मुझे चाय के लिए कह कर, वह और उनके दोस्त फिर अपनी बातों में ग़र्क़ हो गए। गुफ़्तगू का मौज़ू, तरक़्क़ीपसंद अदब और तरक़्क़ीपसंद अदीब था। शुरू शुरू में तो ये लोग उर्दू के अफ़सानवी अदब पर तायराना नज़र दौड़ाते रहे लेकिन बाद में ये नज़र गहराई इख़्तियार कर गई और जैसा कि आम तौर पर होता है, गुफ़्तगू गर्मा गर्म बहेस में तबदील हो गई। मेरे शौहर, तरक़्क़ीपसंद हैं, न रजअत पसंद, लेकिन बहस पसंद ज़रूर हैं, चुनांचे अपने दोस्तों के मुक़ाबले में सबसे ज़्यादा गर्म जोश वही नज़र आते थे। वह इस अंदेशे के यकसर ख़िलाफ़ थे कि पाकिस्तान में तरक़्क़ी पसंद अदब का मुस्तक़्बिल तारीक है। बहस के दौरान में एक मरतबा उन्होंने बिल्कुल “तुम आज शाम को साड़ी पहनोगी” के से फ़ैसला-कुन अंदाज़ में अपने दोस्त हबीब से कहा, “तुम्हें तस्लीम करना पड़ेगा कि पाकिस्तान में तरक़्क़ी पसंद अदब की तहरीक ज़िंदा रहेगी।” हबीब साहब फ़ौरन सर तस्लीम-ए-ख़म कर देने वाले नहीं थे, चुनांचे बहस जारी रही, और जब मैं चाय तैयार करने के लिए उठी तो हफ़ीज़-उल्लाह साहब जिनको सब उल्ला कह कर पुकारते थे पच्चीसवां सिगरेट फूंकते हुए तरक़्क़ी पसंद अदब पर क्रेमलिन के इश्तिमाली असर को ग़लत साबित करने की कोशिश शुरू करने वाले थे। मैं उठ कर बावर्ची ख़ाने में आई तो नौकर ग़ायब था और चाय का पानी चूल्हे पर धरा बिल्कुल ग़ारत हो चुका था। मैंने केतली का पानी तबदील किया और बाहर निकल कर नौकर को आवाज़ दी। वो जब आया तो उस के हाथ में “अदाकार” का पर्चा था जिसके सर-ए-वरक़ पर मनोरमा की नीम बरहना तस्वीर छपी हुई थी। मैंने झिड़क कर पर्चा उसके हाथ से लिया। “जब देखो वाहियात पर्चे पढ़ रहा है... चाय का पानी उबल उबल कर तेल बन चुका है, उसका कुछ ख़याल ही नहीं... जाओ, पेस्ट्री ले कर आओ... मिंटा मिंटी में आना।” मैं ने पर्स में से एक पाँच का नोट उसको दिया और बावर्चीख़ाने में लोहे की कुर्सी पर बैठ कर “अदाकार” की तस्वीरें देखना शुरू कर दीं। तस्वीरें देख चुकने के बाद मैं सवाल जवाब पढ़ रही थी कि पेस्ट्री आ गई। “अदाकार” का पर्चा मेज़ पर रख कर मैंने सब दाने अलग अलग तश्तरियों में चुने और नौकर से ये कह कर वो दूध गर्म कर के जल्दी चाय ले आए, वापस बड़े कमरे में चली आई। जब अंदर दाख़िल हुई तो वो और उनके दोस्त क़रीब क़रीब ख़ामोश थे। मैं समझी, शायद उनकी गुफ़्तगू ख़त्म हो चुकी है लेकिन उल्ला साहब ने अपने मोटे मोटे शीशों वाली ऐनक उतार कर रुमाल से आँखें साफ़ कर के मेरी तरफ़ देखते हुए कहा, “भाबी जान से पूछना चाहिए, शायद वो इस पर कुछ रोशनी डाल सकें?” मैं कुर्सी पर बैठने वाली थी, ये सुन कर क़द्रे रुक गई। अब हबीब साहब