कीमिया-गर

हकीम मसीह तुर्किस्तान से अपनी बूढ़ी माँ को साथ ले कर हिन्दुस्तान आए थे, दिल्ली पहुंचे तो उन्हें हुक्म मिला कि जौनपुर की तरफ़ कुछ और नौ-वारिद तुर्की ख़ानदानों के साथ एक बड़े गांव में जिसका ख़ालिदपुर नाम रखा गया था, मुसलमान आबादी की बुनियाद डाली। हकीम मसीह ने हुक्म की तामील की और ख़ालिदपुर में जा बसे। रफ़्ता-रफ़्ता दूसरे ख़ानदान भी आ गए और मुसलमानों की एक मुस्तक़िल आबादी हो गई। हकीम मसीह ने दुनिया के तक़रीबन तमाम मशहूर तबीबों की शागिर्दी की थी और अपने फ़न में माहिर थे। इसलिए ये कोई तअज्जुब की बात न थी कि वो थोड़े दिनों में आस-पास मशहूर हो गए और तुर्किस्तान में उनके ख़ानदान ने जो कुछ खोया था हो हिन्दुस्तान में उन्हें मिलने लगा। उनकी माँ ने एक तुर्की रईस की बेटी से उनकी शादी भी करा दी जिससे उन्हें शराफ़त और सरमायादारी का तमग़ा मिल गया।
हकीम मसीह निहायत हसीन, ख़ुश-मिज़ाज और शाइस्ता आदमी थे। दुनिया की मुसीबतें उनकी तबीयत में तुर्शी या तल्ख़ी नहीं पैदा कर सकी थीं, वो ऊंच-नीच देख चुके थे, ख़ुद हमदर्दी की तलाश में रह चुके थे और अब हर एक से अच्छा सुलूक करने पर तैयार थे। तजुर्बे ने उन्हें इन्सान की फ़ित्रत के भेद बता दिये थे। उन्हें मालूम था कि मुहब्बत से बात करने का क्या असर होता है, मरीज़ को दवा से कितना फ़ायदा पहुंचता है और तबीब के अख़लाक़ से कितना। उनका बरताव बीमारों और तीमारदार के साथ ऐसा था कि लोग महज़ उनकी तवज्जो को काफ़ी समझते थे लेकिन वो मर्ज़ की तश्ख़ीस भी बहुत सोच-समझ कर करते थे और दवायें निहायत एहतियात से अक्सर अपने सामने तैयार कराते थे। यहां तक कि उनकी नाकामी की वजह इलावा तक़दीर के और कोई नहीं समझी जाती थी।

लेकिन हकीम मसीह बावजूद अपनी हरदिल-अज़ीज़ी और शोहरत के अपनी ज़िंदगी से मुत्मइन न थे, कुछ अपने वतन की याद बेचैन करती थी, कुछ हिन्दुस्तान की फ़िज़ा मगर सबसे ज़्यादा उन्हें ये ख़याल सताता था कि अब वो दुनिया जितनी देखनी थी देख चुके हैं क्यों कि हिन्दुस्तान से वापस जाना मुम्किन नहीं और वो यहीं मरेंगे और यहीं दफ़न होंगे। उनका दिल हर क़िस्म के तअस्सुब से पाक था। लेकिन फिर भी वो हिंदुओं को न अपने जैसे आदमी समझ सकते थे न हिन्दुस्तान को अपने वतन जैसा मुल्क। उन पर कुछ असर उनकी बीवी और उनके ससुराल का भी था। ये लोग किसी मजलिस को बग़ैर अपने मुल्क की याद में नौहा-ख़्वानी किए नहीं बर्ख़ास्त करते थे और बग़ैर हिंदू क़ौम और हिंदू मज़हब पर लानत भेजे किसी मसअले पर गुफ़्तगू नहीं कर सकते थे। हकीम मसीह को हिंदूओं से इस क़दर साबिक़ा पड़ता था, और हिंदू उनकी इस क़दर इज़्ज़त, उनसे इस क़दर मोहब्बत करते थे कि उनका अपनी ससुराल वालों का हम-ख़याल होना नामुम्किन हो जाता, लेकिन उन लोगों के तअस्सुब का इतना असर तो ज़रूर हुआ कि हकीम मसीह न हिंदुओं में इस तरह घुल-मिल सके जैसा कि उनकी फ़ित्रत का तक़ाज़ा था और न हिन्दुस्तान के ज़मीन-ओ-आसमान को अपना वतन बना सके, इज़्ज़त और शोहरत हासिल करने पर भी उनको इसका अरमान रह गया कि एक दम भर के लिए भी तबीयत में सुकून पैदा कर सकें, वो अपनी ज़िंदगी को मुस्तक़िल या अपने घर को घर समझ सकें।
यूँ ही दिन गुज़रते गए, हकीम मसीह की माँ का इंतिक़ाल हो गया और वो मुसलमानों के क़ब्रिस्तान में दफ़न हुईं जो आबादी के साथ रफ़्ता-रफ़्ता बढ़ रहा था लेकिन हकीम मसीह को किसी तरह से यक़ीन न आ सका कि हिन्दुस्तान में उनकी नस्ल ने जड़ पकड़ ली है, और उनकी रुहानी बेचैनी उन्हें परेशान करती रही।

