शैदे के मुतअ’ल्लिक़ अमृतसर में ये मशहूर था कि वो चट्टान से भी टक्कर ले सकता है, उसमें बला की फुर्ती और ताक़त थी। गो तन-ओ-तोश के लिहाज़ से वो एक कमज़ोर इंसान दिखाई देता था लेकिन अमृतसर के सारे गुंडे उससे ख़ौफ़ खाते और उसको एहतराम की नज़रों से देखते थे। फ़रीद का चौक, मालूम नहीं फ़सादात के बाद उसकी क्या हालत है, अ’जीब-ओ-ग़रीब जगह थी यहां शायर भी थे, डाक्टर और हकीम भी, मोची और जुलाहे, जुवारी और बदमाश, नेक और परहेज़गार, सभी यहां बस्ते थे। हर वक़्त गहमा गहमी रहती थी। शैदे की सरगर्मीयां चौक से बाहर होती थीं या’नी वो अपने इलाक़े में कोई ऐसी हरकत नहीं करता था जिस पर उसके महल्ले वालों को ए’तराज़ हो। उस ने जितनी लड़ाईयां लड़ीं दूसरे ग़ुंडों के महल्ले में। वो कहता था अपने महल्ले में किसी दूसरे महल्ले के गुंडे से लड़ना नामर्दी की निशानी है, मज़ा तो ये है कि दुश्मन को उसकी अपनी जगह पर मारा जाये। और ये सही था। एक बार पटरंगों से उसकी ठन गई। वो कई मर्तबा चौक फ़रीद से गुज़रे,बड्कें मारते, नारे लगाते, शैदे को गालियां देते। वो ये सब सुन रहा था मगर उसने उनसे भिड़ना मुनासिब न समझा और ख़ामोश रहमान तानदरू की दुकान में बैठा रहा। लेकिन दो घंटों के बाद वो पटरंगों के मुहल्ले की तरफ़ रवाना हुआ। अकेला, बिल्कुल अकेला और फिर ग़ैर मुसल्लह। वहां जा कर उसने एक फ़लक शगाफ़ नारा बुलंद किया और पटरंगों को जो अपने काम में मसरूफ़ थे ललकारा, “निकलो बाहर, तुम्हारी...” दस-पंद्रह पटरंग लाठियां लेकर बाहर निकल आए और जंग शुरू हो गई। मेरा ख़याल है शैदे गतके और बनोट का माहिर था। उस पर लाठियां बरसाई गईं लेकिन उसने एक भी ज़र्ब अपने पर न लगने दी ऐसे पैंतरे बदलता रहा कि पटरंगों की सिट्टी गुम होगई। आख़िर उसने एक पटरंग से बड़ी चाबुक-दस्ती से लाठी छीनी और हमला आवरों को मार मार को अध् मुवा कर दिया। दूसरे रोज़ उसे गिरफ़्तार कर लिया गया। दो बरस क़ैद बा-मुशक़क़्त की सज़ा हुई। वो जेल चला गया जैसे वो उसका अपना घर है। इस दौरान में उसकी बूढ़ी माँ वक़तन फ़वक़तन मुलाक़ात के लिए आती रही। वो मशक़्क़त करता था लेकिन उसे कोई कोफ़्त नहीं होती थी। वो सोचता था कि चलो वर्ज़िश हो रही है, सेहत ठीक रहेगी। उसकी सेहत बावजूद इसके कि खाना बड़ा वाहियात होता था पहले से बेहतर थी। उसका वज़न बढ़ गया था लेकिन वो बा’ज़ औक़ात मग़्मूम हो जाता और अपनी कोठड़ी में सारी रात जागता रहता। उसके होंटों पर पंजाबी की ये बोली होती की कीजे तेरी यारी महनां महनां हो के टुट गई एक बरस गुज़र गया, मशक़्क़त करते करते... अब उसकी अफ़सुरदगी