पर लेट गया... रात के दस बज चुके थे। मैदान में अंधेरा था। चारों तरफ़ ख़ामोशी थी। कभी कभी किसी मोटर के हॉर्न की आवाज़ उस ख़ामोशी में ख़राश पैदा करती हुई गुज़र जाती। सामने ऊंची दीवार में हस्पताल का रोशन क्लाक था... मुमताज़, ख़ालिद के मुतअल्लिक़ सोच रहा था, “क्या वो बच जाएगा... ये बच्चे क्यों पैदा होते हैं जिन्हें मरना होता है... वो ज़िंदगी क्यों पैदा होती है जिसे इतनी जल्दी मौत के मुँह में जाना होता है, ख़ालिद ज़रूर...” एक दम उसके दिमाग़ में एक वहम फूटा। बेंच पर से उतर कर वह सजदे में गिर गया। हुक्म था इसी तरह पड़े रहो जब तक ख़ालिद ठीक न हो जाये। मुमताज़ सजदे में पड़ा रहा। वो दुआ माँगना चाहता था मगर हुक्म था कि मत मांगो। मुमताज़ की आँखों में आँसू आगए। वो ख़ालिद के लिए नहीं, अपने लिए दुआ मांगने लगा, “ख़ुदाया मुझे इस अज़ीयत से नजात दे... तुझे अगर ख़ालिद को मारना है तो मार दे, ये मेरा क्या हश्र कर रहा है तू?” दफ़अतन उसे आवाज़ें सुनाई दीं। उससे कुछ दूर दो आदमी कुर्सीयों पर बैठे खाना खा रहे थे और आपस में बातें कर रहे थे,“बच्चा बड़ा ख़ूबसूरत है।” “माँ का हाल मुझसे तो देखा नहीं गया।” “बेचारी हर डाक्टर के पांव पड़ रही थी।” “हमने अपनी तरफ़ से तो हर मुम्किन कोशिश की।” “बचना मुहाल है।” “मैंने यही कहा था माँ से कि दुआ करो बहन!” एक डाक्टर ने मुमताज़ की तरफ़ देखा जो सजदे में पड़ा था। उसको ज़ोर से आवाज़ दी, “ए, क्या कर रहा है तू... इधर आ?” मुमताज़ उठ कर दोनों डाक्टरों के पास गया। एक ने उससे पूछा, “कौन हो तुम?” मुमताज़ ने ख़ुश्क होंटों पर ज़बान फेर कर जवाब दिया, “मैं एक मरीज़...” डाक्टर ने सख़्ती से कहा, “मरीज़ हो तो अंदर जाओ... यहां मैदान में दंड क्यों पेलते हो?” मुमताज़ ने कहा, “जी, मेरा बच्चा है... उधर उस वार्ड में।” “वो तुम्हारा बच्चा है जो...” “जी हाँ... शायद आप उसी की बातें कर रहे थे... वो मेरा बच्चा है... ख़ालिद।” “आप उसके बाप हैं?” मुमताज़ ने अपना गम-ओ-अंदोह से भरा हुआ सर हिलाया, “जी हाँ, मैं उसका बाप हूँ।” डाक्टर ने कहा, “आप यहां बैठे हैं, जाईए आपकी वाइफ़ बहुत परेशान हैं।” “जी अच्छा।” कह कर मुमताज़ वार्ड की तरफ़ रवाना हुआ। सीढ़ियाँ तय करके जब ऊपर पहुंचा तो कमरे के बाहर उसका नौकर रो रहा था। मुमताज़ को देख कर और ज़्यादा रोने लगा, “साहब ख़ालिद मियां फ़ौत होगए।” मुमताज़ अंदर कमरे में गया। उसकी बीवी बेहोश पड़ी थी। एक डाक्टर और नर्स उसको होश में लाने की कोशिश कर रहे थे। मुमताज़ पलंग के पास खड़ा होगया। ख़ालिद आँखें बंद किए पड़ा था। उसके चेहरे पर मौत का सुकून था। मुमताज़ ने उसके रेशमीं बालों पर हाथ फेरा और दिल चीर देने वाले लहजे में उससे पूछा, “ख़ालिद मियां... गगो खाएंगे आप?” ख़ालिद का सर नफ़ी में न हिला। मुमताज़ ने फिर दरख़ास्त भरे लहजे में कहा, “ख़ालिद मियां... मेरे वहम ले जाऐंगे अपने साथ?” मुमताज़ को ऐसा महसूस हुआ कि जैसे ख़ालिद ने सर हिला कर हाँ की है।