"काश, मुझे एक ऐसा कीमियागर मिलता," उन्होंने अपनी बीवी से एक दिन कहा, "जो मेरी फ़ित्रत में इस सरज़मीन से मुनासिबत पैदा कर देता। आख़िर मैं कब तक अपने आपको मुसाफ़िर या मेहमान समझता रहूँगा।"
इसके जवाब में उनकी बीवी ने आँखें निकालीं और तंज़ से कहा,

"जब जवानी थी तो हिम्मत हारे बैठे रहे, अब बुढ़ापे में कीमियागर की तलाश है। जो इरादे का कमज़ोर हो उसकी मदद करना क़ादिर-ए-मुतलक़ के इमकान से भी बाहर है।"
हकीम मसीह मुस्कुराए, एक ठंडी सांस भरी और ख़ामोश हो गए।

इस गुफ़्तगू के कुछ दिन बाद ही उनके मतब में, एक हैज़े का मरीज़ लाया गया। हकीम साहब ने उसके लिए तो नुस्ख़ा लिख दिया लेकिन अपने घर कहला भेजा कि ख़ालिदपुर में हैज़े का अंदेशा है और सबको फ़ौरन सफ़र की तैयारी करना चाहिए। उनके घर से दूसरे मुसलमान घरानों में ख़बर पहुंचाई गयी और सारी बस्ती में खलबली मच गई। जब हकीम मसीह के पास शाम तक और मरीज़ भी पहुंचे और उन्होंने ये इत्तिला दी कि वबा का हमला ग़ालिबन शदीद होने वाला है तो सबने उसी रात बस्ती छोड़ देने का तहय्या कर लिया। हकीम मसीह ख़ुद ख़ालिदपुर में ठहरने का इरादा कर चुके थे और उन्होंने अपनी बीवी को उसकी मस्लिहतें समझाने की बहुत सी दलीलें सोच ली थीं। मगर उनकी बीवी उनसे ज़्यादा दूर-अंदेश साबित हुईं और जब वो मग़रिब के क़रीब-क़रीब घर के अंदर गए तो उन्होंने देखा कि तमाम नौकर-चाकर बौखलाए हुए इधर उधर फिर रहे हैं और उनकी बीवी रो-पीट रही हैं। पहले तो उन्हें ये शुबहा हुआ कि शायद घर में कोई हैज़े का शिकार बना है। मगर जब बड़ी दिक़्क़त से उन्होंने वाक़िया दर्याफ़्त किया तो मालूम हुआ कि ये उन्हीं का मातम हो रहा है, उनकी बीवी ने महज़ इस अंदेशे में कि वो ख़ालिदपुर छोड़ने से इनकार करेंगे, सिर्फ़ ख़ुद रोना धोना नहीं शुरू कर दिया था बल्कि तमाम मुहल्ले और अज़ीज़ों से उनकी इस हिमाक़त की शिकायत भी की थी और हर एक को रो-रो कर उनके इरादे की मुख़ालिफ़त पर आमादा कर लिया था। हकीम मसीह खड़े तदबीरें सोच रहे थे कि उनके ख़ुसर और साले आ गए और उन्हें घेर कर खड़े हो गए। बारी बारी से एक समझाता और दूसरा डाँटता था, और दोनों इस क़दर घबराए हुए थे कि बहुत देर तक हकीम मसीह को पता ही न चला कि वो कह क्या रहे थे, और क़ब्ल इसके कि हकीम मसीह ज़बान हिला सकें दोनों ने उनके हाथ पकड़ लिए, ख़ुदा और रसूल और मुसलमानों की जानों की क़समें दिलाईं, उनकी जवान बीवी और नन्हे बच्चों की हिफ़ाज़त का फ़र्ज़ याद दिलाया और आख़िर में हिंदू क़ौम पर लानत भेजी और कहा कि वो इसी क़ाबिल है कि दिक़ और हैज़े में हलाक हो और किसी मुसलमान को उसको बचाने के लिए अपनी जान ख़तरे में न डालनी चाहिए।
अब हकीम मसीह समझे कि इस अजीब-ओ-ग़रीब तक़रीर का मक़सद क्या है और उन्होंने जो दलीलें अपनी बीवी की ख़िदमत में पेश करने के लिए सोच रखी थीं उनसे कह लेना चाहा मगर उनके ख़ुसर और साले ने उनकी ज़रा सी ख़ामोशी को रजामंदी क़रार दिया और चिल्ला उठे,