मुझसे मुख़ातिब हुए, “तशरीफ़ रखिए!” मैं बैठ गई। मेरे शौहर अपनी जगह से उठे और बिल्कुल “इसको सेना पिरोना नहीं आता” के से अंदाज़ में अपने दोस्त उल्ला से कहा, “ये इस मुआ’मले पर कोई रोशनी नहीं डाल सकती।” “पूछना मुझे था।” हबीब साहब ने उनसे पूछा, “क्यूँ?” हस्ब-ए-आदत मेरे शौहर गोल कर गए, “बस!” फिर मुझसे मुख़ातिब हुए, “चाय कब आएगी?” मैंने मुस्कुरा कर जवाब दिया, “जब आप मुझसे रौशनी डालने के लिए कहेंगे।” उल्ला साहिब ने चश्मा नाक पर जमाया और थोड़ा सा मुस्कुराए, “बात ये है भाबी जान कि...वो हैं न आपकी... मेरा मतलब है...” हबीब साहब ने उनकी बात काट दी, “उल्ले, ख़ुदा की क़सम, तुम्हें अपना मतलब समझाने का सलीक़ा कभी नहीं आएगा।” ये कह कर वो मुझसे मुख़ातिब हुए, “आप ये फ़रमाइए कि आपका अपनी सहेली बिलक़ीस जहां के मुतअ’ल्लिक़ क्या ख़याल है?” सवाल बड़ा औंधा सा था। मैं जवाब सोचने लगी, “मैं आपका मतलब नहीं समझी।” उल्ला साहब ने हबीब साहब की पसलियों में अपनी कुहनी से एक ठोंका दिया, “भई वल्लाह, अपना मतलब वाज़ेह तौर पर समझाने का सलीक़ा एक फ़क़त तुम्हें ही आता है।” “ठहरो यार।” हबीब झुंझला गए। उन्होंने टाई की गिरह ठीक की और झुंझलाहट दूर करते हुए मुझ से कहा, “अभी अभी बिलक़ीस की बातें हो रही थीं। उर्दू के मौजूदा अदब में उस ख़ातून का जो रुत्बा है, मेरा मतलब है कि उनका एक ख़ास मुक़ाम है। अफ़सानानिगारी में अपने हम अ’सरों के मुक़ाबले में वो बहुत आगे हैं। जहां तक नफ़सियात के मुताले का तअ’ल्लुक़ है...” हबीब साहब जैसे ये कहने के लिए बेताब थे, “उनका मुताला बहुत गहरा है।” “ख़ास तौर पर मर्दों की जिन्सी नफ़्सियात का।” मेरे शौहर ने अपने मख़सूस अंदाज़ में कहा और मेरी तरफ़ मा’नी ख़ेज़ नज़रों से देखते हुए अपनी कुर्सी पर बैठ गए। हबीब ने मुझसे मुख़ातिब हो कर मेरे शौहर के अलफ़ाज़ दोहराए, “जी हाँ, खासतौर पर मर्दों की जिन्सी नफ़्सियात का।” और ये कहते हुए दो दफ़अ’तन महजूब से हो गए और आँखें नीची करलीं। मुझे उन पर कुछ तरस आया, चुनांचे मैंने ज़रा बेबाकी से कहा, “आप क्या पूछना चाहते हैं?” उल्ला साहिब ख़ामोश रहे। उनकी जगह हबीब बोले, “चूँकि आप बिलक़ीस साहिबा की सहेली हैं, इस लिए ज़ाहिर है कि आप उनको बहुत अच्छी तरह जानती हैं।” मैंने सिर्फ़ इतना कहा, “एक हद तक!” मेरे शौहर ने किसी क़दर बेचैन हो कर कहा, “बेकार है... बिल्कुल बेकार है... औरतें राज़ की बातें नहीं बताया करतीं, ख़ास तौर पर जब वो ख़ुद उनकी अपनी सिन्फ़ से मुतअ’ल्लिक़ हों।” फिर वो मुझसे मुख़ातिब हुए, “क्यों मोहतरमा, क्या मैं झूट कहता हूँ।” मेरा ख़याल है एक हद तक दुरुस्त कह रहे थे, लेकिन मैंने