उसका पति

लोग कहते थे कि नत्थू का सर इसलिए गंजा हुआ है कि वो हर वक़्त सोचता रहता है। इस बयान में काफ़ी सदाक़त है क्योंकि सोचते वक़्त नत्थू सर खुजलाया करता है।
उसके बाल चूँकि बहुत खुरदरे और ख़ुश्क हैं और तेल न मलने के बाइस बहुत ख़स्ता हो गए हैं, इसलिए बार बार खुजलाने से उस के सर का दरमियानी हिस्सा बालों से बिल्कुल बेनियाज़ हो गया है। अगर उसका सर हर रोज़ धोया जाता तो ये हिस्सा ज़रूर चमकता। मगर मैल की ज़्यादती के बाइस उसकी हालत बिल्कुल उस तवे की सी हो गई है जिस पर हर रोज़ रोटियां पकाई जाएं मगर उसे साफ़ न किया जाये।

नत्थू भट्टे पर ईंटें बनाने का काम करता था। यही वजह है कि वो अक्सर अपने ख़यालात को कच्ची ईंटें समझता था और किसी पर फ़ौरन ही ज़ाहिर नहीं किया करता था। उसका ये उसूल था कि ख़याल को अच्छी तरह पका कर बाहर निकालना चाहिए ताकि जिस इमारत में भी वो इस्तेमाल हो उसका एक मज़बूत हिस्सा बन जाये।
गांव वाले उसके ख़यालात की क़द्र करते थे और मुश्किल बात में उससे मशवरा लिया करते थे, लेकिन इस क़दर हौसला-अफ़ज़ाई से नत्थू अपने आपको अहम नहीं समझने लगा था। जिस तरह गांव में शंभू का काम हर वक़्त लड़ते-झगड़ते रहना था, उसी तरह उसका काम हर वक़्त दूसरों को मशवरा देते रहना था।

वो समझता था कि हर शख़्स सिर्फ़ एक काम लिए पैदा होता है। चुनांचे शंभू के बारे में चौपाल पर जब कभी ज़िक्र छिड़ता तो वो हमेशा यही कहा करता था, “खाद कितनी बदबूदार चीज़ों से बनती है पर खेती-बाड़ी उसके बिना हो ही नहीं सकती। शंभू के हर सांस में गालियों की बास आती है, ठीक है, पर गांव की चहल-पहल और रौनक़ भी उसी के दम से क़ायम है... अगर वो न हो तो लोगों को कैसे मालूम हो कि गालियां क्या होती हैं। अच्छे बोल जानने के साथ-साथ बुरे बोल भी मालूम होने चाहिऐं।”
नत्थू भट्टे से वापस आ रहा था और हस्ब-ए-मामूल सर खुजलाता गांव के किसी मसले पर ग़ौर-ओ- फ़िक्र कर रहा था। लालटेन के खंबे के पास पहुंच कर उसने अपना हाथ सर से अलाहिदा किया जिस की उंगलियों से वो बालों का एक मैल भरा गुच्छा मरोड़ रहा था। वो अपने झोंपड़े के ताज़ा लिपे हुए चबूतरे की तरफ़ बढ़ने ही वाला था कि सामने से उसे किसी ने आवाज़ दी।

नत्थू पलटा और अपने सामने वाले झोंपड़े की तरफ़ बढ़ा जहां माधव उसे हाथ के इशारे से बुला रहा था।
झोंपड़े के छज्जे के नीचे चबूतरे पर माधव, उसका लंगड़ा भाई और चौधरी बैठे थे। उनके अंदाज़-ए-नशिस्त से ऐसा मालूम होता था कि वो कोई निहायत ही अहम बात सोच रहे हैं। सबके चेहरे कच्ची ईंटों के मानिंद पीले थे। माधव तो बहुत दिनों का बीमार दिखाई देता था। एक कोने में ताक़चे के नीचे रूपा की माँ बैठी हुई थी। ग़लीज़ कपड़ों में वो मैले कपड़ों की एक गठड़ी दिखाई दे रही थी।

नत्थू ने दूर ही से मुआमले की नज़ाकत महसूस की और क़दम तेज़ करके उनके पास पहुंच गया।
माधव ने इशारे से उसे अपने पास बैठने को कहा। नत्थू बैठ गया और उसका एक हाथ ग़ैर इरादी तौर पर अपने बालों के उस गुच्छे की तरफ़ बढ़ गया जिसकी जड़ें काफ़ी हिल चुकी थीं। अब वो उन लोगों की बातें सुनने के लिए बिल्कुल तैयार था।

माधव उसको अपने पास बिठा कर ख़ामोश हो गया मगर उसके कपकपाते हुए होंट साफ़ ज़ाहिर कर रहे थे कि वो कुछ कहना चाहता है, लेकिन फ़ौरन नहीं कह सकता। माधव का लंगड़ा भाई भी ख़ामोश था और बार बार अपनी कटी हुई टांग के आख़िरी टुंड-मुंड हिस्से पर जो गोश्त का एक बदशकल लोथड़ा सा बना हुआ था, हाथ फेर रहा था।
रूपा की माँ ताक़चे में रखी हुई मूर्ती के मानिंद गूंगी बनी हुई थी और चौधरी अपनी मूंछों को ताव देना भूल कर ज़मीन पर लकीरें बना रहा था।

नत्थू ने ख़ुद ही बात शुरू की, “तो...”
माधव शुरू हो गया, “नत्थू बात ये है कि... बात ये है कि... अब मैं तुम्हें क्या बताऊं कि बात क्या है। मैं कुछ कहने के क़ाबिल न रहा... चौधरी! तुम ही जी कड़ा करके सारा क़िस्सा सुना दो।”