"अरे वो बेचारा तो कुछ कहता है नहीं, वो ख़ुद जाने पर तैयार है।"
हकीम मसीह फिर कुछ कहना चाहते थे लेकिन उनकी बीवी जो अपने फ़रीक़ को मज़बूत पा कर उनके सामने आ कर खड़ी हो गई थीं कहने लगीं,

"आप लोगों के कहने से कुछ नहीं होता। मुझे इत्मिनान उसी वक़्त होगा जब ये ख़ुद अपनी ज़बान से कह दें कि हमारे साथ चलेंगे।"
"चलेंगे क्यों नहीं।" हकीम मसीह के साले ने कहा, "तुम सामान तैयार कराओ वो अपनी मर्ज़ी से न गए तो हम ज़बरदस्ती ले जाएंगे।"

ये कह कर हकीम मसीह के साले ने अंदर सफ़र की तैयारी का दोबारा हुक्म दिया और हकीम मसीह का हाथ पकड़ कर उन्हें बाहर ले गए। यहां उन्हें क़ाइल करने के लिए बहुत से मुसलमान हमसाए मौजूद थे, बुज़ुर्ग जिनकी हकीम मसीह बहुत इज़्ज़त करते थे, हम-उम्र दोस्त जिनकी सोहबत के बग़ैर उनका ज़िंदा रहना दुश्वार था। ये लोग बारी बारी से कभी एक साथ तक़रीरें करते रहे कभी फ़र्दन फ़र्दन मगर हकीम मसीह ने उनकी तरफ़ कोई तवज्जाे न की। उन्होंने अपने दिल में ये तय कर लिया था कि उनका ख़ालिदपुर के बाशिंदों को इस तरह से छोड़कर चला जाना एक शदीद अख़लाक़ी जुर्म है जिसका इल्ज़ाम न वो अपनी बीवी पर लगा सकते हैं न रिश्तेदारों पर। लेकिन उन्होंने उस वक़्त की भी तस्वीर खींची जब ख़ालिदपुर में एक मुसलमान भी बाक़ी न रहा होगा, उनके सारे दोस्त और अज़ीज़ हिन्दुस्तान की वुसअत में ग़ायब हो गए होंगे, वो तर्ज़-ए-ज़िदंगी जिससे वो मानूस थे नामुमकिन हो जाएगा। वो ख़ुद अगर ज़िंदा रहे तो घर में अकेले बैठे दवाएं बनाते रहेंगे, और अगर मर गये तो अकेले दफ़न होंगे और उनके जनाज़े की नमाज़ तक पढ़ने के लिए कोई मुसलमान न होगा। ख़ालिदपुर छोड़ना उनके लिए एक अख़लाक़ी जुर्म ज़रूर था मगर ऐसी ज़िंदगी बर्दाश्त करना एक शदीद अख़लाक़ी जुर्म की सज़ा भुगतने से भी उन्हें ज़्यादा दुशवार मालूम हुआ। उन्होंने दिल ही दिल में दुआ मांगी कि उन्हें ज़िंदगी के मसाइल से जल्द सुबुकदोश किया जाये और सर झुका कर बैठ गए।
जब रात को मुसलमान क़ाफ़िला बस्ती से निकला तो हकीम मसीह उसके साथ थे।

