शो शो

घर में बड़ी चहल पहल थी। तमाम कमरे लड़के-लड़कियों, बच्चे-बच्चियों और औरतों से भरे थे और वो शोर बरपा हो रहा था कि कान पड़ी आवाज़ सुनाई न देती थी। अगर उस कमरे में दो तीन बच्चे अपनी माओं से लिपटे दूध पीने के लिए बिलबिला रहे हैं तो दूसरे कमरे में छोटी छोटी लड़कियां ढोलकी से बेसुरी तानें उड़ा रही हैं। न ताल की ख़बर है न लय की। बस गाए जा रही हैं। नीचे ड्युढ़ी से लेकर बालाई मंज़िल के शह-नशीनों तक मकान मेहमानों से खचाखच भरा था, क्यों न हो। एक मकान में दो ब्याह रचे थे। मेरे दोनों भाई अपनी चांद सी दुल्हनें ब्याह कर लाए थे।
रात के ग्यारह बजे के लगभग दोनों डोलियां आईं और गली में इस क़दर शोर बरपा हुआ कि अल-अमान, मगर वो नज़ारा बड़ा रूह अफ़ज़ा था। जब गली की सब शोख़-ओ-शंग लड़कियां बाहर निकल आईं और तीतरियों की तरह इधर उधर फड़फड़ाने लगीं।

साड़ियों की रेशमी सरसराहट, कलफ़ लगी शलवारों की खड़खड़ाहट और चूड़ियों की खनखनाहट हवा में तैरने लगी। तमतमाते हुए मुखड़ों पर बार बार गिरती हुई लटें, नन्हे नन्हे सीनों पर ज़ोर दे कर निकाली हुई बलंद आवाज़ें, ऊंची एड़ी के बूटों पर थिरकती हुई टांगें, लचकती हुई उंगलियां, धड़कते हुए लहजे, फड़कती हुईं रगें और फिर उन अल्हड़ लड़कियों की आपस की सरगोशियां! ये सब कुछ देख कर ऐसा लगता था कि गली के पथरीले फ़र्श पर हुस्न-ओ-शबाब अपने क़लम से मआ’नी लिख रहा है!
अब्बास मेरे पास खड़ा था। हम दोनों औरतों के हुजूम में घिरे हुए थे, दफ़अ’तन अब्बास ने गली के नुक्कड़ पर नज़रें गाड़ कर कहा, “शो शो कहाँ है?”

मैंने जवाब दिया, “मुझे इस वक़्त तुम्हारे सवाल का जवाब देने की फ़ुर्सत नहीं है।”
मैं इस हुजूम में उस भौंरे के मानिंद खड़ा था जो फूलों भरी क्यारी देख कर ये फ़ैसला नहीं कर सकता कि किस फूल पर बैठे।

अब्बास ने रोनी आवाज़ में कहा, “वो नहीं आई!”
“तो क्या हुआ... बाक़ी तो सब मौजूद हैं। अरे... देखो तो वो नीली साड़ी में कौन है? शो शो।” मैंने अब्बास का हाथ दबाया।

अब्बास ने ग़ौर से देखा, “नीली साड़ी में...” ये कह कर उसने अपने मख़सूस अंदाज़ में मेरी तरफ़ क़हर आलूद निगाहों से देख कर कहा, “ईलाज कराओ अपनी आँखों का, चुग़द कहीं के, ये शो शो है?”
“क्यों वो नहीं है क्या?” मैंने फिर नीली साड़ी की तरफ़ ग़ौर से देखा और ऐसा करते हुए मेरी निगाहें एका एकी उस लड़की की निगाहों से टकराईं कुछ इस तौर पर कि उसको एक धक्का सा लगा। वो सँभली और फ़ौरन मुँह से लाल जीब निकाल कर मेरा मुँह चिड़ाया। अपनी सहेली के कान में कुछ कहा, उस सहेली ने कनखियों से मेरी तरफ़ देखा... मेरे माथे पर पसीना आ गया।