कोई जवाब न दिया। इतने में चाय आ गई और गुफ़्तगू थोड़े अ’र्से के लिए “चाय कितनी, दूध कितना, शकर कितने चम्मच” में तबदील हो गई। उल्ला साहब पांचवीं क्रीम रोल की क्रीम अपने होंटों पर से चूसते हुए फिर बिलक़ीस जहां की तरफ़ लौटे और बलंद आवाज़ में कहा, “कुछ भी हो, ये तय है कि ये मोहतरमा हम मर्दों की जिन्सी नफ़्सियात को ख़ूब समझती है।” उनका रू-ए-सुख़न हम सबकी तरफ़ कम और सारी दुनिया की तरफ़ ज़्यादा था। मैं उनका ये फ़ैसला सुन कर दिल ही दिल में मुस्कुराई, क्योंकि कमबख़्त बिलक़ीस, उल्ला साहब की जिन्सी नफ़्सियात ख़ूब समझती थी। उसने एक मर्तबा मुझसे कहा था, “भप्पो। अगर उल्ला साहब तुम्हारे शौहर नेक अख़्तर के दोस्त न होते तो ख़ुदा की क़सम मैं उन्हें ऐसे चक्कर देती कि सारी उम्र याद रखते... अव्वल दर्जे के रेशा-ख़त्मी इंसान हैं... स्ट्रीम लाइंड आशिक़।” मुझे मालूम नहीं बिलक़ीस ने उल्ला साहब के मुतअ’ल्लिक़ ये राय कैसे क़ायम की थी। मैंने उनकी तरफ़ ग़ौर से देखा। ऐनक के दबीज़ शीशों के पीछे उनकी आँखें गडमड सी हो रही थीं... स्ट्रीम लाइंड आशिक़ का कोई ख़त मुझे उनके चेहरे पर नज़र न आया। मैंने सोचा ऐसे मुआ’मले जांचने के लिए एक ख़ास क़िस्म की निगाह की ज़रूरत होती है जो क़ुदरत ने सिर्फ़ बिली ही को अता की थी। उल्ला साहब ने जब मुझे घूरते देखा तो सिटपिटा से गए। छटे क्रीम रोल की क्रीम बहुत बुरी तरह उनके होंटों से लुथड़ गई, “माफ़ कीजिएगा।” ये कह कर रुमाल से अपना मुँह पोछा, “क्या आपकी सहेली बिलक़ीस के बारे में मेरा ख़याल ग़लत है।” मैं ने अपने लिए दूसरा कप बनाना शुरू कर दिया, “मैं इस बारे में कुछ कह नहीं सकती।” मेरे शौहर एक दम उठ खड़े हुए और बिल्कुल “शलजम बिन जलाए तुम कभी नहीं पका सकतीं” के से अंदाज़ में कहा, “ये इस बारे में कभी कुछ कह नहीं सकेंगी।” मैंने ग़ैर इरादी तौर पर उनकी तरफ़ देखा। बिली की उनके बारे में ये राय थी कि बनते बनते बनने के फ़न में बड़ी महारत हासिल कर गए हैं। बेहद ख़ुश्क हैं और ये ख़ुश्की उन्होंने अपने वजूद में इधर उधर से मलबा डाल डाल कर पैदा की है। बज़ाहिर किसी औरत में दिलचस्पी ज़ाहिर नहीं करेंगे मगर हर औरत को एक बार चोर नज़र से ज़रूर देखेंगे। दफ़अ’तन उन्होंने मेरी तरफ़ चोर नज़र से देखा, मैं झेंप गई। उल्ला साहब अपने होंट तसल्ली बख़्श तौर पर साफ़ कर चुके थे। एक पेटिस उठा कर वो मेरे शौहर से मुख़ातिब हुए, “यार तुम्हारी बेगम साहिबा ने तो हमें बहुत बुरी तरह डिस अपॉइन्ट किया है।” हबीब साहिब चाय का आख़िरी घूँट पी कर बोले, “दुरुस्त है... लेकिन इस मुआ’मले में बीवी के बजाय ख़ाविंद किसी हद तक रहबरी कर सकता है।” उल्ला