उनको उम्मीद थी कि अपने ज़मीर को वो किसी तरह से समझा बुझा कर मना लेंगे, लेकिन बद-क़िस्मती से उनकी कोई तदबीर न चली। उन्होंने हज़ार कोशिश की कि गुज़शता ज़िंदगी को बिल्कुल भूल जाएं मगर उनका तख़य्युल क़ाबू से निकल गया और हर लम्हा एक नया सदमा पहुंचाने लगा। ज़रा कहीं खट खट की आवाज़ आई और उन्हें ख़याल आया कि इस वक़्त मालूम नहीं कितने लोग जिनको अभी उसकी ख़बर नहीं मिली है कि हकीम मसीह उऩ्हें मुसीबत में छोड़कर भाग गए हैं, उनके दरवाज़े को खड़े खटखटा रहे होंगे। कहीं कोई बच्चा रोया और उन्हें याद आया कि नागहानी मौत कैसी बला होती है, ख़ालिदपुर में कितने बच्चों की माएं उस वक़्त हाथ मल-मल कर कह रही होंगी कि अगर हकीम मसीह न चले गए होते तो उनके बच्चों की जान बचा लेते। हकीम मसीह की आँखों में बारहा आँसू भर आए, सर चकराने लगा, लेकिन वापस जाने की हिम्मत उन्हें फिर भी न हुई।
क़ाफ़िले ने ख़ालिदपुर से कोई दस कोस पर जा कर मंज़िल की। हकीम मसीह थक कर चूर हो गए थे, लेकिन उन्हें यक़ीन था कि नींद किसी तरह नसीब न होगी और हुआ भी यही। कुछ देर के लिए तो उन पर ग़फ़लत सी तारी हो गई जिससे उनका तकान जाता रहा, लेकिन फिर वो परेशान ख़्वाब देखने लगे। कभी वो पहाड़ की चोटी पर से फिसल कर नीचे गिरते थे, कभी घोड़े पर सवार एक ग़ार में फाँद पड़ते थे जिसकी तह में एक ख़ौफ़नाक तारीकी के सिवा कुछ न था। ख़्वाब ही में ख़याल आया कि वो दिल्ली जा रहे हैं, एक तेज़ आंधी आई जिसमें उनका घोड़ा कई मर्तबा ज़मीन पर से उड़ गया, उसके बाद उन्होंने देखा कि वो एक वसीअ मैदान में खड़े हैं, उनके सामने एक पतली लंबी सी सड़क है जो दूर जाकर काले बादलों की घटा में गुम हो जाती है, सड़क के दोनों तरफ़ एक ऊंची मुंडेर है और मुंडेर के बाद खेतों का सिलसिला है जो कहीं ख़त्म नहीं होता। उन्होंने घोड़े को एड़ लगाई और काली घटा की तरफ़ रवाना हुए। दिल्ली का रुख वही था।

थोड़ी दूर चलने के बाद उन्हें सामने सड़क के किनारे एक स्याह नुक़्ता सा नज़र आया, पास पहुंचे तो देखा कि एक आदमी ग़ालिबन सुस्ताने के लिए मुंडेर पर बैठा है, उन्होंने उसकी तरफ़ कोई तवज्जो नहीं की और आगे बढ़ गए, मगर कोई दस क़दम चलने के बाद उनका घोड़ा रुक गया और एड़ और चाबुक भी उसे जगह से न हिला सके, वापस जाने पर वो तैयार था, आगे मालूम होता था कि उसे मुर्दा ले जाना भी मुश्किल होगा। हकीम मसीह समझे कि वो किसी चीज़ को देखकर भड़क गया है और उसका मिज़ाज दुरुस्त करने के लिए वो थोड़ी दूर वापस जाने पर राज़ी हो गए कि कुछ देर इसी मुसाफ़िर से बातें कर लें।
गुफ़्तगू शुरू करने से पहले हकीम मसीह ने उसे ग़ौर से देखा। मुसाफ़िर का लिबास एक ख़ुशहाल कारीगर का सा था, यानी एक नीची मोटे सूत की धोती, और इतने ही मोटे कपड़े की बंडी और एक पगड़ी जो उसने उस वक़्त उतार कर अपने पास ज़मीन पर रख दी थी। उसके कंधों और पीठ पर एक मोटी सख़्त ऊन की कमली पड़ी हुई थी। मुसाफ़िर का क़द बहुत लंबा था, सीना चौड़ा, पुट्ठे तने और उभरे हुए जिसकी वजह से पहली नज़र में वो एक मामूली इन्सान नहीं बल्कि एक ज़िंदा फ़ौलाद की ढली हुई मूरत मालूम होता था, उसकी दाढ़ी के लंबे सीधे बाल, ऊंची पतली नाक, चौड़ी पेशानी, चेहरे का नुमायां सुकून सब उसी वहम में डालते थे कि उसका जिस्म आहनी है मगर आँखों को देख कर ये सारा तिलिस्म टूट जाता उसकी बड़ी बड़ी नर्गिसी आँखों में एक नर्मी और मुहब्बत थी जो उसके जिस्म की मज़बूती, उसके क़द-ओ-क़ामत पर हावी थी और उसे देखने वाला फ़ौरन समझ जाता था कि वो उसका दोस्त और हमदर्द है और ये मुजस्समा-ए-ताक़त, मुजस्समा-ए-मुहब्बत-ओ-ईसार है। हकीम मसीह पर भी उन बातों का असर हुआ। वो जवाब में मुस्कुरा दिए और देर तक मुसाफ़िर के मर्दाना हुस्न का लुत्फ़ उठाते रहे। आख़िरकार उन्होंने पूछा,

"ऐ आहनी जिस्म के मुसाफ़िर तू कहाँ जा रहा है?"
मुसाफ़िर ने पहले सर झुका लिया, फिर उनसे आँख लड़ा कर मायूसी के लहजे में कहा, "ख़ालिदपुर!"