अब्बास ने जो अपना इतमिनान करने के लिए एक बार फिर उसकी तरफ़ देख रहा था, बलंद आवाज़ में कहा, “ब-ख़ुदा तुम उसकी तौहीन कर रहे हो... गधे कहीं के। औरत के मुआ’मले में निरे अहमक़ हो, काठ की कोई पुतली नीले रंग में लपेट लपाट कर तुम्हारे सामने रख दी जाये। तुम उसी की बलाऐं लेना शुरू कर दोगे।”
ये अलफ़ाज़ इतनी ऊंची आवाज़ में अदा किए गए थे कि उस नीली साड़ी वाली ने सुन लिये। जब वो हमारे पास से गुज़रने लगी तो ख़ुदबख़ुद ठिटक गई। एक लहज़े के लिए उसके क़दम रुके। गोया हम में से किसी ने उसको मुख़ातिब किया है। फिर फ़ौरन उसको अपनी ग़लती का एहसास हुआ और इस एहसास की पैदा की हुई ख़िफ़्फ़त दूर करने के लिए उसने यूंही पीछे मुड़ कर देखा और कहा, “अरे... अमीना तू कहाँ उड़ गई?”

मुझे मौक़ा मिला। मैं झट से अब्बास का हाथ अपने हाथ में ले लिया और उसे अच्छी तरह दबा कर उससे कहा, “आपसे मिल कर बहुत ख़ुशी हासिल हुई। मगर मेरा नाम मुहम्मद अमीन है... मुझे नील कंठ भी कहते हैं!”
जल ही तो गई, मगर हम ज़ेरे लब मुस्कुराते आगे बढ़ गए। चंद ही क़दम चले होंगे कि अब्बास ने इज़्तराब भरे लहजे में कहा, “शो शो अभी तक नहीं आई।”

“तो मैं क्या करूं... मेरे सर पर नमदा बांध दीजिए तो मैं अभी सरकार के लिए उसे तलाश कर के ले आता हूँ। आख़िर ये क्या हमाक़त है भई, तुम तमाशा भी देखने दोगे या कि नहीं? और फिर जनाब ये तो बताईए, अगर वो यहां मौजूद भी हो तो आप उससे मुलाक़ात क्योंकर कर सकते हैं... आप कोई अमरीकी नावेल नहीं पढ़ रहे, कोई ख़्वाब तो नहीं देख रहे!”
अब्बास मेरी बात फ़ौरन समझ गया, वो इतना बेवक़ूफ़ नहीं था। चुनांचे हम दोनों आहिस्ता आहिस्ता क़दम उठाए गली से निकल कर बाज़ार में चले गए। मोड़ पर राम भरोसे पनवाड़ी की दुकान खुली थी, जो बिजली के क़ुमक़ुमे के नीचे सर झुकाए ऊँघ रहा था। हमने उससे दो पान बनवाए और वहीं बाज़ार में कुर्सियों पर बैठ कर बातें करने में मशग़ूल हो गए।

देर तक हम हिंदुस्तान में मर्द-औरत के दरमियान जो अजनबियत चली आ रही है, उसके बारे में गुफ़्तगू करते रहे। जब एक बज गया तो अब्बास जमाई लेकर उठा और कहने लगा, “भई अब नींद आ रही है... इस हसरत को साथ लिये जा रहा हूँ कि शो शो को न देख सका। सच कहता हूँ अमीन, वो लड़की... मैं अब तुम्हें क्या बताऊं कि वो क्या है?”
अब्बास ने अपने घर का रुख़ किया और मैंने अपने घर का। रास्ते में सोचता रहा कि अब्बास ने शो शो जैसी मा’मूली लड़की में ऐसी कौनसी ग़ैर-मा’मूली चीज़ देखी है जो हर वक़्त उसी का ज़िक्र करता रहता है। अब्बास के मज़ाक़ के मुतअ’ल्लिक़ मैं यक़ीन के साथ कह सकता हूँ कि बड़ा ऊंचा है, मगर यहां उसे क्या हो गया था? शो शो... शो शो... अरे ये क्या? दो तीन बार उसका नाम मेरी ज़बान पर आया तो मैंने यूं महसूस किया कि पेपरमिन्ट की गोलियां चूस रहा हूँ।