का दौर शुरू हुआ। उसने मुख़्तलिफ़ बोलियां गाना शुरू कर दीं। मुझे एक क़ैदी ने बताया जो उसके साथ वाली कोठड़ी में था कि वो बोलियां गाया करता था लभ जानगे यार गरा चे ठेके ले ले पतनां दे इसका मतलब ये है कि तुझे अपना गुमशुदा महबूब मिल जाएगा अगर तू दरिया के साहिल पर कश्तियां चलाने का ठेका ले ले। गुडी कट जांदी जिनहां दी प्रेम वाली मुनडे ले जानदे ऊनहां दी डोर लुट के या’नी जिनकी मुहब्बत का पतंग कट जाता है तो लड़के बाले बड़ा शोर मचाते हैं और उनकी डोर लूट कर ले जाते हैं। मैं अब और बोलियों का ज़िक्र नहीं करूंगा क्योंकि इन सबका जो शैदे के होंटों पर होती थीं, एक ही क़िस्म का मफ़हूम है। उस क़ैदी ने मुझसे कहा, “हम समझ गए थे कि शैदा किसी के इश्क़ में गिरफ़्तार है क्योंकि हमने कई मर्तबा उसे आहें भरते भी देखा, मशक़्क़त के दौरान में वो बिल्कुल ख़ामोश रहता, ऐसा मालूम होता था जैसे वो किसी और दुनिया की सैर कर रहा है... थोड़े थोड़े वक़्फ़ों के बाद एक लंबी आह भरता और फिर अपने ख़यालात में खो जाता।” डेढ़ बरस के बाद जब शैदे ख़ुदकुशी का इरादा कर चुका था और कोई ऐसी तरकीब सोच रहा था कि अपनी ज़िंदगी ख़त्म कर दे कि उसे इत्तिला मिली कि एक जवान लड़की तुमसे मिलने आई है। उस को बड़ी हैरत हुई कि ये जवान लड़की कौन हो सकती है। उसकी तो सिर्फ़ माँ थी जो इससे अपनी ममता के बाइ’स मिलने आ जाया करती थी। मुलाक़ात का इंतिज़ाम हुआ। शैदे सलाखों के पीछे खड़ा था। उसके साथ मुसल्लह सिपाही। लड़की को बुलाया गया, शैदे ने सलाखों में से देखा कि एक बुर्क़ापोश औरत आहनी पिंजरे की तरफ़ बढ़ रही है उसको अभी तक ये हैरत थी कि ये औरत या लड़की कौन हो सकती है। सफ़ेद बुर्क़ा था जब वो पास आई तो उसने नक़ाब उठाई, शैदे चीख़ा, “तुम... तुम कैसे...?” ज़ुलेख़ा जो कि पटरंगों की लड़की थी ज़ारो क़तार रोने लगी, उसके हलक़ में लफ़्ज़ अटक अटक गए, “मैं तुमसे मिलने आई हूँ, लेकिन... लेकिन मुझे, माफ़ कर देना, इतनी देर के बाद आई हूँ... तुम ख़ुदा मालूम, अपने दिल में मेरे मुतअ’ल्लिक़ क्या सोचते होगे।” शैदे ने सलाखों के साथ सर लगा कर कहा, “नहीं मेरी जान, मैं तुम्हारे मुतअ’ल्लिक़ सोचता ज़रूर रहा, लेकिन मैं जानता था कि तुम मजबूर हो।” ज़ुलेख़ा ने रोते हुए कहा, “मैं वाक़ई मजबूर थी, लेकिन आज मुझे मौक़ा मिला तो मैं आ गई। सच कहती हूँ, मेरा दिल किसी चीज़ में नहीं लगता था।” “ये मौक़ा तुम्हें कैसे मिल गया?” ज़ुलेख़ा की आँखों से आँसू रवां थे, “मेरे अब्बा का इंतक़ाल हो गया है। कल उनका चालीसवां था।” शैदे मरहूम से अपनी सारी मुख़ासिमत भूल