"मगर वहां तो हैज़ा है।"
"हाँ, मैं इसी लिए जा रहा हूँ।"

हकीम मसीह को इस क़दर हैरत हुई कि वो थोड़ी देर तक कुछ न कह सके, लेकिन मुसाफ़िर ने अंगड़ाई ली और उन्हें इस ख़ूबसूरत मर्दाना जिस्म पर रहम आया जो जान-बूझ कर मौत को दावत दे रहा था, उन्होंने बड़ी हसरत से मुसाफ़िर की तरफ़ देखा और पूछा,
"ऐ मुसाफ़िर! क्या तुझे अपनी जान अज़ीज़ नहीं?"

मुसाफ़िर ने ठहर-ठहर कर कहा, "मुझे अपनी जान बहुत अज़ीज़ है और हमेशा रहेगी, जितनी वो मुझे अज़ीज़ है उतनी ही वो ख़ुदा को ज़्यादा अज़ीज़ होगी, अगर मैंने उसकी राह में जान दी।"
हकीम मसीह फिर चुप हो गए। मुसाफ़िर की सूरत से ज़ाहिर था कि उसका क़ौल पक्का है। उन्हें अपनी कमज़ोरी याद आई और इस बुलंद हिम्मत और पुख़्ता इरादे पर रश्क आया। लेकिन उन्होंने सोचा कि शायद ये शख़्स दुनिया में अकेला हो और इंतिहाई ईसार से रोकने के लिए कोई दुनियावी तअल्लुक़ात न हों। कुछ वो अपना बचाव भी करना चाहते थे।

"ऐ मुसाफ़िर! क्या दुनिया में तुझसे मुहब्बत करने वाला नहीं?"
"मुहब्बत का जवाब मुहब्बत है, जहां जाता हूँ मुझसे मुहब्बत करने वाले पैदा हो जाते हैं। मगर मुहब्बत मुझे कभी भलाई से नहीं रोकती।"

आख़िरी जुमला हकीम मसीह के सीने में तीर की तरह लगा और वो बेताब हो गए। उन्होंने घबरा कर पूछा, "ऐ मुसाफ़िर तू कहाँ से आया है?"
"मैं ख़ुदा का बंदा हूँ, किसी मुल्क का बाशिंदा नहीं।" मुसाफ़िर ने निहायत इत्मिनान से जवाब दिया, "जिस मुल्क में मेरा ख़ुदा मुझे पहुंचा दे वही मेरा वतन है। उसकी ख़िदमत मेरा फ़र्ज़ है।"

"लेकिन तेरा मकान तो ज़रूर कहीं होगा?"
"दुनिया में हज़ारों ख़ुदा के बंदे हैं जिनके पास मकान, बीवी, बच्चे कुछ नहीं... मैं जहां थका वहीं बैठ जाता हूँ, जहां नींद लगी, मैं सो जाता हूँ।"

"मगर मुसाफ़िर! तेरे बीवी-बच्चे होते तो तू क्या करता?"
"औरत की मुहब्बत से बेहतर और कोई नेअमत ख़ुदा ने इन्सान को नहीं बख़्शी है। मेरे अगर बीवी होती तो मैं सबसे पहले उसके क़दमों में गिरता और उससे कहता कि मुझमें ताक़त नहीं, हिम्मत नहीं, सिर्फ़ तेरी मुहब्बत मुझे सीधे रास्ते पर चला सकती है। चल मेरी रहबरी कर। मैं तेरे बग़ैर बिल्कुल मजबूर हूँ।"

"मगर मुसाफ़िर, हैजे़ का इलाज मुहब्बत से क्यों कर हो सकता है?" हकीम मसीह ने मुसाफ़िर को टोक कर कहा। उनकी आँखों से आँसू बहने को तैयार थे। बदन पसीने से शल हो गया था।
मुहब्बत हर बीमारी का इलाज है, हर ज़ख़्म का मरहम है, मुहब्बत ज़िंदगी और मौत का फ़र्क़ मिटा देती है, हर मुश्किल को आसान कर देती है, इन्सान की मुहब्बत में ख़ुदा की रहमत की तासीर होती है, तुझे यक़ीन न आए तो तजुर्बा करके देख ले।"