शो शो...एक दो मर्तबा आप भी उसे दोहराईए। ज़रा जल्दी जल्दी... क्या आपको लज़्ज़त महसूस हुई? ज़रूर हुई होगी मगर क्यों? समझ में नहीं आता था कि मैं अब्बास की महबूबा शो शो के बारे में ख़्वाह मख़्वाह क्यों ग़ौर करने लगा हूँ? इसमें ऐसी कोई चीज़ है ही नहीं जो गौर अफ़रोज़ हो मगर... मगर... ये शो शो नाम में दिलचस्पी ज़रूर थी। और क्या कहा था मैंने, लज़्ज़त भी!
शो शो में बानजो के थिरकते हुए तारों की झनकार सी पाई जाती है। आप ये नाम पुकारिए तो ऐसा मालूम होगा कि आपने किसी साज़ के तने हुए तारों पर ज़ोर से गज़ फेर दिया है।

शो शो... सुशीला का दूसरा नाम है। या’नी उसकी बिगड़ी हुई शक्ल मगर इसके बावजूद उसमें कितनी मोसीक़ी है? सुशीला... शो शो... शो शो, सुशीला... ग़लत... सुशीला में शोशो की सी मोसीक़ियत हर्गिज़ नहीं हो सकती!
फ़िरंगी शायर बायरन, शकील था। मगर उसमें वो कौन सी शय थी जो औरतों के सीने में हैजान बरपा कर देती थी? उसका लंगड़ा कर चलना, ग्रेटा गारबो, क़तअ’न ख़ुश शक्ल नहीं है मगर उसमें कौन सी चीज़ है जो फ़िल्मी तमाशाइयों पर जादू का काम करती है? उसका ज़रा बिगड़े हुए अंग्रेज़ी लहजे में बातें करना... ये क्या बात है कि बा’ज़ औक़ात अच्छी भली शय को बिगाड़ने से उसमें हुस्न पैदा हो जाता है?

सुशीला पंद्रह बरस की एक मा’मूली लड़की है, जो हमारे पड़ोस में रहती है। इस उम्र में उन तमाम चीज़ों की मालिक है, जो आ’म नौजवानों के सीने में हलचल पैदा करने के लिए काफ़ी होती हैं। मगर अब्बास की नज़रों में ये कोई ख़ूबी न थी। आ’म नौजवानों की तरह अब्बास का दिल घास की पत्ती के मानिंद नहीं था। जो हवा के हल्के से झोंके के साथ ही काँपना शुरू कर देती है... ख़ुदा जाने वो उसकी किस अदा पर मरता था जो मेरे ज़ेहन से बालातर थी।
मैंने सुशीला की शक्ल व सूरत और उसकी सन्नाआ’ना क़द्र-ओ-क़ीमत के मुतअ’ल्लिक़ कभी ग़ौर नहीं किया था। मगर न जाने में उस रोज़ उसके मुतअ’ल्लिक़ क्यों सोचता रहा। बार बार वो मेरे ज़ेहन में आ रही थी और हर बार मैं सुशीला को छोड़कर उसके मुख़्तसर नाम शोशो की मोसीक़ी में गुम हो जाता था।

इन्ही ख़यालात में ग़र्क़ गली के मोड़ पर पहुंच गया और मुझे इस चीज़ का एहसास उस वक़्त हुआ जब मैंने दफ़अ’तन वहां की फ़िज़ा को ग़ैर-मा’मूली तौर पर ख़ामोश पाया। मकान मेरी नज़रों के सामने था। उसके बाहर गली की दीवार के साथ एक बर्क़ी क़ुमक़ुमा लटक रहा था, जिसकी चौंधिया देने वाली रोशनी सारी गली में बिखरी हुई थी। मुझे इस क़ुमक़ुमे के ‘तजर्रुद’ पर बड़ा तरस आया। गली बिल्कुल सुनसान थी और वो क़ुमक़ुमा मुतहैयर सा मालूम होता था।
घर में दाख़िल हुआ तो वहां भी ख़ामोशी थी। अलबत्ता कभी कभार किसी बच्चे के रोने की लर्ज़ां सदा और फिर साथ ही उसकी माँ की ख़्वाब आलूद आवाज़ सुनाई देती थी। ड्योढ़ी के साथ वाला कमरा खोल कर मैं सोफे पर बैठ गया। पास ही तिपाई पर “रुमान” पड़ा था। उसको उठा कर मैंने वरक़ गरदानी शुरू की। वरक़ उलटते उलटते अख़्तर की ग़ज़ल पर नज़रें जम गईं। मतला किस क़दर हसीन था:

न भूलेगा तिरा रातों को शर्माते हुए आना
रसीली अंखड़ियों से नींद बरसाते हुए आना

मुझे नींद आ गई। क्लाक की तरफ़ देखा तो छोटी सुई दो के हिन्दसे के पास पहुंच चुकी थी और इस का ऐ’लान करने के लिए अलार्म में इर्तआ’श पैदा हो रहा था... टन नन नन... टन नन नन... न!
दो बज गए... मैं उठा और सोने के इरादे से सीढ़ियां तय करके अपनी ख़्वाबगाह में पहुंचा। बहार के दिन थे और मौसम खुनक। मेरी ख़्वाबगाह की एक खिड़की बाहर की गली में खुलती है, जिसके प्याज़ी रंग के रेशमी पर्दे में हवा के हल्के हल्के झोंके बड़ी प्यारी लहरें पैदा कर रहे थे।

मैंने शब ख़्वाबी का लिबास पहना और सब्ज़ रंग का क़ुमक़ुमा रोशन कर के बिस्तर पर लेट गया।
मेरी पलकें आपस में मिलने लगीं। ऐसा महसूस होने लगा कि में धुनकी हुई रूई के बहुत बड़े अंबार में धंसा जा रहा हूँ। नींद और बेदारी के दरमियान एक लहज़ा बाक़ी रह गया था कि अचानक मेरे कानों में किसी के बोलने की गुनगुनाहट आई। इस पर मिलती हुई पलकें खुल गईं और मैंने ग़नूदगी दूर करते हुए ग़ौर से सुनना शुरू किया। साथ वाले कमरे में कोई बोल रहा था। यकायक किसी की दिलकश हंसी की तरन्नुम आवाज़ बलंद हुई और फुलझड़ी के नूरानी तारों के मानिंद पुरसुकूत फ़िज़ा में बिखर गई।

मैं बिस्तर पर से उठा और दरवाज़े के साथ कान लगा कर खड़ा हो गया।
“दोनों दुल्हनें माशा अल्लाह बड़ी ख़ूबसूरत हैं।”

“चंदे आफ़ताब चंदे माहताब।”
ग़ालिबन दो लड़कियां आपस में बातें कर रही थीं। उनके मौज़ू ने मेरी दिलचस्पी को बढ़ा दिया और मैंने ज़्यादा ग़ौर से सुनना शुरू किया।

“तिल्ले वाली सुर्ख़ साड़ी में नर्गिस कितनी भली मालूम होती थी... गोरे गोरे गालों पर बिखरी हुई मुक़य्यश... जी चाहता था, बढ़ कर बलाऐं ले लूं।”
“बेचारी सिमटी जा रही थी।”

“सर तो उठाया ही नहीं उसने... पर...”
“पर ये शर्म-ओ-हया कब तक रहेगी... आज रात...”

“आज रात...!”
“ऊई अल्लाह... तू कैसी बातें कर रही है शोशो।” इसके साथ ही कपड़े की सरसराहट सुनाई दी। मेरे जिस्म में बिजली सी दौड़ गई... शोशो... तो उनमें से एक सुशीला भी थी। मेरी दिलचस्पी और भी बढ़ गई और मैंने दरवाज़े में कोई दराड़ तलाश करना शुरू की कि उनकी गुफ़्तगू के साथ साथ उन को देख भी सकूं।

