मिसेस डिकोस्टा

नौ महीने पूरे हो चुके थे।
मेरे पेट में अब पहली सी गड़बड़ नहीं थी। पर मिसेज़ डी कोस्टा के पेट में चूहे दौड़ रहे थे। वो बहुत परेशान थी। चुनांचे मैं आने वाले हादसे की तमाम अनजानी तकलीफें भूल गई थी और मिसेज़ डी कोस्टा की हालत पर रहम खाने लगी थी।

मिसेज़ डी कोस्टा मेरी पड़ोसन थी। हमारे फ़्लैट की बालकनी और उसके फ़्लैट की बालकनी में सिर्फ़ एक चोबी तख़्ता हाइल था जिसमें बेशुमार नन्हे नन्हे सूराख़ थे। इन सूराखों में से मैं और अल्लाह बख़्शे मेरी सास डी कोस्टा के सारे ख़ानदान को खाना खाते देखा करते थे। लेकिन जब उनके हाँ सुखाई हुई झींगा मछली पकती और उसकी नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त बू इन सूराखों से छनछन कर हम तक पहुंच जाती तो मैं और मेरी सास बालकनी का रुख़ न करते थे। मैं अब भी कभी कभी सोचती हूँ कि इतनी बदबूदार चीज़ खाई क्योंकर जा सकती है, पर बाबा क्या कहा जाये। इंसान बुरी से बुरी चीज़ें खा जाता है। कौन जाने, इन्हें इस नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त बू ही में लुत्फ़ आता हो।
मिसेज़ डी कोस्टा की उम्र चालीस बयालिस के लगभग होगी। उसके कटे हुए बाल जो अपनी स्याही बिल्कुल खो चुके थे और जिनमें बेशुमार सफ़ेद धारियां पड़ चुकी थीं, उसके छोटे सर पर घुसे हुए नमदे की टोपी की सूरत में परेशान रहते थे। कभी कभी जब वो नया भड़कीले रंग का बहुत भोंडे तरीक़े पर सिला हुआ फ़राक पहनती थी तो सर पर लाल लाल बुंदकियों वाला जाल भी लगा लेती थी। जिससे उसके छिदरे बाल उसके सर के साथ चिपक जाते थे। इस हालत में वो दर्ज़ियों का ऐसा मॉडल दिखाई देती थी जो नीलाम घर में पड़ा हो।

मैंने कई बार उसे अपने इन ही बालों में लहरें पैदा करने की कोशिश में मसरूफ़ देखा है। अपने चार बेटों को जिनमें से एक ताज़ा ताज़ा फ़ौज में भर्ती हुआ था और अपने आप को हिंदुस्तान के हुकमरानों की फ़ेहरिस्त में शामिल समझता था। और दूसरा जो हर रोज़ अपनी कलफ़ लगी सफ़ेद पतलून इस्त्री करके पहनता था और नीचे आकर छोटी छोटी क्रिस्चियन लड़कियों के साथ मीठी मीठी बातें किया करता था... नाश्ता करा दिया करती थी और अपने बुड्ढे ख़ाविंद को जो रेलवे में मुलाज़िम था, बालकनी में निकल कर हाथ के इशारे से ‘बाय बाय’ करने के बाद फ़ारिग़ हो जाती थी तो अपने सर के नाक़ाबिल-ए-गिरफ़्त बालों में लहरें पैदा करने वाले क्लिप अटका दिया करती थी और उन क्लिपों समेत सोचा करती थी कि मेरे हाँ बच्चा कब पैदा होगा।
वो ख़ुद आधे दर्जन बच्चे पैदा कर चुकी थी जिनमें से पाँच ज़िंदा थे। उनकी पैदाइश पर भी वो यूंही दिन गिना करती थी या चुपचाप बैठी रहती थी और बच्चे को ख़ुदबख़ुद पैदा होने के लिए छोड़ देती थी, इसके मुतअ’ल्लिक़ मुझे कुछ इ’ल्म नहीं। लेकिन मुझे इस बात का तल्ख़ तजुर्बा ज़रूर है कि जो कुछ मेरे पेट में था, उससे मिसेज़ डी कोस्टा को जिसका दाहिना पैर और उसके ऊपर का हिस्सा किसी बीमारी के बाइ’स हमेशा सूजा रहता था, बहुत गहरी दिलचस्पी थी। चुनांचे दिन में कई मर्तबा बालकनी में से झांक कर वो मुझे आवाज़ दिया करती थी और ग्रामर से बेनियाज़ अंग्रेज़ी में, जिसका न बोलना उसके नज़दीक शायद हिंदुस्तान के मौजूदा हुकमरानों की हतक थी, मुझसे कहा करती थी, “मैं बोली, आज तुम किधर गया था...”