गया, “ख़ुदा उन्हें जन्नत बख़्शे, मुझे ये ख़बर सुन कर बड़ा अफ़सोस हुआ।” ये कहते हुए उसकी आँखों में आँसू आ गए, “सब्र करो ज़ुलेख़ा, इसके सिवा और कोई चारा नहीं।” ज़ुलेख़ा ने अपने सफ़ेद बुर्क़े से आँसू पोंछे, “मैंने बहुत सब्र किया है शैदे, अब और कितनी देर करना पड़ेगा... तुम यहां से कब निकलोगे?” “बस छः महीने रह गए हैं लेकिन मेरा ख़याल है कि मुझे बहुत पहले ही छोड़ देंगे। यहां के सब अफ़सर मुझ पर मेहरबान हैं।” ज़ुलेख़ा की आवाज़ में मुहब्बत का बे-पनाह जज़्बा पैदा हो गया, “जल्दी आओ प्यारे, मुझे अब तुम्हारी होने से रोकने वाला कोई नहीं। ख़ुदा की क़सम अगर किसी ने तुम्हारी तरफ़ आँख उठा कर भी देखा तो मैं ख़ुद उससे निपट लूंगी, मैं नहीं चाहती कि तुम फिर इसी मुसीबत में गिरफ़्तार हो जाओ।” संतरी ने कहा कि वक़्त ख़त्म हो गया। चुनांचे उनकी मुलाक़ात भी ख़त्म हो गई। ज़ुलेखा रोती चली गई और शैदे दिल में मसर्रत और आँखों में आँसू लिए जेल के अन्दर चला गया जहां उसको मशक़्क़त करना थी। उस दिन उसने इतना काम किया कि जेलर दंग रह गए। दो महीनों के बाद उसे रिहा कर दिया गया। इस दौरान में ज़ुलेख़ा दो मर्तबा उससे मुलाक़ात करने आई थी। उसने आख़िरी मुलाक़ात में उसको बता दिया था कि वो किस तारीख़ को जेल से बाहर निकलेगा, चुनांचे वो गेट के पास बुर्क़ा पहने खड़ी थी। दोनों फ़र्त-ए-मुहब्बत में आँसू बहाने लगे। शैदे ने ताँगा लिया दोनों उसमें सवार हुए और शहर की जानिब चले, लेकिन शैदे की समझ में नहीं आता था कि वो ज़ुलेख़ा को कहाँ ले जाएगा, “ज़ुलेख़ा तुम्हें कहाँ जाना है?” ज़ुलेख़ा ने जवाब दिया, “मुझे मालूम नहीं, तुम जहां ले जाओगे वहीं चली जाऊंगी।” शैदे ने कुछ देर सोचा और ज़ुलेखा से कहा, “नहीं, ये ठीक नहीं, तुम अपने घर जाओ। दुनिया मुझे गुंडा कहती है लेकिन मैं तुम्हें जायज़ तरीक़े पर हासिल करना चाहता हूँ, तुम से बाक़ायदा शादी करूंगा।” ज़ुलेख़ा ने पूछा, “कब?” “बस एक दो महीने लग जाऐंगे... मैं अपनी जूए की बैठक फिर से क़ायम कर लूं, इस अ’र्से में इतना रुपया इकट्ठा हो जाएगा कि मैं तुम्हारे लिए ज़ेवर कपड़े ख़रीद सकूं।” ज़ुलेख़ा बहुत मुतास्सिर हुई, “तुम कितने अच्छे हो शैदे, जितनी देर तुम कहोगे, मैं उस घड़ी के लिए इंतिज़ार करूंगी, जब मैं तुम्हारी हो जाऊंगी।” शैदे ज़रा जज़्बाती हो गया, “जानी, तुम अब भी मेरी हो, मैं भी तुम्हारा हूँ, लेकिन मैं चाहता हूँ जो काम हो तौर तरीक़े से हो। मैं उन लोगों से नहीं जो दूसरों की जवान कुंवारी लड़कियों को वरग़ला कर ख़राब करते हैं। मुझे तुमसे मुहब्बत है जिसका सबसे