हकीम मसीह ने सर झुका लिया और ज़ार-ओ-क़तार रोने लगे।
"हकीम मसीह", मुसाफ़िर अचानक बोल उठा, "मुसलमान कोई किसी ख़ास मुल्क में पैदा होने से नहीं बनता, इस्लाम किसी ख़ास तर्ज़-ए-मुआशरत का नाम नहीं। मुसलमान बनना चाहते हो तो जाओ ख़ुदा को सजदा करो, दुनिया की मुसीबतें झेलो, दूसरों की ख़िदमत करो, उन पर से ज़िंदगी का बोझ हल्का करो। तुम्हारे दिल में ईमान का ख़ज़ाना है।"

हकीम मसीह की आँख खुल गई। वो इस क़दर रोए थे कि तकिए भीग गए थे। लेकिन उनको अब न अपनी सुर्ख़ आँखों की पर्वा थी न थके-माँदे जिस्म की, उन्होंने 'या रसूल अल्लाह' का नारा मारा, पलंग पर से उचक कर दौड़ते हुए अस्तबल गए और एक घोड़े पर बग़ैर ज़ीन के सवार हो कर ख़ालिदपुर की तरफ़ चल दिये।
रात को हकीम मसीह के जाने की ख़बर सुनकर ख़ालिदपुर की आबादी में ऊधम मच गई। किसी में इतनी हिम्मत बाक़ी नहीं रह गई थी कि हैज़े से बचने की उम्मीद करे और हर शख़्स अपना मातम करने लगा। लेकिन सवेरे जब हकीम मसीह की वापसी की ख़बर मशहूर हुई तो हर एक की जान में जान आ गई, जिसने भी ये ख़बर सुनी अपना दिल मज़बूत करने के लिए उनके मतब में भागा हुआ गया और उसने हकीम मसीह को दवाख़ाने के दरवाज़े पर बैठा हुआ पाया, उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे, शर्मिंदगी से उनकी नज़रें नीची हो गईं, मगर जिस किसी ने चाहा नब्ज़ दिखाई और दवा ली।

उधर सवेरे जब मुसलमान क़ाफ़िले ने कूच की तैयारी की तो मालूम हुआ कि हकीम मसीह ग़ायब हैं। नौकरों में से एक ने कहा कि उसने रात को तीसरे पहर 'या रसूल अल्लाह' का एक नारा सुना था लेकिन इससे ज़्यादा वो और कुछ न बता सका। हकीम मसीह की बीवी को जब ये मालूम हुआ तो फ़ौरन समझ गईं कि वो ख़ालिदपुर भाग गए हैं। वो बहुत रोईं। अपने दोनों बच्चों को भाई के सपुर्द किया और बेवा की ज़िंदगी से बचने के लिए शौहर के साथ मरने के लिए ख़ालिदपुर चलीं।
जब वो अपने घर पहुंचीं तो शाम हो चुकी थी, दर्याफ़्त करने से मालूम हुआ कि हकीम साहब सवेरे से दवाख़ाने के सामने बैठे हैं न पानी पिया है न खाना खाया है। बाल परेशान हैं, आँखें सुर्ख़। लेकिन मरीज़ों का ताँता बंधा है और बराबर नब्ज़ देख रहे हैं और दवाएं दे रहे हैं। उन्होंने नौकर के ज़रिये ख़बर भेजना चाहा मगर नौकर को हकीम साहब के पास पहुंचने में देर लगी और जब वो पहुंच भी गया तो हकीम साहब ने उसे न पहचाना न उसकी बात समझे, रात-भर उन्होंने हकीम साहब का निहायत बेताबी से इंतिज़ार किया, लेकिन जब वो सवेरे तक नहीं आए तो ख़ुद मतब पहुंचीं। वहां अभी से लोग मौजूद थे, लेकिन उन्हें देखकर रास्ता छोड़ दिया और वो हकीम साहब के सामने जा कर खड़ी हो गईं, हकीम मसीह उन्हें आसानी से पहचान न सके लेकिन जब पहचान लिया तो मुस्कुराए, कुछ सोचा और कहा,