नत्थू ने गर्दन उठा कर चौधरी की तरफ़ देखा मगर वो ज़मीन पर लकीरें बनाता रहा और कुछ न बोला।
दोपहर की उदास फ़िज़ा बिल्कुल ख़ामोश थी। अलबत्ता कभी कभी चीलों की चीख़ें सुनाई देती थीं। और झोंपड़े के दाहिने हाथ घूरे पर जो मुर्ग़ कूड़े को कुरेद रहा था, कभी कभी वो भी किसी मुर्ग़ी को देख कर बोल उठता था।

चंद लम्हात तक झोंपड़े के छज्जे के नीचे सब ख़ामोश रहे और नत्थू मुआमले की नज़ाकत अच्छी तरह समझ गया।
रूपा की माँ ने रोनी आवाज़ में कहा, “मेरे फूटे भाग! उसको तो जो कुछ उजड़ना था उजड़ी, मुझ अभागन की सारी दुनिया बर्बाद हो गई... क्या अब कुछ नहीं हो सकता?”

माधव ने कंधे हिला दिए और नत्थू से मुख़ातिब हो कर कहा, “क्या हो सकता है? भई मैं ये कलंक का टीका अपने माथे पर लगाना नहीं चाहता। मैंने जब अपने लालू की बात रूपा से पक्की की थी तो मुझे ये क़िस्सा मालूम नहीं था... अब तुम लोग ख़ुद ही विचार करो कि सब कुछ जानते हुए मैं अपने बेटे का ब्याह रूपा से कैसे कर सकता हूँ?”
ये सुन कर नत्थू की गर्दन उठी। वो शायद ये पूछना चाहता था कि लालू का ब्याह रूपा से क्यों नहीं हो सकता? अभी कल तक सब ठीक ठाक था। अब इतनी जल्दी क्या हो गया कि रूपा लालू के क़ाबिल न रही। वो रूपा और लालू दोनों को अच्छी जानता था और सच पूछो तो गांव में हर शख़्स एक दूसरे को अच्छी तरह जानता है। वो कौन सी बात है जो उसे उन दोनों के बारे में मालूम न थी।

रूपा उसकी आँखों के सामने फूली-फली, बढ़ी और जवान हुई। अभी कल ही की बात है कि उसने उस के गाल पर एक ज़ोर का धप्पा भी मारा था और उसको इतनी मजाल न हुई थी कि चूँ भी करे। हालाँकि गांव के सब छोकरे-छोकरियां गुस्ताख़ थे और बड़ों का बिल्कुल अदब न करते थे। रूपा तो बड़ी भोली-भाली लड़की थी। बातें भी बहुत कम करती थी और उसके चेहरे पर भी कोई ऐसी अलामत न थी जिससे ये पता चलता कि वो कोई शरारत भी कर सकती है। फिर आज उसकी बाबत ये बातें क्यों हो रही थीं।
नत्थू को गांव के हर झोंपड़े और उसके अंदर रहने वालों का हाल मालूम था। मिसाल के तौर पर उसे मालूम था कि चौधरी की गाय ने सुबह-सवेरे एक बछड़ा दिया है और माधव के लँगड़े भाई की बैसाखी टूट गई है। गामा हलवाई अपनी मूंछों के बाल चुनवा रहा था कि उसके हाथ से आईना गिर कर टूट गया और एक सेर दूध के पैसे नाई को बतौर क़ीमत देना पड़े। उसे ये भी मालूम था कि दो उपलों पर परसराम और गंगू की चख़-पख़ होते होते रह गई थी और सालिगराम ने अपने बच्चों को पापड़ भून कर खिलाए थे। हालाँकि वैद जी ने मना किया था कि उनको मिर्चों वाली कोई शय न दी जाये।

नत्थू हैरान था कि ऐसी कौन सी बात है जो उसे मालूम नहीं। ये तमाम ख़यालात उसके दिमाग़ में एक दम आए और वो माधव काका से अपनी हैरत दूर करने की ख़ातिर कोई सवाल करने ही वाला था कि चौधरी ने ज़मीन पर तोते की शक्ल मुकम्मल करते हुए कहा, “कुछ समझ में नहीं आता... थोड़े ही दिनों में वो बच्चे की माँ बन जाएगी।”
तो ये बात थी। नत्थू के दिल पर एक घूंसा सा लगा। उसे ऐसा महसूस हुआ कि दोपहर की धूप में उड़ने वाली सारी चीलें उसके दिमाग़ में घुस कर चीख़ने लगी हैं। उसने अपने बाल ज़्यादा तेज़ी से मरोड़ने शुरू कर दिए।

माधव काका, नत्थू की तरफ़ झुका और बड़े दुख भरे लहजे में उससे कहने लगा, “बेटा तुम्हें ये बात तो मालूम है कि मैंने अपने बेटे की बात रूपा से पक्की की थी। अब मैं तुम से क्या कहूं... ज़रा कान इधर लाओ।”
उसने हौले से नत्थू के कान में कुछ कहा और फिर उसी लहजे में कहने लगा, “कितनी शर्म की बात है। मैं तो कहीं का न रहा। ये मेरा बुढ़ापा और ये जान लेवा दुख, और तो और लालू को बताओ कितना दुख हुआ होगा, तुम्हीं इंसाफ़ करो,क्या लालू की शादी अब इस से हो सकती है। लालू की शादी तो एक तरफ़ रही, क्या ऐसी लड़की हमारे गांव में रह सकती है... क्या इसके लिए हमारे यहां कोई जगह है?”