बड़ा सबूत ये है कि तुम्हारी ख़ातिर मैंने मारखाई और क़रीब क़रीब दो बरस जेल में काटे... ख़ुदावंद पाक की क़सम खा के कहता हूँ, हर वक़्त मेरे होंटों पर तुम्हारा नाम रहता था।” ज़ुलेख़ा ने कहा, “मैंने कभी नमाज़ नहीं पढ़ी थी लेकिन तुम्हारे लिए मैंने एक हमसाई से सीखी और बिला-नागा पांचों वक़्त पढ़ती रही। हर नमाज़ के बाद दुआ मांगती कि ख़ुदा तुम्हें हर आफ़त से महफ़ूज़ रखे।” शैदे ने शहर पहुंचते ही दूसरा ताँगा ले लिया और ज़ुलेख़ा से जुदा हो गया ताकि वो अपने घर जाये और वो अपने। शैदे ने डेढ़ माह के अंदर अंदर एक हज़ार रुपये पैदा कर लिए। उनसे उसने ज़ुलेखा के लिए सोने की चूड़ियां और अँगूठियां बनवाईं। गले के लिए एक निकलेस भी लिया, अब वो पूरी तरह लैस था। एक दिन वो अपने घर में ऊपर पीढ़ी पर बैठा खाना खाने लगा था कि नीचे से किसी औरत के बैन करने जैसी आवाज़ आई। वो उसे पुकार रही थी और साथ साथ कोसने भी दे रही थी। शैदे ने उठ कर खिड़की में से नीचे झांका तो एक बुढ़िया थी जो उसके मुहल्ले की नहीं थी, उसने गर्दन उठा कर ऊपर देखा और पूछा, “क्या तुम ही शैदे हो?” “हाँ हाँ।” “ख़ुदा करे न रहो इस दुनिया के तख़्ते पर, तुम्हारी जवानी टूटे... तुम पर बिजली गिरे।” शैदे ने किसी क़दर ग़ुस्से में बुढ़िया से पूछा, “बात क्या है?” बुढ़िया का लहजा और ज़्यादा तल्ख़ हो गया, “मेरी बच्ची तुम पर जान छिड़के और तुम्हें कुछ पता ही नहीं।” शैदे ने हैरत से उस बुढ़िया से सवाल किया, “कौन है तुम्हारी बच्ची?” “ज़ुलेख़ा और कौन?” “क्यों क्या हुआ उसको?” बुढ़िया रोने लगी, “वो तुमसे मिलती थी, तुम गुंडे हो, इसलिए एक थानेदार ने ज़बरदस्ती उसके साथ अपना मुँह काला किया।” शैदे के होश-ओ-हवास एक लहज़े के लिए ग़ायब हो गए। मगर सँभल कर उसने बुढ़िया से पूछा, “क्या नाम है उस थानेदार का?” बुढ़िया काँप रही थी, “करम दाद... तुम यहां ऊपर मज़े में बैठे हो, बहुत बड़े गुंडे बने फिरते हो, अगर तुम में थोड़ी सी ग़ैरत है तो जाओ और उस थानेदार का सर गंडासे से काट के रख दो।” शैदे ने कुछ न कहा, खिड़की से हट कर उसने बड़े इतमिनान से खाना खाया। पेट भर के दो गिलास पानी के पिए और एक कोने में रखी हुई कुल्हाड़ी लेकर बाहर चला गया। एक घंटे के बाद उसने ज़ुलेख़ा के घर दरवाज़े पर दस्तक दी। वही बुढ़िया बाहर निकली, शैदे के हाथ में ख़ून आलूद कुल्हाड़ी थी, उसने बड़े पुरसुकून लहजे में उससे कहा, “माँ, जो काम तुमने मुझसे कहा था, कर आया हूँ। ज़ुलेख़ा से मेरा सलाम कहना, मैं अब चलता हूँ।” ये कह कर वो सीधा कोतवाली गया और ख़ुद को पुलिस के हवाले कर दिया।