साहिब ने पूछा, “तुम्हारा मतलब है, बिलक़ीस साहिबा के बारे में?” “जी हाँ।” ये कह कर हबीब साहब उठे, मेरे शौहर के कंधे पर हाथ रखा और मेरी तरफ़ देख कर मुस्कुराए, “अपनी बेगम साहिबा के ज़रिये से आपको बिलक़ीस की अ’जीब-ओ-ग़रीब शख़्सियत के बारे में कुछ न कुछ तो ज़रूर मालूम हुआ होगा।” मेरे शौहर ने बड़ी संजीदगी के साथ जवाब दिया, “सिर्फ़ इसी क़दर कि इसका मुताला किताबी नहीं।” ये कह कर उन्होंने मुझसे पूछा, “क्यों सईदा?” मैंने ज़रा तवक्कुफ़ के बाद कहा, “जी हाँ, उसे किताबों के मुताले का इतना शौक़ नहीं!” मेरे शौहर ने एक दम सवाल किया, “तुम इसकी वजह बता सकती हो?” मुझे इसकी वजह मालूम नहीं थी, इसलिए मैंने अपनी मा’ज़ूरी ज़ाहिर कर दी, लेकिन मैं सोचने लगी कि जब बिलक़ीस का काम ही लिखना है, फिर उसे पढ़ने से लगाव क्यों नहीं... मुझे याद है, एक मर्तबा नुमाइश में घूमते हुए उसने मुझसे कहा था, “भप्पो, ये नुमाइश नहीं एक लाइब्रेरी है... ज़िंदा और मुतहर्रिक किताबों से भरी हुई...ग़ौर तो करो, कितने दिलचस्प किरदार चल फिर रहे हैं।” सोचते सोचते मुझे उसकी और बहुत सी बातें याद आ गईं। औरतों के मुक़ाबले में वो मर्दों से कहीं ज़्यादा तपाक से मिलती और बातें करती थी, लेकिन गुफ़्तगू का मौज़ू अदब, शाज़-ओ-नादिर ही होता था। मेरा ख़याल है कि अदबी ज़ौक़ रखने वाले मर्द उससे मिल कर यक़ीनी तौर पर इस नतीजे पर पहुंचते होंगे कि बहुत ग़ैर अदबी क़िस्म की औरत है, क्योंकि आम तौर पर वो गुफ़्तगू का रुख़ लिट्रेचर की तरफ़ आने ही नहीं देती थी, लेकिन इस के बावजूद उस से मुलाक़ात करने वाले बहुत ख़ुश ख़ुश जाते थे कि उन्हों ने इतनी बड़ी अदबी शख़्सियत के एक बिल्कुल नए और निराले पहलू की झलक देख ली है। जहां तक मैं समझती हूँ, बिली अपनी शख़्सियत के इस बज़ाहिर बिल्कुल नए और निराले पहलू की झलक ख़ुद दिखाती थी, ब-क़द्र-ए-ज़रूरत और वो भी सिर्फ़ अपने मुलाक़ातियों के किरदार की सही झलक देखने के लिए। मेरे साथ उसको अपना ये महबूब और मुजर्रिब नुस्ख़ा इस्तेमाल करने की ज़रूरत महसूस न हुई थी क्योंकि बक़ौल उसके “मैंने एक नज़र ही में ताड़ लिया था कि तुम बेहद सादा और चुग़द किस्म की लड़की हो।” मैं बेहद सादा और चुग़द किस्म की लड़की तो नहीं हूँ, लेकिन शायद बिली ने ये राय इसलिए क़ायम की थी कि मैंने उसकी बहस पसंद, ज़िद्दी और अड़ियल तबीयत के पेशे-ए-नज़र उससे राह-ओ-रस्म बढ़ाने से पहले ही अपने दिल में फ़ैसला कर लिया था कि मैं उसकी तबीयत के ख़िलाफ़ बिल्कुल न चलूंगी। ये वजह भी हो सकती है कि उसके बा’ज़ अफ़साने जो बड़े ठीट क़िस्म के जिन्सियाती या नफ़्सियाती होते थे, मेरी समझ से आम तौर