नत्थू ने सारे गांव पर एक ताइराना नज़र डाली और उसे ऐसी जगह नज़र न आई जहां रूपा अपने बाप समेत रह सकती थी। अलबत्ता उसका एक झोंपड़ा था जिसमें वो चाहे किसी को भी रखता। पिछले बरस उसने कोढ़ी को उसमें पनाह दी थी। हालाँकि सारा गांव उसे रोक रहा था और उसे डरा रहा था कि देखो ये बीमारी बड़ी छूत वाली होती है ऐसी न हो कि तुम्हें चिमट जाये लेकिन वो अपनी मर्ज़ी का मालिक था। उसने वही कुछ किया जो उसके मन ने अच्छा समझा।
कोढ़ी उसके घर में पूरे छः महीने रह कर मर गई लेकिन उसे बीमारी-वीमारी बिल्कुल न लगी। अगर गांव में रूपा के लिए कोई जगह न रहे तो क्या इसका ये मतलब था कि उसे मारी मारी फिरने दिया जाये। हरगिज़ नहीं, नत्थू इस बात का क़ाइल नहीं था कि दुखी पर और दुख लाद दिए जाएं। उसके झोंपड़े में हर वक़्त उसके लिए जगह थी।

वो छः महीने तक एक कोढ़ी की तीमारदारी कर सकता था और रूपा कोढ़ी तो नहीं थी... कोढ़ी तो नहीं थी, ये सोचते हुए नत्थू का दिमाग़ एक गहरी बात सोचने लगा... रूपा कोढ़ी नहीं थी, इसलिए वो हमदर्दी की ज़्यादा मुस्तहिक़ भी नहीं थी। उसे क्या रोग था? कुछ भी नहीं जैसा कि ये लोग कह रहे थे, वो थोड़े ही दिनों में बच्चे की माँ बनने वाली थी, पर ये भी कोई रोग है। और क्या माँ बनना कोई पाप है?
हर लड़की औरत बनना चाहती है और हर औरत माँ। उसकी अपनी स्त्री माँ बनने के लिए तड़प रही थी और वो ख़ुद ये चाहता था कि वो जल्दी माँ बन जाये। इस लिहाज़ से भी रूपा का माँ बनना कोई ऐसा जुर्म नहीं था जिस पर उसे कोई सज़ा दी जाये या फिर उसे रहम का मुस्तहिक़ क़रार दिया जाये।

वो एक के बजाय दो बच्चे जने। इससे किसी का क्या बिगड़ता था। वो औरत ही तो थी। मंदिर में गढ़ी हुई देवी तो थी नहीं और फिर ये लोग ख़्वाह-मख़्वाह क्यों अपनी जान हलकान कर रहे थे। माधव काका के लड़के से उसकी शादी होती तो भी कभी न कभी बच्चा ज़रूर पैदा होता। अब कौन सी आफ़त आ गई थी। ये बच्चा जो अब उसके पेट में था, कहीं से उड़ कर तो नहीं आ गया। शादी-ब्याह ज़रूर हुआ होगा।
ये लोग बाहर बैठे आप ही फ़ैसला कर रहे हैं और जिसकी बाबत फ़ैसला हो रहा है, उससे कुछ पूछते ही नहीं। गोया वो बच्चा नहीं। बल्कि ये ख़ुद जन रहे हैं। अजीब बात थी। और फिर उनको बच्चे की क्या फ़िक्र पड़ गई थी। बच्चे की फ़िक्र या तो माँ करती है या उसका बाप... बाप? और मज़ा देखिए कि कोई बच्चे के बाप की बात ही नहीं करता था।

ये सोचते हुए नत्थू के दिमाग़ में एक बात आई और उसने माधव काका से कहा, “काका,जो कुछ तुमने कहा, उससे मुझे बड़ा दुख हुआ, पर तुमने ये कैसे कह दिया कि रूपा के लिए यहां कोई जगह नहीं। हम सब अपने अपने झोंपड़ों को ताले लगा दें तो भी उसके लिए एक दरवाज़ा खुला रहता है।”
चौधरी ने ज़मीन पर तोते की आँख बनाते हुए कहा, “तौबा का!”

नत्थू ने जवाब दिया, “उनके लिए जो पापी हों... रूपा ने कोई पाप नहीं किया, वो निर्दोष है!”
चौधरी ने हैरत से माधव काका की तरफ़ देखा और कहा, “इसने पूरी बात नहीं सुनी।”

माधव का लंगड़ा भाई अपनी कटी हुई टांग पर हाथ फेरता रहा।
नत्थू रूपा की माँ से मुख़ातिब हुआ, “अभी सुन लेता हूँ... रूपा कहाँ है?”

रूपा की माँ ने अपनी खुरदरी उंगलियों से आँसू पोंछे और कहा, “अंदर बैठी अपने नसीबों को रो रही है।”
ये सुन कर नत्थू ने अपना सर एक बार ज़ोर से खुजलाया और उठ कर कमरे के अन्दर चला गया।

रूपा अंधेरी कोठड़ी के एक कोने में सर झुकाए बैठी थी। उसके बाल बिखरे हुए थे। मैले कुचैले कपड़ों में अंधेरे के अंदर वो गीली मिट्टी का ढेर सा दिखाई दे रही थी। जो बातें बाहर हो रही थीं उनका एक एक लफ़्ज़ उसने सुना था। हालाँकि उसके कान उसके अपने दिल की बातें सुनने में लगे हुए थे जो किसी तरह ख़त्म ही न होती थीं। नत्थू अंदर आने के लिए उठा तो वो दौड़ कर सामने की खटिया पर जा पड़ी और गुदड़ी में अपना सर मुँह छुपा लिया।
नत्थू ने जब देखा कि रूपा छुप गई है तो उसे बड़ी हैरत हुई। उसने पूछा, “अरे मुझसे क्यों छुपती हो?”