"मुहल्ले में कुछ औरतें बीमार पड़ी हैं, मैंने दवा भेज दी है लेकिन उनकी तीमारदारी के लिए कोई नहीं, आप वहां चली जाएं..."
हकीम मसीह की बीवी ने उन पर एक सरसरी नज़र डाली, पिछले दिनों की तकान का नाम-ओ-निशान न था। आँखें अब भी सुर्ख़ थीं, मगर चेहरे से नूर बरस रहा था, कपड़ों पर कुछ मिट्टी लगी रह गई थी जिससे मालूम होता था कि वो रात को ज़मीन पर सोए हैं। ये एक नज़र काफ़ी थी। वो बाहर निकलीं और रास्ता पूछते पूछते जिस मुहल्ले का हकीम मसीह ने नाम बताया था वहां पहुंच गईं।

ख़ालिदपुर में दो महीने हैज़े का दौरा रहा। इसकी बड़ी वजह ये थी कि बीमारों का इलाज किया जाता था लेकिन बीमारी को रोकने की कोई तदबीर न थी। लेकिन हकीम मसीह न होते तो ग़ालिबन सारी बस्ती तबाह हो जाती। उनकी मौजूदगी से वहम और ख़ौफ़ जो अक्सर बीमारी से ज़्यादा मोहलिक साबित होते हैं लोगों के दिलों में जड़ न पकड़ सके। कोई मरीज़ ऐसा नहीं था जिसे वो देख न सके हों या जिसकी हिम्मत उनके अख़लाक़ और हमदर्दी ने दो गुना न की हो। वो दिन-रात मरीज़ों को देखने में और उनके लिए दवाएं तैयार करने में मशग़ूल रहते थे। लेकिन ये भी उन्हें इत्मिनान दिलाने के लिए काफ़ी न था। वो चाहते थे कि मर्दों को नहलाने-धुलाने और जनाज़े को शहर से बाहर पहुंचाने में मदद करें। मगर इस काम के लिए उनकी कभी ज़रूरत नहीं हुई, ये उनकी बीवी ने अपने ज़िम्में ले लिया था, जिसको वो इलावा औरतों की तीमारदारी और यतीम बच्चों की देख-भाल के करती थीं, अपनी अपनी मस्रूफ़ियतों की वजह से उस ज़माने में हकीम मसीह और उनकी बीवी अक्सर एक दूसरे को देख भी न सके। मगर बस्ती वालों को उन दोनों से इस क़दर मुहब्बत हो गई थी कि ग़ैरों के ज़रिये से उन्हें एक दूसरे की ख़बर पहुँचती रहती थी। कभी कभी ऐसा हुआ कि बीमारी और मौत की परेशानियों में दूसरे भी उन्हें भूल गए और उनके ज़मीर ने मुलाक़ात के लिए फ़राइज़ तर्क करने की इजाज़त न दी, मगर उनके दिलों में इस क़दर क़वी और ज़िंदा ईमान था कि मायूसी ख़ुद-ग़र्ज़ी या ख़ौफ़ उनके पास न फटकने पाए और वक़्त और फ़ासिला उनकी रूहों को जुदा न कर सके।
आख़िरकार हैज़े का ज़ोर कम हुआ और अब वो हालत मुम्किन होने लगी जिसे हकीम मसीह मौत की सज़ा से ज़्यादा तकलीफ़दह समझते थे, मरीज़ कम हुए, काम कम हुआ, फ़ुर्सत का वक़्त बढ़ा, मगर अब हकीम मसीह हिंदू आबादी में घुल मिल गए थे। दो दीवार वहम ने उनके और हिंदुओं के दरमियान में खड़ी कर दी थी नीस्त-ओ-नाबूद हो चुकी थी। बग़ैर किसी कोशिश के हकीम मसीह का मकान बस्ती की ज़िंदगी का मर्कज़ बन गया था। एक दरगाह जहां हाजतमंद मदद के लिए आते थे। माहिरीन-ए-फ़न क़द्र-दानी और हिम्मत अफ़्ज़ाई के लिए, मज़्लूम शिकायत के लिए और झगड़ालू इन्साफ़ के लिए, उनकी शोहरत का ढिंडोरा दूर दूर तक पिट चुका था, लोग दूर दूर से उनके पास आते थे, और दिल में इसका अफ़सोस वापस ले जाते थे कि हकीम साहब काफ़ी मशहूर नहीं, जिसने हकीम मसीह का नाम सुना वो उनकी बीवी की शख़्सियत से भी ज़रूर वाक़िफ़ हो जाता था।