जब मैं उसे बताती कि मैं अपने ख़ाविंद के साथ शॉपिंग करने गई थी, तो उसके चेहरे पर नाउम्मीदी के आसार पैदा हो जाते और वो अंग्रेज़ी भूल कर बंबई की उर्दू में गुफ़्तगू करना शुरू कर देती जिस का मक़सद मुझसे सिर्फ़ इस बात का पता लेना होता था कि मेरे ख़याल के मुताबिक़ बच्चे की पैदाइश में कितने दिन बाक़ी रह गए हैं।
मुझे इस बात का इ’ल्म होता तो मैं यक़ीनन उसे बता देती। इस में हर्ज ही किया था। उस बेचारी को ख़्वाह-मख़्वाह की उलझन से नजात मिल जाती और मुझे भी हर रोज़ उसके नित नए सवालों का सामना न करना पड़ता। मगर मुसीबत ये है कि मुझे बच्चों की पैदाइश और उसके मुतअ’ल्लिक़ात का कुछ इ’ल्म ही नहीं था। मुझे सिर्फ़ इतना मालूम था कि नौ महीने पूरे हो जाने पर बच्चा पैदा हो जाया करता है।

मिसेज़ डी कोस्टा के हिसाब के मुताबिक़ नौ महीने पूरे हो चुके थे। मेरी सास का ख़याल था कि अभी कुछ दिन बाक़ी हैं... लेकिन ये नौ महीने कहाँ से शुरू कर के पूरे कर दिए गए थे? मैंने बहुतेरा अपने ज़ेहन पर ज़ोर दिया, पर समझ न सकी।
बच्चा मेरे पैदा होने वाला था। शादी मेरी हुई थी, लेकिन सारा बही खाता मिसेज़ डी कोस्टा के पास था। कई बार मुझे ख़याल आया कि ये मेरी अपनी ग़फ़लत का नतीजा है। अगर मैंने किसी छोटी सी नोटबुक में, छोटी सी नोटबुक में न सही, उस कापी ही में जो धोबी के हिसाब के लिए मख़सूस थी, सब तारीखें लिख छोड़ी होतीं तो कितना अच्छा था।

इतना तो मुझे याद था और याद है कि मेरी शादी 26 अप्रैल को हुई या’नी 26 की रात को मैं अपने घर के बजाय अपने ख़ाविंद के घर में थी। लेकिन इसके बाद के वाक़ियात कुछ इस क़दर ख़लत-मलत हो गए थे कि इस बात का पता लगाना बहुत मुश्किल था और मुझे तअ’ज्जुब इसी बात का है कि मिसेज़ डी कोस्टा ने कैसे अंदाज़ा लगा लिया था कि नौ महीने पूरे हो चुके हैं और बच्चा लेट हो गया है।
एक रोज़ उसने मेरी सास से इज़्तराब भरे लहजे में कहा, “तुम्हारे डॉटर इन ला का बच्चा लेट हो गया है... पिछले वीक (हफ़्ते) में पैदा होना ही मांगता था।”

मैं अंदर सोफे पर लेटी थी और आने वाले हादसे के मुतअ’ल्लिक़ क़ियास आराईयां कर रही थी। मिसेज़ डी कोस्टा की ये बात सुन कर मुझे बड़ी हंसी आई और ऐसा लगा कि मिसेज़ डी कोस्टा और मेरी सास दोनों प्लेटफार्म पर खड़ी हैं और जिस गाड़ी का उन्हें इंतिज़ार था, लेट हो गई है।
अल्लाह बख़्शे मेरी सास को इतनी शिद्दत का इंतिज़ार नहीं था। चुनांचे वो कई मर्तबा मिसेज़ डी कोस्टा से कह चुकी थी, “कोई फ़िक्र की बात नहीं, ख़ुदा अपना फ़ज़ल करेगा, कुछ दिन ऊपर हो जाया करते हैं।”