रूपा रोने लगी और अपने आपको कपड़े में और लपेट लिया। वो बग़ैर आवाज़ के रो रही थी। मगर नत्थू को ऐसा महसूस हो रहा था कि रूपा के आँसू उसके तपते हुए दिल पर गिर रहे हैं। उसने गुदड़ी के उस हिस्सा पर हाथ फेरा जिसके नीचे रूपा का सर था और कहा, “तुम मुझसे क्यों छुपती हो?”
रूपा ने सिसकियों में जवाब दिया, “रूपा नहीं छुपती नत्थू! वो अपने पाप को छुपा रही है।”

नत्थू उसके पास बैठ गया और कहने लगा, “कैसा पाप... तुमने कोई पाप नहीं किया और अगर किया भी हो तो क्या उसे छुपाना चाहिए। ये तो ख़ुद एक पाप है... मैं तुमसे सिर्फ़ एक बात पूछने आया हूँ। मुझे ये बता दो कि किसने तुम्हारी सदा हंसती आँखों में ये आँसू भर दिए हैं। किसने इस बाली उम्र में तुम्हें पाप और पुन के झगड़े में फंसा दिया है?”
“मैं क्या कहूं?” रूपा ये कह कर गुदड़ी में और सिमट गई। नत्थू बोलता था और रूपा को ऐसा महसूस होता था कि कोई उसे इकट्ठा कर रहा है, उसे सुकेड़ रहा है।

नत्थू ने बड़ी मुश्किल से रूपा के मुँह से कपड़ा हटाया और उसको उठा कर बिठा दिया। रूपा ने दोनों हाथों में अपने मुँह को छुपा लिया और ज़ोर ज़ोर से रोना शुरू कर दिया। इससे नत्थू को बहुत दुख हुआ। एक तो पहले उसे ये चीज़ सता रही थी कि सारी बात उसके ज़ेहन में मुकम्मल तौर पर नहीं आती और दूसरे रूपा उसके सामने रो रही थी। अगर उसे सारी बात मालूम होती तो वो उसके ये आँसू रोकने की कोशिश कर सकता था जो मैली गुदड़ी में जज़्ब हो रहे थे। मगर उसको सिवाए इस के और कुछ मालूम नहीं था कि रूपा थोड़े ही दिनों में बच्चे की माँ बनने वाली है।
उसने फिर उससे कहा, “रूपा तुम मुझे बताती क्यों नहीं हो... नत्थू भय्या तुमसे पूछ रहा है और वो कोई ग़ैर थोड़ी है, जो तुम यूं अपने मन को छुपा रही हो... तुम रोती क्यों हो। ग़लती हो ही जाया करती है? लालू की किसी और से शादी हो जाएगी और तुम अपनी जगह ख़ुश रहोगी... तुम्हें दुनिया का डर है तो मैं कहूंगा कि तुम बिल्कुल बेवक़ूफ़ हो, लोगों के जो जी में आए कहें, तुम्हें इससे क्या... रोने धोने से कुछ नहीं होगा रूपा, आँसू भरी आँखों से न तुम मुझे ही ठीक तौर से देख सकती हो और न अपने आप को, रोना बंद करो और मुझे सारी बात बताओ।”

रूपा की समझ में न आता था कि वो उससे क्या कहे, वो दिल में सोचती थी कि अब ऐसी कौन सी बात रह गई है जो दुनिया को मालूम नहीं। यही सोचते हुए उसने नत्थू से कहा, “नत्थू भय्या, मुझसे ज़्यादा तो दूसरों को मालूम है, मैं तो सिर्फ़ इतना जानती हूँ कि जो कुछ मैं सोचती थी एक सपना था। यूं तो हर चीज़ सपना होती थी पर ये सपना बड़ा ही अजीब है।
“कैसे शुरू हुआ, क्योंकर ख़त्म हुआ। इसका कुछ पता ही नहीं चलता, बस ऐसा मालूम होता है कि वो तमाम दिन जो मैं कभी ख़ुशी से गुज़ारती थी, आँखों में आँसू बनना शुरू हो गए हैं। मैं घड़ा लेकर उछलती कूदती, गाती कुवें पर पानी भरने गई। पानी भर कर जब वापस आने लगी तो ठोकर लगी और घड़ा चकनाचूर हो गया। मुझे बड़ा दुख हुआ। मैंने चाहा कि उस टूटे हुए घड़े के टुकड़े उठा कर झोली में भर लूं पर लोगों ने शोर मचाना शुरू कर दिया, नुक़्सान मेरा हुआ।

चाहिए तो ये था कि वो मुझसे हमदर्दी करते, पर उन्होंने उल्टा मुझे ही डाँटना शुरू कर दिया। गोया घड़ा उनका था और तोड़ने वाली मैं थी और इस रोड़े का कोई क़ुसूर ही न था जो रास्ते में पड़ा था और जिससे दूसरे भी ठोकर खा सकते थे। तुम मुझसे कुछ न पूछो मुझे कुछ याद नहीं रहा।”
नत्थू की उंगलियां ज़्यादा तेज़ी से बालों का गुच्छा मरोड़ने लगीं। उसने बड़े इज़्तिराब से कहा, “मैं सिर्फ़ पूछता हूँ कि वो है कौन?”

“कौन?”
“वही... वही... ” रूपा इससे आगे कुछ न कह सकी।

रूपा के सीने से एक बेइख़्तियार आह निकल गई, “वो पहले जितना नज़दीक था अब उतना ही दूर है!”
“मैं उसका नाम पूछता हूँ और जानती हो मैं तुमसे उसका नाम क्यों पूछता हूँ? इसलिए कि वो तुम्हारा पति है और तुम उसकी पत्नी हो। तुम उसकी हो और वो तुम्हारा... ये... ये...”