ख़ालिदपुर में कोई ऐसा ज़ाती या आम मुआमला न था जिसका हकीम मसीह या उनकी बीवी को इल्म न हो, और न कोई ऐसी तक़रीब थी जिसमें उनकी शिरकत लाज़िमी न समझी जाती हो, लेकिन बावजूद इसके उनकी ज़िंदगी का एक पहलू था जिसका राज़ सिवा उनके और उनके ख़ुदा के किसी पर ज़ाहिर न था, लोग उन्हें मसरूफ़ देखते थे, उन्हें ये नहीं मालूम था कि इन दोनों के दिल कहीं और हैं और वो मुहब्बत और प्यार की नज़रें जो वो औरों पर बरसाते हैं, उसी मुहब्बत का एक धुँदला अक्स है, जिसमें उनकी हस्तियाँ फ़ना हो गई हैं, वो दोनों भी जानते थे कि ये मुहब्बत कोई पुरानी चीज़ नहीं है। ख़ुद ब-ख़ुद नहीं पैदा हुई, और हर हालत में क़ायम नहीं रह सकती, वो ये भी जानते थे कि यही उनकी इन्सानियत का जौहर है, और अगर वो उसकी क़ीमत कम नहीं करना चाहते, तो उन्हें वो आग जलाते रहना चाहिए जिसमें वो पुख़्ता हुई थी, इसलिए जब हकीम मसीह ने देखा कि हैज़ा उन्हें बहुत ज़्यादा मसरूफ़ नहीं रखता तो उन्होंने ख़ालिदपुर के बाशिंदों से एक मस्जिद बनाने की इजाज़त मांगी, वो इस पर बहुत ख़ुशी से राज़ी हो गए, बल्कि मस्जिद अपने ख़र्च से बनवाने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की, लेकिन हकीम मसीह को ये मंज़ूर न हुआ, उन्होंने अपनी बीवी की मदद से थोड़े दिनों में एक छोटी सी कच्ची मस्जिद एक बड़े सायादार दरख़्त के नीचे तैयार कर ली, जिसमें सिर्फ़ ये ख़ूबी थी कि उसे दो सच्चे हक़ परस्तों ने अपने दीन और अपनी मुहब्बत को पुख़्ता रखने के लिए बनाया था।
हर शाम को मग़रिब के वक़्त हकीम मसीह अपनी बीवी को साथ लेकर उस मस्जिद में जाया करते थे, और वहां कभी एक घंटा, कभी दो, और कभी सारी रात गुज़ारते थे। एक मर्तबा उनकी बीवी को आने से ज़रा देर हो गई, वो मग़रिब की नमाज़ पढ़ चुके थे, उनकी बीवी पढ़ रही थीं, हकीम मसीह उनकी तरफ़ मुँह कर के बैठ गए। उनकी बीवी निहायत ख़ुलूस से नमाज़ पढ़ रही थीं, और इससे उनके चेहरे पर ऐसी रौनक आ गई थी कि हकीम मसीह अपनी नज़र न हटा सके, देखते देखते उन्हें याद आया कि उन्होंने अपनी बीवी से न अपने ख़्वाब का ज़िक्र किया है, न उस आहनी जिस्म वाले मुसाफ़िर का जिसने उनको ख़ालिदपुर वापस भेजा। वो ख़ुद उस ख़्वाब के असर से ईसार की मुसीबतें झेल सकते थे, इस बेचारी औरत को ये रुहानी तक़वियत भी नहीं मयस्सर हुई, मगर इस पर भी वो उनसे एक क़दम पीछे नहीं रही, आहनी जिस्म वाले मुसाफ़िर की तरह हकीम मसीह भी दिल ही दिल में अपनी बीवी के क़दमों पर गिरे, और उससे इल्तिजा की कि अपनी मुहब्बत से उनकी हिम्मत दुगना करे, उनके फ़राइज़ याद दिलाती रहे, और उन्हें अदा करने की ताक़त बख़्शे।

जब उनकी बीवी ने सलाम फेरा तो उन्होंने देखा कि उनकी आँखों में आँसू भरे हैं और वो टकटकी लगाए उनकी तरफ़ देख रहे हैं, उन्होंने वजह पूछी, हकीम मसीह कुछ देर तक जवाब न दे सके, फिर अपने ख़्वाब का सारा क़िस्सा सुनाया और आख़िर में कहा,
"तुमको शायद याद हो, मैंने एक मर्तबा इसी वक़्त शाम को एक ऐसे कीमियागर की आरज़ू की थी, जो इस मुल्क को मेरा वतन बना दे, इस क़ौम में मुझे खपा दे, देखो उस कीमियागर ने हम दोनों को क्या से क्या बना दिया।"

बातें करते करते हकीम मसीह अपनी बीवी के बिल्कुल पास पहुंच गए थे, उनकी बीवी ने उनका हाथ अपने हाथ में दबा कर चूमा, उनके मुँह पर एक दुआ पढ़ कर फूंकी और फिर दोनों अपने कीमियागर के तसव्वुर में मह्व हो गए।


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