एक किवाड़ के निचले तख़्ते से छोटी सी गांठ निकल गई थी और इस तरह चवन्नी के बराबर सुराख़ पैदा हो गया था। घुटनों के बल बैठ कर मैंने उस पर आँख जमा दी।
शो शो क़ालीन पर बैठी बिस्कुटी रंग की साड़ी से अपनी नंगी पिंडली को ढांक रही थी। उसके पास इफ्फ़त शर्माई हुई सी गाव तकिए पर दोनों कुहनियाँ टेके लेटी थी।

इस वक़्त उन गोरी चिट्टी दुल्हनों पर क्या बीत रही होगी? शोशो ये कह कर रुक गई और अपनी आवाज़ दबा कर उसने इफ्फ़त की चूड़ियों को छेड़कर उनमें खनखनाहट पैदा करते हुए कहा, “ज़रा सोचो तो?”
इफ़्फ़त के गाल एक लम्हे के लिए थरथराए, “कैसी बहकी बहकी बातें कर रही हो शोशो।”

“जी हाँ... गोया इन बातों से दिलचस्पी नहीं मेरी बन्नो को। बस में हो तो अभी से अभी अपनी शादी रचा लो।”
इफ्फ़त ने सुशीला की बात काट दी, “पर ये दुल्हनों को कहाँ ले गए हैं शोशो?”

“कहाँ ले गए हैं?” शोशो मुस्कुराई, “समुंदर की तह में जहां जल परियों का राज है... कोह-ए-क़ाफ़ के गारों में जहां सींगों वाले जिन्न रहते हैं...”
चंद लम्हात के लिए एक पुरअसरार सुकूत तारी रहा। इसके बाद शोशो फिर बोली, “कहाँ ले गए हैं? ले गए होंगे अपने अपने कमरों में!”

“बेचारियों को नींद कैसे आएगी?” एक लड़की ने जो अभी तक ख़ामोश बैठी थी और जिसका नाम मैं नहीं जानता था, अपना अंदेशा ज़ाहिर किया।
शोशो कहने लगी, “बेचारियाँ! कोई ज़रा उनके दिल से जा कर पूछे कि उनकी आँखें इस रतजगे के लिए कितनी बेक़रार थीं?”

“तो बहुत ख़ुश होंगी?”
“और क्या ?”

“पर मैंने ये सुना है कि ये लोग बहुत सताया करते हैं?” इफ्फ़त सुशीला के पास सरक आई।
“मैं पूछती हूँ तुम्हें अंदेशा किस बात का हो रहा है? जब तुम्हारे वो सताने लगेंगे तो न सताने देना उन्हें... हाथ पैर बांध देना उनके... अभी से फ़िक्र में क्यों घुली जा रही हो।”

“हाएं हाएं।” इफ्फ़त ने तेज़ी से कहा, “तुम कैसी बातें कर रही हो शोशो। देखो तो मेरा दल कितने ज़ोर से धड़कने लगा है!” इफ्फ़त ने सुशीला का हाथ उठा कर दिल के मुक़ाम पर रख दिया, “क्यों?”
शोशो ने इफ्फ़त के दिल की धड़कनें ग़ौर से सुनीं और बड़े पुरअसरार लहजे में कहा, “जानती हूँ क्या कह रहा है?”

इफ़्फ़त ने जवाब दिया, “नहीं तो?”
“ये कहता है, इफ़्फ़त बानो ग़ज़नवी दुल्हन बनना चाहती है!”

“हटाओ जी, लाज तो नहीं आती तुम्हें।” इफ़्फ़त ने मुस्कुरा कर करवट बदली, “दिल अपना चाहता है तुम्हारा और ख़्वाह मख़्वाह ये सब कुछ मेरे सर मंढ रही हो।” फिर यकायक उठ खड़ी हुई और सुशीला से पूछने लगी, “हाँ, ये तो बताओ शोशो, तुम भला कैसे आदमी से शादी करना पसंद करोगी? मेरे सर की क़सम, सच सच बताओ, मुझी को हाय हाय करो। अगर झूट बोलो!”
“मैं क्यों बताऊं।” ये कह कर सुशीला ने तेज़ी से अपने सर को हरकत दी और उसका चेहरा निगाहों से पोशीदा था, सामने आ गया, मैंने ग़ौर से देखा वो मुझे बेहद हसीन मालूम हुई। आँखें मस्त थीं और होंट तलवार के ताज़ा ज़ख़्म के मानिंद खुले हुए थे। सर के चंद परेशान बाल बर्क़ी रोशनी से मुनव्वर फ़िज़ा में नाच रहे थे। चेहरे का गंदुमी रंग निखरा हुआ था और सीने पर से साड़ी का पल्लू नीचे ढलक गया था, हौले-हौले धड़क रहा था। चौड़े माथे पर सुर्ख़ बिंदिया बड़ी प्यारी मालूम होती थी।