नत्थू इसके आगे कुछ कहने ही वाला था कि रूपा ने दीवानावार उसके मुँह पर हाथ रख दिया और फटे हुए लहजे में कहा, “हौले-हौले बोलो नत्थू। हौले-हौले बोलो, कहीं वो... जो मेरे हृदय में नया जीव है, न सुन ले कि उसकी माँ पापिन है... नत्थू इसी डर के मारे तो मैं ज़्यादा सोचती नहीं, ज़्यादा ग़म नहीं करती कि इसको कुछ मालूम न हो... पर बैठे बैठे कभी मेरे मन में आता है कि डूब मरूं, अपना गला घूँट लूं, या फिर ज़हर खा के मर जाऊं...”
नत्थू ने उठ कर टहलना शुरू कर दिया। वो सोच रहा था। एक दो सैकेण्ड ग़ौर करने के बाद उसने कहा, “कभी नहीं, मैं तुम्हें कभी मरने न दूंगा, तुम क्यों मरो। यूं तो मौत से छुटकारा नहीं, सबको एक दिन मरना है पर इसीलिए तो जीना भी ज़रूरी है... मैं कुछ पढ़ा नहीं, मैं कोई पण्डित नहीं, पर जो कुछ मैंने कहा है ठीक है, तुम मुझे उसका नाम बता दो। मैं तुम्हें उसके पास ले चलूंगा और उसे मजबूर करूंगा कि वो तुम्हारे साथ ब्याह कर ले और तुम्हें अपने पास रखे... वही तुम्हारा पति है!”

नत्थू फिर रूपा के पास बैठ गया और कहने लगा, “लो मेरे कान में कह दो... वो कौन है? रूपा क्या तुम्हें मुझ पर एतबार नहीं, क्या तुम्हें यक़ीन नहीं आता कि मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकूँगा।”
रूपा ने जवाब दिया, “तुम मेरे लिए सब कुछ कर सकते हो नत्थू, पर जिस आदमी के पास तुम मुझे ले जाना चाहते हो, क्या वो भी कुछ करेगा? वो मुझे भूल भी चुका होगा।”

नत्थू ने कहा, “तुम्हें देखते ही उसे सब कुछ याद आ जाएगा... बाक़ी चीज़ों की याद उसे मैं दिला दूंगा... तुम मुझे उसका नाम तो बताओ। ये ठीक है कि स्त्री अपने पति का नाम नहीं लेती पर ऐसे मौक़ा पर तुम्हें कोई लाज न आनी चाहिए।”
रूपा ख़ामोश रही, इस पर नत्थू और ज़्यादा मुज़्तरिब हो गया, “मैं तुम्हें एक सीधी सादी बात समझाता हूँ और तुम समझती ही नहीं हो पगली, जो तुम्हारे बच्चे का बाप है वही तुम्हारा पति है, अब मैं तुम्हें कैसे समझाऊं? तुम तो बस आँसू बहाए जाती हो, कुछ सुनती ही नहीं हो, मैं पूछता हूँ, उसका नाम बताने में हर्ज ही क्या है... लो, तुमने और रोना शुरू कर दिया। अच्छा भई मैं ज़्यादा बातें नहीं करता। तुम ये बता दो कि वो है कौन... तुम मान लो। मैं उसका कान पकड़ कर सीधे रास्ते पर ले आऊँगा।”

रूपा ने सिसकियों में कहा, “तुम बार बार पति न कहो नत्थू, मेरी जवानी मेरी आशा, मेरी दुनिया, कभी की विध्वा हो चुकी है। तुम मेरी मांग में सींदूर भरना चाहते हो और मैं चाहती हूँ कि सारे बाल ही नोच डालूं... नत्थू अब कुछ नहीं हो सकेगा। मेरी झोली के बेर ज़मीन पर गिर कर... सबके सब मोरी में जा पड़े हैं। अब उन्हें बाहर निकालने से क्या फ़ायदा? उसका नाम पूछ कर तुम क्या करोगे, लोग तो मेरा नाम भूल जाना चाहते हैं।”
नत्थू तंग आ गया और तेज़ लहजे में कहने लगा, “तुम... तुम बेवक़ूफ़ हो, मैं तुम से कुछ नहीं पूछूंगा।”

वो उठ कर जाने लगा तो रूपा ने हाथ के इशारे से उसे रोका। ऐसा करते हुए उसका रंग ज़र्द पड़ गया।
नत्थू ने उसकी गीली आँखों की तरफ़ देखा, “बोलो?”

रूपा बोली, “नत्थू भय्या, मुझे मारो, ख़ूब पीटो। शायद इस तरह मैं उसका नाम बता दूं। तुम्हें याद होगा, एक बार मैंने बचपन में मंदिर के एक पेड़ से कच्चे आम तोड़े थे और तुमने एक ही चांटा मार कर मुझ से सच्ची बात कहलवाई थी... आओ मुझे मारो, ये चोर जिसे मैंने अपने मन में पनाह दे रखी है बग़ैर मार के बाहर नहीं निकलेगा।”
नत्थू ख़ामोश रहा। एक लहज़े के लिए उसने कुछ सोचा, फिर एका एकी उसने रूपा के पीले गाल पर इस ज़ोर से थप्पड़ मारा कि छत के चंद सूखे और गर्द से अटे तिनके धमक के मारे नीचे गिर पड़े। नत्थू की सख़्त उंगलियों ने रूपा के गाल पर कई नहरें खोद दीं।

नत्थू ने गरज कर पूछा, “बताओ वो कौन है?”
झोंपड़े के बाहर माधव के लँगड़े भाई की आधी टांग काँपी। चौधरी जिस तिनके से ज़मीन पर एक और तोते की शक्ल बना रहा था, हाथ काँपने के बाइस दुहरा हो गया। माधव काका ने कुलंग की तरह अपनी गर्दन ऊंची कर के झोंपड़े के अंदर देखा। अंदर से नत्थू की ख़शम-आलूद आवाज़ आ रही थी। मगर ये पता नहीं चलता था कि वो क्या कह रहा है।