मगर मिसेज़ डी कोस्टा नहीं मानती थी, जो हिसाब वो लगा चुकी थी, ग़लत कैसे होसकता था। जब मिसेज़ डी सिल्वा के हाँ बच्चा पैदा होने वाला था तो उसने दूर से ही देख कर कह दिया था कि ज़्यादा से ज़्यादा एक हफ़्ता लगेगा। चुनांचे चौथे रोज़ ही मिसेज़ डी सिल्वा हस्पताल जाती नज़र आई। और ख़ुद उसने छः बच्चे जने थे, जिनमें से एक भी लेट न हुआ था, और फिर वो नर्स थी। ये
अ’लाहिदा बात है कि उसने किसी हस्पताल में दायागीरी की ता’लीम हासिल नहीं की थी। मगर सब लोग उसे नर्स कहते थे। चुनांचे उनके फ़्लैट के बाहर छोटी सी तख़्ती पर ‘नर्स डी कोस्टा’ लिखा रहता था। उसे बच्चों की पैदाइश के औक़ात मालूम न होते तो और किसको होते।

जब कमरा नंबर 17 के रहने वाले मिस्टर नज़ीर की नाक सूज गई थी तो मिसेज़ डी कोस्टा ही ने बाज़ार से रूई का बंडल मंगवाया था और पानी गर्म कर के टकोर की थी। बार बार वो इस वाक़ए को सनद के तौर पर पेश किया करती थी। चुनांचे मुझे बार बार कहना पड़ता था, “हम कितने ख़ुश-क़िस्मत हैं कि हमारे पड़ोस में ऐसी औरत रहती है जो ख़ुशख़ल्क़ होने के इलावा आ’ला नर्स भी है।”
ये सुन कर वो ख़ुश होती थी और उसको यूं ख़ुश करने से मुझे ये फ़ायदा होता था कि जब... साहब को तेज़ बुख़ार चढ़ा था तो मिसेज़ डी कोस्टा ने बर्फ़ लगाने वाली रबड़ की थैली फ़ौरन मुझे ला दी थी। ये थैली एक हफ़्ता तक हमारे यहां पड़ी रही और मलेरिया के मुख़्तलिफ़ शिकारों के इस्तेमाल में आती रही।

यूं भी मिसेज़ डी कोस्टा बड़ी ख़िदमतगुज़ार थी लेकिन उसकी इस रज़ाकारी में उसकी मुतजस्सिस तबीयत को काफ़ी दख़ल था। दरअसल वो अपने तमाम पड़ोसियों के उन राज़ों से भी वाक़िफ़ होने की आर्ज़ूमंद थी जो सीना-ब-सीना चले आते हैं।
मिसेज़ डी सिल्वा चूँकि मिसेज़ डी कोस्टा की हम-मज़हब थी, इसलिए उसकी बहुत सी कमज़ोरियां उस को मालूम थीं। मसलन वो जानती थी कि उसकी शादी क्रिस्मस में हुई और बच्चा जुलाई में पैदा हुआ। जिस का साफ़ मतलब ये था कि उसकी शादी बहुत पहले हो चुकी थी। उसको ये भी मालूम था कि मिसेज़ डी सिल्वा नाच घरों में जाती है और यूं बहुत सा रुपया कमाती है। और ये कि वो अब इतनी ख़ूबसूरत नहीं रही जितनी कि पहले थी, चुनांचे उसकी आमदनी भी पहले की निसबत कम हो गई है।