इफ्फ़त ने इसरार किया, “तुम्हें मेरे सर की क़सम बताओ?”
शोशो ने कहा, “पहले तुम बताओ।”

“तो सुनो, मगर किसी से कहोगी तो नहीं।” ये कह कर इफ्फ़त कुछ शर्मा सी गई। “मैं चाहती हूँ... मैं चाहती हूँ कि मेरी शादी एक ऐसे नौजवान से हो... ऐसे...”
शोशो बोली, “तौबा अब कह भी दो।”

इफ्फ़त ने पेशानी पर से बाल हटाए और कहा, “ऐसे नौजवान से हो जिसका क़द लंबा हो, जिस्म बड़े भाई की तरह सुडौल हो। इंगलैंड रीटर्नड हो, अंग्रेज़ी फ़रफ़र बोलता हो... रंग गोरा और नक़्श तीखे हों। मोटर चलाना जानता हो और बैडमिंटन भी खेलता हो।”
शोशो ने पूछा, “बस कह चुकीं?”

“हाँ।” इफ्फ़त ने नीम वा लबों से सुशीला की तरफ़ ग़ौर से देखना शुरू किया।
“मेरी दुआ है कि परमात्मा तुम्हें ऐसा ही पति अ’ता फ़रमाएं।” सुशीला का चेहरा बड़ा संजीदा था और लहजा ऐसा था जैसे मंदिर में कोई मुक़द्दस मंत्र पढ़ रही है।

वो लड़की जो गुफ़्तगू में बहुत कम हिस्सा लेती थी, बोली, “इफ्फ़त! अब शोशो की बारी है।”
इफ्फ़त जो शोशो की साड़ी का एक किनारा पकड़ कर अपनी उंगली के गिर्द लपेट रही थी कहने लगी, “भई, अब तुम बताओ हमने तो अपने दिल की बात तुमसे कह दी।”

शोशो ने जवाब दिया, “सुन के क्या करोगी? मेरे ख़यालात तुमसे बिल्कुल मुख़्तलिफ़ हैं।”
“मुख़्तलिफ़ हों या मिलते हों, पर हम सुने बग़ैर तुम्हें नहीं छोड़ेंगे।”

“मैं...” सुशीला ने छत की तरफ़ देखा और कुछ देर ख़ामोश रहने के बाद कहने लगी, “मैं... पर तुम मज़ाक़ उड़ाओगी इफ्फ़त!”
“अरे, तुम सुनाओ तो?”

सुशीला ने एक आह भरी, “मेरे सपने अ’जीब-ओ-ग़रीब हैं इफ्फ़त... ये मेरे दिमाग़ में साबुन के रंग बिरंगे बुलबुलों की तरह पैदा होते हैं और आँखों के सामने नाच कर ग़ायब हो जाते हैं। मैं सोचती हूँ, और फिर सोचती हूँ कि मैं क्यों सोचा करती हूँ। इंसान जो कुछ चाहता है, अगर हो जाया करे तो कितनी अच्छी बात है, लेकिन फिर ज़िंदगी में क्या रह जाएगा? ख्वाहिशें और तमन्नाएं कहाँ से पैदा होंगी... हम जिस तरह जी रहे हैं ठीक है। जानती हूँ कि जो कुछ मांग रही हूँ, नहीं मिलेगा, मगर दिल में मांग तो रहेगी, क्या ज़िंदा रहने के लिए यही काफ़ी नहीं?”
इफ्फ़त और दूसरी लड़की ख़ामोश बैठी थीं।