आँखों ही आँखों में माधव काका, चौधरी और लँगड़े केशव ने आपस में कई बातें कीं। आख़िर में माधव काका का भाई बैसाखी टेक कर उठा। वो झोंपड़े में जाने ही वाला था कि नत्थू बाहर निकला। केशव एक तरफ़ हट गया। नत्थू ने पलट कर अपने पीछे देखा और कहा कि “आओ रूपा” फिर उसने रूपा की माँ से कहा, “माँ तुम बिल्कुल चिंता न करो, सब ठीक हो जाएगा। हम शाम तक लौट आयेंगे।”
किसी ने नत्थू से ये न पूछा कि वो रूपा को लेकर किधर जा रहा है। माधव काका कुछ पूछने ही वाला था कि नत्थू और रूपा दोनों चबूतरे पर से उतर कर मोरी के उस पार जा चुके थे। चुनांचे वो अपनी मूंछ के सफ़ेद बाल नोचने में मसरूफ़ हो गया और चौधरी कुबड़े तिनके को सीधा करन शुरू कर दिया।

भट्टे के मालिक लाला गणेश दास का लड़का सतीश जिसे भट्टे के मज़दूर छोटे लाला जी कहा करते थे, अपने कमरे में अकेला चाय पी रहा था। पास ही तिपाई पर एक खुली हुई किताब रखी थी जिसे ग़ालिबन वो पढ़ रहा था। किताब की जिल्द की तरह उसका चेहरा भी जज़्बात से ख़ाली था। ऐसा मालूम होता था कि उसने अपने चेहरे पर ग़लाफ़ चढ़ा रखा है। वो हर रोज़ अपने अंदर एक नया सतीश पाता था। वो जाड़े और गर्मियों के दरमियानी मौसम की तरह मुतग़य्यर था। वो गर्म और सर्द लहरों का एक मजमूआ था। दूसरे दिमाग़ से सोचते थे लेकिन वो हाथों और पैरों से सोचता था। जहां हर शय खेल नज़र आती है। यही वजह है कि अपनी ज़िंदगी को गेंद की मानिंद उछाल रहा था। वो समझता था कि उछल कूद ही ज़िंदगी का असल मक़सद है, उसको मसलने में बहुत ज़्यादा मज़ा आता है। हर शय को वो मसल कर देखता था।
औरतों के मुतअल्लिक़ उसका नज़रिया ये था कि मर्द ख़्वाह कितना ही बूढ़ा हो जाये मगर उसको औरत जवान मिलनी चाहिए। औरत में जवानी को वो उतना ही ज़रूरी ख़याल करता था जितना अपने टेनिस खेलने वाले रैकट में बने हुए जाल के अंदर तनाव को। दोस्तों को कहा करता था, “ज़िंदगी के साज़ का हर तार हर वक़्त तना होना चाहिए ताकि ज़रा सी जुंबिश पर भी वो लरज़ना शुरू कर दे।”

ये लरज़िश, ये कपकपाहट जिससे सतीश को इस क़दर प्यार था दरअसल उसके गंदे ख़ून के खौलाओ का नतीजा थी। जिन्सी ख़्वाहिशात उसके अंदर इस क़दर ज़्यादा हो गई थीं कि जवान हैवानों को देख कर भी उसे लज़्ज़त महसूस होती थी। वो जब अपनी घोड़ी के जवान बच्चे के कपकपाते हुए बदन को देखता था तो उसे नाक़ाबिल-ए-बयान मसर्रत हासिल होती थी। उसको देख कर कई बार उसके दिल में ये ख़्वाहिश पैदा हुई थी कि वो अपना बदन इसके तर-ओ-ताज़ा बदन के साथ घिसे।
सतीश चाय पी रहा था और दिल ही दिल में चायदानी की तारीफ़ कर रहा था जो बेदाग़ सफ़ेद चीनी की बनी हुई थी। सतीश को दाग़ पसंद नहीं थे। वो हर शय में हमवारी पसंद करता था। साफ़ बदन औरतों को देख कर वो अक्सर कहा करता था, “मेरी निगाहें उस औरत पर कई घंटे तैरती रहीं... वो किस क़दर हमवार थी। ऐसा मालूम होता था कि शफ़्फ़ाफ़ पानी की छोटी सी झील है।”

ये कमरा जिसमें उस वक़्त सतीश बैठा हुआ था ख़ासतौर पर उसके लिए बनवाया गया था। कमरे के सामने टेनिस कोर्ट था। यहां वो अपने दोस्तों के साथ हर रोज़ शाम को टेनिस खेलता था। आज उस ने अपने दोस्तों से कह दिया था कि वो टेनिस खेलने नहीं आएगा क्योंकि उसे आज एक दिलचस्प खेल खेलना था। भंगी की नौजवान लड़की जिसके मुतअल्लिक़ उसने एक रोज़ अपने दोस्त से ये कहा था, “तुम उसे देखो... सच कहता हूँ, तुम्हारी निगाहें उसके चेहरे पर से फिसल फिसल जाएंगी। मेरी निगाहें उसको देखने से पहले, उसके खुरदरे बालों को थाम लेती हैं ताकि फिसल न जाएं...” आज एक मुद्दत के बाद टेनिस कोर्ट में इससे खु़फ़िया मुलाक़ात करने के लिए आ रही थी।
वो चाय पी रहा था और उसको ऐसा मालूम होता था कि चाय में उस जवान लड़की के साँवले रंग का अक्स पड़ रहा था।

उसके आने का वक़्त हो गया था। बाहर सूखे पत्ते खड़के तो सतीश ने प्याली में से चाय का आख़िरी घूँट पिया और उसकी आमद का इंतिज़ार करने लगा!
एक लंबा सा साया टेनिस कोर्ट के झाड़ू दिए हुए सीने पर मुतहर्रिक हुआ और लड़की की बजाय नत्थू नुमूदार हुआ।

सतीश ने ग़ौर से उसकी तरफ़ देखा कि आने वाला भट्टे का एक मज़दूर है। नत्थू अपने बालों का एक गुच्छा उंगलियों से मरोड़ रहा था और टेनिस कोर्ट की तरफ़ बढ़ा रहा था। सतीश की कुर्सी बरामदे में बिछी थी। पास पहुंच कर नत्थू खड़ा हो गया और सतीश की तरफ़ यूं देखने लगा गोया छोटे लाला जी को उसकी आमद की ग़रज़-ओ-ग़ायत अच्छी तरह मालूम है।
सतीश ने पूछा, “ क्या है?”