हमारे सामने जो यहूदी रहते थे, उनके मुतअ’ल्लिक़ मिसेज़ डी सिल्वा के मुख़्तलिफ़ बयान थे। कभी वो कहती थी कि मोटी मोज़ील जो रात को देर से घर आती है, सट्टा खेलती है और वो ठिंगना सा बुढ्ढा जो अपनी पतलून के गेलसों में अंगूठे अटकाए और कोट कांधे पर रखे सुबह घर से निकल जाता है और शाम को लौटता है, मोज़ील का पुराना दोस्त है। इस बुड्ढे के मुतअ’ल्लिक़ उसने खोज लगा कर मालूम किया था कि साबुन बनाता है जिसमें सज्जी बहुत ज़्यादा होती है।
एक दिन उसने हमें बताया कि मोज़ील ने अपनी लड़की की जो बहुत ख़ूबसूरत थी और हर रोज़ नीले रंग का ‘जिम’ पहन कर स्कूल जाती थी, उस आदमी से मंगनी कर रखी है जो हर रोज़ एक पारसी को मोटर में लेकर आता है।

उस पारसी के मुतअ’ल्लिक़ मैं इतना जानती हूँ कि उसकी मोटर हमेशा नीचे खड़ी रहती थी और वो मोज़ील की लड़की के मंगेतर समेत रात वहीं बसर करता था। मिसेज़ डी कोस्टा का बयान ये था कि मोज़ील की लड़की फ्लोरी का मंगेतर पारसी का मोटर ड्राईवर है और ये पारसी अपने मोटर ड्राईवर की बहन लिली का आशिक़ है जो अपनी छोटी बहन वाइलेट समेत उसी फ़्लैट में रहती थी।
वाइलेट के मुतअ’ल्लिक़ मिसेज़ डी कोस्टा की राय बहुत ख़राब थी। वो कहा करती थी कि ये लौंडिया जो हर वक़्त एक नन्हे से बच्चे को उठाए रहती है, बहुत बुरे कैरेक्टर की है, और इस नन्हे से बच्चे के मुतअ’ल्लिक़ उसने एक दिन हमें ये ख़बर सुनाई थी और जैसा कि मशहूर किया गया है, वो किसी पारसन का लावारिस बच्चा नहीं बल्कि ख़ुद वाइलेट की बहन लिली का है। बस मुझे इतना ही याद रहा है क्योंकि जो शजरा मिसेज़ डी कोस्टा ने तैयार किया था, इतना लंबा है कि शायद ही किसी को याद रह सके।

सिर्फ़ आस पास की औरतों और पड़ोस के मर्दों तक मिसेज़ डी कोस्टा की मालूमात महदूद नहीं थीं। उसे दूसरे मुहल्ले के लोगों के मुतअ’ल्लिक़ भी बहुत सी बातें मालूम थीं। चुनांचे जब वो अपने सूजे हुए पैर का ईलाज करने की ग़रज़ से बाहर जाती तो घर लौटते हुए दूसरे महलों की बहुत सी ख़बरें लाती थीं।
एक रोज़ जब मिसेज़ डी कोस्टा मेरे बच्चे की पैदाइश का इंतिज़ार कर कर के थक हार चुकी थी, मैंने उसे बाहर फाटक के पास अपने दो बड़े लड़कों, एक लड़की और पड़ोसन की दो औरतों के साथ बातों में मसरूफ़ देखा। ये ख़याल करके जी ही जी में बहुत कुढ़ी कि मेरे बच्चे के लेट हो जाने के मुतअ’ल्लिक़ बातें कर रही होगी। चुनांचे जब उसने घर का रुख़ किया तो मैं जंगले से परे हिट गई। मगर उसने मुझे देख लिया था। सीधी ऊपर चली आई। मैंने दरवाज़ा खोल कर बाहर बालकनी ही में मोंढे पर बिठा दिया। मोंढे पर बैठते ही उसने बंबई की उर्दू और ग्रामर से बेनियाज़ अंग्रेज़ी में कहना शुरू किया, “तुम ने कुछ सुना?... महात्मा गांधी ने क्या किया? साली कांग्रेस एक नया क़ानून पास करना मांगती है। मेरा फ्रेडरिक ख़बर लाया है कि बम्बई में प्रोबेशन हो जाएगी... तुम समझता है प्रोबेशन क्या होती है?”