शोशो ने फिर कहना शुरू किया, “मैं अपना जीवन साथी एक ऐसे नौजवान को बनाना चाहती हूँ जो सिर्फ़ उम्र के लिहाज़ से ही जवान न हो, बल्कि उसका दिल, उसका दिमाग़, उसका रोवां रोवां जवान हो, वो शायर हो। मैं शक्ल-ओ-सूरत की क़ाइल नहीं, मुझे शायर चाहिए जो मेरी मुहब्बत में गिरफ़्तार हो कर सर-ता-पा मुहब्बत बन जाये। जिसको मेरी हर बात में हुस्न नज़र आए, जिसके हर शे’र में मेरी और सिर्फ़ मेरी तस्वीर हो, जो मेरी मुहब्बत की गहराईयों में गुम हो जाये। मैं उसे इन तमाम चीज़ों के बदले में अपनी निस्वानियत का वो तोहफ़ा दूंगी जो आज तक कोई औरत नहीं दे सकी।”
वो ख़ामोश हो गई। इफ्फ़त हैरत के मारे उसका मुँह तकने लगी। उसके चेहरे से मालूम होता था कि वो सुशीला की गुफ़्तगू का कोई मतलब नहीं समझ सकी। मैं ख़ुद मुतहैयर था कि पंद्रह सोलह बरस की इस दुबली पतली लड़की के सीने में कैसे कैसे ख़यालात करवटें ले रहे हैं। उसका एक एक लफ़्ज़ दिमाग़ में गूंज रहा था।

“अगर वो मुझे नज़र आ जाये,” ये कह कर सुशीला आगे बढ़ी और इफ़्फ़त के चेहरे को अपने दोनों हाथों में लेकर कहने लगी, “तो मैं उसके इस्तक़बाल के लिए बढूं और उसके होंटों पर वो बोसा दूं जो एक ज़माने से मेरे होंटों के नीचे जल रहा है।”
और शोशो ने इफ्फ़त के हैरत से खुले हुए होंटों पर अपने होंट जमा दिए और देर तक उनको जमाए रखा। तअ’ज्जुब है कि इफ्फ़त बिल्कुल साकित बैठी रही और मो’तरिज़ न हुई।

जब दोनों के लब एक मद्धम आवाज़ के साथ जुदा हुए और उनके चेहरे मुझे नज़र आए तो एक अ’जीब-ओ-ग़रीब नज़ारा देखने में आया जिसको अलफ़ाज़ बयान ही नहीं कर सकते। इफ्फ़त उस शहद की मक्खी की तरह मसरूर मुतअ’ज्जिब मालूम होती थी जिसने पहली मर्तबा फूल की नाज़ुक पत्तियों पर बैठ कर उसका रस चूसने की लज़्ज़त महसूस की हो... और सुशीला, वो और ज़्यादा पुर-असरार हो गई थी।
“आओ अब सोएँ।”

ये ख़्वाब-आलूद और धीमी आवाज़ इफ़्फ़त की थी। इसके साथ ही कपड़ों की सरसराहट भी सुनाई दी और मैं ख़यालात के गहरे समुंदर में ग़ोता लगा गया।
गंदुमी रंग की नन्ही सी गुड़िया, अपने छोटे से दिमाग़ में कैसे कैसे अनोखे ख़यालात की परवरिश कर रही थी और वो कौन सा तोहफ़ा अपने दामन-ए-निस्वानियत में छुपाए बैठी थी जो आज तक कोई औरत मर्द को पेश नहीं कर सकी?

मैंने सुराख़ में से देखा, शोशो और इफ़्फ़त दोनों एक दूसरी के गले में बाहें डाले सो रही थीं। शोशो के चेहरे पर बाल बिखरे हुए थे और उसके सांस से उनमें ख़फ़ीफ़ सा इर्तआ’श पैदा हो रहा था। वो किस क़दर तर-ओ-ताज़ा मालूम होती थी... वाक़ई वो इस क़ाबिल थी कि उस पर शे’र कहे जाएं... लेकिन अब्बास तो शायर नहीं था?... फिर फिर...


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