नत्थू ख़ामोशी से बरामदे की सीढ़ियों पर बैठ गया और कहने लगा, “छोटे लाला जी! मैं उसे लेकर आया हूँ। अब आप उसे अपने पास रख लीजिए, गांव वाले उसे बहुत तंग कर रहे हैं।”
सतीश हैरान हो गया। उसकी समझ में नहीं आया कि नत्थू क्या कह रहा है। उसने पूछा “किसे? किसे तंग कर रहे हैं।”

नत्थू ने जवाब दिया, “आप आप... रूपा को... आपकी पत्नी को।”
“मेरी पत्नी?” सतीश चकरा गया। “मेरी पत्नी... तेरा दिमाग़ तो नहीं बहक गया? ये क्या बक रहा है?”

ये कहते ही उसके अंदर... बहुत अंदर रूपा का ख़याल पैदा हुआ और उसे याद आया कि पिछले सावन में वो एक मोटी मोटी आँखों और गदराए हुए जिस्म वाली एक लड़की से कुछ दिनों खेला था। वो दूध लेकर शहर में जाया करती थी। एक बार उसने दूध की बूंदें उसके उभरते हुए सीने पर टपकती देखी थीं और... हाँ, हाँ ये रूपा वही लड़की थी जिसके बारे में उसने एक बार ये ख़याल किया था कि वो दूध से ज़्यादा मुलायम है। उसको हैरत भी होती थी कि ये ईंटें बनाने वाले ऐसी नर्म-ओ-नाज़ुक लड़कियां कैसे पैदा कर लेते हैं।
वो भंगी की लड़की को भूल सकता था। सुशीला को फ़रामोश कर सकता था, जो हर रोज़ उसके साथ टेनिस खेलती थी। वो हस्पताल की नर्स को भूल सकता था जिसके सफ़ेद कपड़ों का वो मोअतरिफ़ था। वो इस... लेकिन रूपा को नहीं भूल सकता था। उसे अच्छी तरह याद है कि दूसरी या तीसरी मुलाक़ात पर जब कि रूपा ने अपना आप उसके हवाले कर दिया था तो उसकी एक बात पर उसे बहुत हंसी आई थी।

रूपा ने उससे कहा था, “छोटे लाला जी! कल सुंदरी चमारिन कह रही थी, जल्दी जल्दी ब्याह कर ले री। बड़ा मज़ा आता है... उसे क्या पता कि मैं ब्याह कर भी चुकी हूँ...” मगर रूपा थी कहाँ ? सतीश की हैवानी हिस्स उसका नाम सुनते ही बेदार हो चुकी थी। गो सतीश का दिमाग़ मुआमले की नज़ाकत को समझ गया था। मगर उसका जिस्म सिर्फ़ अपनी दिलचस्पी की तरफ़ मुतवज्जा था।
सतीश ने पूछा “कहाँ है रूपा?”

नत्थू उठ खड़ा हुआ, “बाहर खड़ी है... मैं अभी उसे लाता हूँ।”
सतीश ने फ़ौरन रोबदार लहजे में कहा, “ख़बरदार जो उसे तू यहां लाया... जा भाग जा यहां से।”

“पर... पर... छोटे लाला जी वो... वो आपकी पत्नी हो चुकी है... बच्चे की माँ बनने वाली है और बच्चा आप ही का तो होगा... आप ही का तो होगा।” नत्थू ने तुतलाते हुए कहा।
तो रूपा हामिला हो चुकी थी... सतीश को क़ुदरत की ये सितम ज़रीफ़ी सख़्त नापसंद थी। उसकी समझ में नहीं आता था कि औरत और मर्द के तअल्लुक़ात के साथ साथ ये हमल का सिलसिला क्यों जोड़ दिया है।

मर्द जब किसी औरत की ख़ास ख़ूबी का मोअतरिफ़ होता है तो उसकी सज़ा बच्चे की शक्ल में क्यों तरफ़ैन को भुगतना पड़ती है... रूपा बच्चे के बग़ैर कितनी अच्छी थी और वो ख़ुद उस बच्चे के बग़ैर कितने अच्छे तरीक़े पर, रूपा के साथ तअल्लुक़ात क़ायम रख सकता था। इस सिलसिल-ए-तौलीद की वजह से कई बार उसके दिल में ये ख़याल पैदा हुआ कि औरत एक बेकार शय है यानी उसको हाथ लगाओ और ये बच्चा पैदा हो जाता है ये भी कोई बात है।
अब उसकी समझ में नहीं आता था कि वो उस बच्चे का क्या करे जो पैदा हो रहा था। थोड़ी देर ग़ौर करके उसने नत्थू को अपने पास बिठाया और बड़े आराम से कहा,“तुम रूपा के क्या लगते हो... ख़ैर छोड़ो इस क़िस्से को... देखो, ये बच्चे-वच्चे की बात मुझे पसंद नहीं, मुफ़्त में हम दोनों बदनाम हो जाऐंगे। तुम ऐसा करो, रूपा को यहां छोड़ जाओ... मैं उसे आज ही किसी ऐसी जगह भिजवा दूंगा जहां ये बच्चा ज़ाए कर दिया जाये और रूपा को मैं कुछ रुपये दे दूंगा, वो ख़ुश हो जाएगी। तुम्हारा इनाम भी तुम्हें मिल जाएगा... ठहरो।”