मैंने ला-इ’ल्मी का इज़हार किया क्योंकि जितनी अंग्रेज़ी मुझे आती थी, उसमें प्रोबेशन का लफ़्ज़ नहीं था। इस पर मिसेज़ डी कोस्टा ने कहा, “प्रोबेशन शराब बंद करने को कहते हैं, हम पूछता है, इस कांग्रेस का हमने क्या बिगाड़ा है कि शराब बंद करके हमको तंग करना मांगटी है, ये कैसी गर्वनमेंट है। हमको ऐसी बात एक दम अच्छी नहीं लगटी। हमारा तेहवार कैसे चलेगा, हम क्या करेगा। विस्की हमारे तेहवारों में होना ही माँगटा है... तुम समझती होना?
क्रिस्मस कैसे होगा?... क्रिस्चियन लोग तो इस लॉ को नहीं मानेगा। कैसे मान सकता है... मेरे घर में चौबीस क्लाक(घंटे) ब्रांडी की ज़रूरत रहती है। ये लॉ पास हो गया तो कैसे काम चलेगा? ये सब कुछ गांढी कर रहा है... गांढी जो महमडन लोग का एक दम बैरी है... साला आप तो पीता नहीं और दूसरों को पीने से रोकता है और तुम्हें मालूम है, ये हम लोगों का मेरा मतलब है गर्वनमेंट का बहुत बड़ा एनिमी( दुश्मन) है...”

उस वक़्त ऐसा मालूम होता था कि इंग्लिस्तान का सारा टापू मिसेज़ डी कोस्टा के अंदर समा गया है। वो गोवा की रहने वाली काले रंग की क्रिस्चियन औरत थी। मगर जब उसने ये बातें कीं तो मेरे तसव्वुर ने उस पर सफ़ेद चमड़ी मंढ दी। चंद लम्हात के लिए वो यूरोप से आई हुई ताज़ा ताज़ा अंग्रेज़ औरत दिखाई दी जिसे हिंदुस्तान और उसके महात्मा जी से कोई वास्ता न हो।
समुंदर के पानी से नमक बनाने की तहरीक महात्मा गांधी ने शुरू की थी। चर्ख़ा चलाना और खादी पहनना भी उसी ने लोगों को सिखाया था। इसी क़िस्म की और बहुत सी ऊटपटांग बातें वो कर चुका था। शायद इसीलिए मिसेज़ डी कोस्टा ने ये समझा था कि बम्बई में शराब सिर्फ़ इसलिए बंद की जा रही है कि अंग्रेज़ लोगों को तकलीफ़ हो...वो कांग्रस और महात्मा गांधी को एक ही चीज़ समझती थी, या’नी लँगोटी।

महात्मा गांधी और उसकी हश्त पुश्त पर ला’नतें भेज कर मिसेज़ डी कोस्टा असल बात की तरफ़ मुतवज्जा हुई, “और हाँ, ये तुम्हारा बच्चा क्यों पैदा नहीं होता। चलो मैं तुम्हें किसी डाक्टर के पास ले चलूं।”
मैंने उस वक़्त बात टाल दी मगर मिसेज़ डी कोस्टा ने घर जाते हुए फिर मुझसे कहा, “देखो, तुमको कुछ ऐसा वैसा बात हो गया तो फिर हमको न बोलना।”

उससे दूसरे रोज़ का वाक़िया है... साहब बैठे कुछ लिख रहे थे, मुझे ख़याल आया, कई दिनों से मैंने मिसेज़ काज़मी को टेलीफ़ोन नहीं किया। उसको भी बच्चे की पैदाइश का बहुत ख़याल है। इस वक़्त फ़ुर्सत है और नज़ीर साहिब का दफ़्तर जो उनके घर के साथ ही मुलहक़ था, बिल्कुल ख़ाली होगा क्योंकि छः बज चुके थे। उठ कर टेलीफ़ोन कर देना चाहिए।
यूं सीढ़ियां उतरने और चढ़ने से डाक्टर साहब और तजरबाकार औरतों के मशवरे पर अ’मल भी हो जाएगा, जो ये था कि चलने फिरने से बच्चा आसानी के साथ पैदा होता है। चुनांचे मैं अपने पैदा होने वाले बच्चे समेत उठी और आहिस्ता आहिस्ता सीढ़ियां चढ़ने लगी। जब पहली मंज़िल पर पहुंची तो मुझे नर्स डी कोस्टा का बोर्ड नज़र आया और पेशतर इसके कि मैं उसके फ़्लैट के दरवाज़े से गुज़र कर दूसरी मंज़िल के पहले ज़ीने पर क़दम रखूं, मिसेज़ डी कोस्टा बाहर निकल आई और मुझे अपने घर ले गई।

मेरा दम फूला हुआ था और पेट में ऐंठन सी पैदा हो गई। ऐसा महसूस होता था कि रबड़ की गेंद है जो कहीं अटक गई है। इससे बड़ी उलझन हो रही थी। मैंने एक बार इस तकलीफ़ का ज़िक्र अपनी सास से किया था तो उसने मुझे बताया था कि बच्चे की टांग-वांग इधर-उधर फंस जाया करती है। चुनांचे ये टांग-वांग ही हिलने-जुलने से कहीं फंस गई थी जिसके बाइ’स मुझे बड़ी तकलीफ़ हो रही थी।
मैंने मिसेज़ डी कोस्टा से कहा, मुझे एक ज़रूरी टेलीफ़ोन करना है इसलिए मैं आपके यहां नहीं बैठ सकती और बहुत से झूटे बहाने पेश किए, मगर वो न मानी और मेरा बाज़ू पकड़ कर उसने ज़बरदस्ती मुझे उस सोफे पर बिठा दिया जिसका कपड़ा बहुत मैला होरहा था।

मुझे सोफे पर बिठा कर जल्दी जल्दी उसने दूसरे कमरे से अपने दो छोटे लड़कों को बाहर निकाला। अपनी कुंवारी जवान लड़की को भी जो महात्मा गांधी की लँगोटी से कुछ बड़ी नेकर पहनती थी, उस ने बाहर भेज दिया और मुझे ख़ाली कमरे में ले गई। अंदर से दरवाज़ा बंद करके उसने मेरी तरफ़ उस अफ़्रीक़ी जादूगर की तरह देखा जिसने अल्लाहदीन का चचा बन कर उसे ग़ार में बंद कर दिया था।
ये सब कुछ उसने इस फुर्ती से किया कि मुझे वो बहुत पुर-असरार दिखाई दी। सूजे हुए पैर के बाइ’स उसकी चाल में ख़फ़ीफ़ सा लंगड़ापन पैदा हो गया था, जो मुझे उस वक़्त बहुत भयानक दिखाई दिया।

मेरी तरफ़ घूर कर देखने के बाद उसने उधर दीवार की तीनों खिड़कियां बंद कीं। हर खिड़की की चटख़नी चढ़ा कर उसने मेरी तरफ़ इस अंदाज़ से देखा गोया उसे इस बात का डर है कि मैं उठ भागूंगी।
ईमान की कहूं उस वक़्त मेरा यही जी चाहता था कि दरवाज़ा खोल कर भाग जाऊं। उसकी ख़ामोशी और उसके खिड़कियां, दरवाज़े बंद करने से मैं बहुत परेशान हो गई थी। आख़िर उसका मतलब क्या था? वो चाहती क्या थी, इतने ज़बरदस्त तख़लिए की क्या ज़रूरत थी?... और फिर... वो लाख पड़ोसन थी, उसके हम पर कई एहसान भी थे लेकिन आख़िर वो थी तो एक ग़ैर औरत और उसके बेटे... वो मुवा फ़ौजी और वो कलफ़ लगी पतलून वाला जो छोटी छोटी क्रिस्चियन लड़कियों से मीठी मीठी बातें करता था... अपने अपने होते हैं, पराए पराए।