ये कह कर सतीश ने अपनी जेब से बटुवा निकाला और दस रुपये का नोट नत्थू के हाथ में दे कर कहा, “ये रहा तुम्हारा इनाम... जाओ ऐश करो।”
नत्थू चुपके से उठा। दस रुपये का नोट उसने अच्छी तरह मुट्ठी में दबा लिया और वहां से चल दिया। सतीश ने इत्मिनान का सांस लिया कि चलो छुट्टी हुई। अब वो भंगी की लड़की की बाबत सोचने लगा कि अगर उसे भी... मगर ये क्या, नत्थू रूपा के साथ वापस आ रहा था।

रूपा की नज़रें झुकी हुई थीं और वो यूं चल रही थी जैसे उसे बहुत तकलीफ़ हो रही थी। सतीश ने सोचा, ये बच्चा पैदा करना भी एक अच्छी ख़ासी मुसीबत मालूम होती है।
नत्थू और रूपा दोनों बरामदे की सीढ़ियों के पास खड़े हो गए। सतीश ने रूपा की तरफ़ देखे बग़ैर कहा, “देखो रूपा, मैंने... उसको सब कुछ समझा दिया है। तुम फ़िक्र न करो, सब ठीक हो जाएगा... समझीं... क्यों भई तुमने सब कुछ बता दिया ना?”

नत्थू ने दस रुपये का नोट ख़ामोशी से सतीश की तरफ़ बढ़ाया और कहा,“छोटे लाला जी! काग़ज़ के इस टुकड़े से आप मुझे ख़रीदना चाहते हैं। मैं तो एक बहुत बड़ा सौदा करने आया था।”
सतीश ने समझा कि नत्थू शायद दस रुपये से ज़्यादा मांगता है, “कितने चाहिऐं तुझे, मेरे पास इस वक़्त पचास हैं लेना हो तो ले जाओ।”

नत्थू ने रूपा की तरफ़ देखा। रूपा की आँखों से आँसू निकल कर सीमेंट से लिपी हुई सीढ़ियों पर टपक रहे थे। उसके दिल पर ये क़तरे पिघले हुए सीसे की तरह गिर रहे थे।
सतीश की तरफ़ उसने मुड़ कर कहा, “छोटे लाला जी, ये आपकी पत्नी है, आप इसके बच्चे के बाप हैं... जैसे बड़े लाला जी आपके पिता हैं। रूपा के लिए और कोई जगह नहीं है, वो आपके पास रहेगी और आप उसे पत्नी बना कर रखेंगे। सब गांव वाले इसे धुतकार रहे हैं, किसलिए... इसलिए कि वो आपका बच्चा अपने पेट में लिए फिरती है... आपको थामना पड़ेगा। उस लड़की का हाथ जिसने आपको अपना सब कुछ दे दिया।

आपका दिल पत्थर का नहीं है छोटे लाला जी! और इस छोकरी का दिल भी पत्थर नहीं है। आप ने इसको सहारा न दिया तो और कौन देगा, ये आती नहीं थी। रो-रो के अपनी जान हलकान कर रही थी। मैंने इसे समझाया और कहा, पगली तू क्यों रोती है, तेरा पति जीता है, चल मैं तुझे उसके पास ले चलूं।”
सतीश को पति-पत्नी का मतलब ही समझ में नहीं आता था। “देखो भाई! ज़्यादा बकवास न करो, तुम यूं डरा धमका कर मुझसे ज़्यादा रुपया वसूल नहीं कर सकते। मैं एक सौ रुपया देने पर राज़ी हूँ। मगर शर्त ये है कि बच्चा ज़ाए कर दिया जाये। और तुम जो मुझसे ये कहते हो कि मैं इसे अपने घर में बसा लूं तो ये नामुमकिन है। मैं इसका पति ख़्वाब में भी नहीं बना और न ये मेरी कभी पत्नी बनी है... समझे? सौ रुपया लेना हो तो कल आके यहां से ले जाना, अब यहां से नौ दो ग्यारह हो जाओ।”

नत्थू भन्ना गया।
“और... और... ये बच्चा क्या आसमान से गिरा है? इसकी आँखों में आँसू भूत-प्रेतों ने भर दिए हैं? मेरा दिल... मेरा दिल कौन मसल रहा है? ये रुपये... ये सौ रुपया क्या आप ख़ैरात के तौर पर दे रहे हैं? कुछ हुआ है तो ये सब कुछ हो रहा है... कोई बात है तो ये हलचल मच रही है। आप इस बच्चे के बाप हैं तो क्या इसके पति नहीं? मेरी समझ को कुछ हो गया है या आपकी समझ को...”

सतीश ये तक़रीर बर्दाश्त न कर सका। “उल्लू के पट्ठे! तू जाता है कि नहीं यहां से, खड़ा अपनी मंतिक़ छांट रहा है, जा जो करना है करले... देखूं तू मेरा क्या बिगाड़ लेगा?”
नत्थू ने हौले से कहा, “मैं तो संवारने आया था छोटे लाला जी... आप नाहक़ क्यों बिगड़ रहे हैं, आप क्यों नहीं इसका हाथ थाम लेते, ये आपकी पत्नी है।”

“पत्नी के बच्चे अब तू अपनी बकवास बंद करेगा या नहीं... बच्चा बच्चा क्या बक रहा है... जा ले जा अपनी इस कुछ लगती

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