मैं कई इश्क़िया नाविलों में कुटनियों का हाल पढ़ चुकी थी। जिस अंदाज़ से वो इधर उधर चल फिर रही थी और दरवाज़े बंद करके पर्दे खींच रही थी, इससे मैंने यही नतीजा अख़्ज़ किया था कि वो नर्स वर्स बिल्कुल नहीं बल्कि बहुत बड़ी कुटनी है।
खिड़कियां और दरवाज़े बंद होने के बाइ’स कमरे में जिसके अंदर लोहे के चार पलंग पड़े थे, काफ़ी अंधेरा हो गया था जिससे मुझे और भी वहशत हुई। मगर उसने फ़ौरन ही बटन दबा कर रोशनी कर दी।

समझ में नहीं आता था कि वो मेरे साथ क्या करेगी। पुर-असरार तरीक़े पर उसने आतिशदान से एक बोतल उठाई जिसमें सफ़ेद रंग का सय्याल माद्दा था और मुझसे मुख़ातिब हो कर कहने लगी, “अपना ब्लाउज़ उतारो... मैं कुछ देखना मांगती हूँ।”
मैं घबरा गई, “क्या देखना चाहती हो?”

ऊपर से सब कुछ नज़र आ रहा था, फिर ब्लाउज़ उतरवाने का क्या मतलब था और उसे क्या हक़ हासिल था कि वो दूसरी औरतों को यूं घर के अंदर बुला कर ब्लाउज़ उतरवाने पर मजबूर करे। मैंने साफ़ साफ़ कह दिया, “मिसेज़ डी कोस्टा, मैं ब्लाउज़ हर्गिज़ हर्गिज़ नहीं उतारुंगी।” मेरे लहजे में घबराहट के इलावा तेज़ी भी थी।
मिसेज़ डी कोस्टा का रंग ज़र्द पड़ गया, “तो... तो फिर हमको मालूम कैसे पड़ेगा कि तुम्हारे घर बच्चा कब होगा? इस बोतल में खोपरे का तेल है, ये हम तुम्हारे पेट पर गिरा कर देखेगा... इससे एक दम मालूम हो जाएगा कि बच्चा कब होगा... लड़की होगी या लड़का।”

मेरी घबराहट दूर हो गई। डी कोस्टा फिर मुझे मिसेज़ डी कोस्टा नज़र आने लगी।
खोपरे का तेल बड़ी बेज़रर चीज़ है। पेट पर अगर उसकी पूरी बोतल भी उलट दी जाती तो क्या हर्ज था। और फिर तरकीब कितनी दिलचस्प थी। इसके इलावा अगर मैं न मानती तो मिसेज़ डी कोस्टा को कितनी बड़ी ना-उम्मीदी का सामना करना पड़ता। मुझे वैसे भी किसी की दिल शिकनी मंज़ूर नहीं होती, चुनांचे मैं मान गई।

ब्लाउज़ और क़मीज़ उतारने में मुझे काफ़ी कोफ़्त हुई मगर मैंने बर्दाश्त कर ली। ग़ैर औरत की मौजूदगी में जब मैंने अपना फूला हुआ पेट देखा जिसके निचले हिस्से पर इस तरह के लाल लाल निशान बने हुए थे जैसे रेशमी कपड़े में चुरसें पड़ जाएं तो मुझे एक अ’जीब क़िस्म का हिजाब महसूस हूआ। मैंने चाहा कि फ़ौरन कपड़े पहन लूं और वहां से चल दूं लेकिन मिसेज़ डी कोस्टा का वो हाथ जिसमें खोपरे के तेल की बोतल थी उठ चुका था।
मेरे पेट पर ठंडे ठंडे तेल की एक लकीर दौड़ गई। मिसेज़ डी कोस्टा ख़ुश हो गई। मैंने जब कपड़े पहन लिए तो उसने मुतमइन लहजे में कहा, “आज क्या डेट है? इग्यारह (ग्यारह), बस पंद्रह को बच्चा हो जाएगा और लड़का होगा।”

बच्चा 25 तारीख़ को हुआ लेकिन था लड़का। अब जब कभी वो मेरे पेट पर अपने नन्हे नन्हे हाथ रखता है तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मिसेज़ डी कोस्टा ने खोपरे के तेल की सारी बोतल उंडेल दी है।


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