पर ऊंचे ही रहते थे। वो अक्सर ऐसे अफ़सानों के मुतअ’ल्लिक़ पूछा करती थी, “कहो, भप्पो, तुमने मेरा फ़लाँ अफ़साना पढ़ा।” और फिर ख़ुद ही कहा करती थी, “पढ़ा तो ज़रूर होगा, मगर समझ में क्या आया होगा... ख़ाक... ख़ुदा की क़सम तुम बेहद सादा और चुग़द क़िस्म की लड़की हो!” मैं ये अफ़साने समझने की कोशिश ज़रूर करती, मगर मुझे इस बात से बड़ी उलझन होती कि बिली औरत होकर ऐसी गहराइयों में कूद जाती है, जिनमें उतरने से मर्द भी घबराएँ। मैंने कई दफ़ा उससे कहा, “तुम क्यूँ ऐसी बातें लिखती हो कि मर्द बैठ कर तुम्हारे मुतअ’ल्लिक़ तरह तरह की अफ़वाहें उड़ाते हैं।” मगर उसने हर बार जवाब कुछ इसी क़िस्म का दिया, “उड़ाने दो... मैं उन कीड़ों की क्या पर्वा करती हूँ, ऐसी दुर्गत बनाऊंगी कि याद रखेंगे!” वो कितने मर्दों की दुर्गत बना चुकी थी, इसका मुझे कोई इ’ल्म नहीं, लेकिन मेरठ के एक अधेड़ उम्र के शायर जो दो साल तक उसे इश्क़िया ख़त लिखते रहे थे और जिसे दो साल तक ये शह देती रही थी, अंजामकार सब कुछ भूल कर एक बहुत ही खु़फ़िया ख़त में उसको अपनी बेटी बनाने पर मजबूर हो गए थे। बल्कि यूँ कहिए कि मजबूर कर दिए गए थे। उसने मुझे उनका आख़िरी ख़त दिखाया था, ख़ुदा की क़सम मुझे बहुत तरस आया था बेचारे पर। उल्ला साहब दूसरा पेटिस ख़त्म कर चुके थे। हबीब साहब तफ़रीहन ख़ाली प्याली में चम्मच हिला रहे थे। मैं उठ कर चाय के बर्तन जमा करने लगी तो उल्ला साहब ने रस्मिया तौर पर कहा, “इतनी नफ़ीस चाय का बहुत बहुत शुक्रिया, मगर ये गिला आप से ज़रूर रहेगा कि आपने बिलक़ीस जहां साहिबा की जिन्सियात निगारी पर कोई रोशनी न डाली। मैं सच अ’र्ज़ करता हूँ कि बड़े बड़े माहिर-ए-जिन्सियात भी हैराँ हैं कि एक औरत में इतनी गहरी निगाह कहाँ से आ गई।” मैं कुछ कहने ही वाली थी कि टेलीफ़ोन की घंटी बजना शुरू हुई, मेरे शौहर ने रिसीवर उठाया, “हेलो, हेलो जी?... जी जी... आदाब अ’र्ज़, जी हाँ है।” ये कह कर उन्होंने मुझसे कहा, “तुम्हारा फ़ोन है।” फिर जैसे दफ़अ’तन याद आया हो, “बिली है!” उल्ला साहब, हबीब और मैं बैक वक़्त बोले, “बिलकीस!” मैंने बढ़ कर रिसीवर लिया। गो बिलक़ीस आँख से ओझल थी, मगर मुझे ऐसा महसूस हुआ कि वो जानती है कि उसके मुतअ’ल्लिक़ यहां बातें हो रही थीं... इस एहसास के बाइ’स मैं बौखला गई। जल्दी जल्दी में उससे चंद बातें कीं और रिसीवर रख दिया। उसने मुझे अपने यहां बुलाया था। महफ़िल जमी रही... मैं घर के काम काज से जल्दी जल्दी फ़ारिग़ हो कर बिली के हाँ रवाना हो गई। कोठी के बाहर बेशुमार अस्बाब अफ़रा-तफ़री के आलम में पड़ा था, इसलिए कि सफ़ेदी हो रही थी। वो अपने कमरे में थी, मगर उसका सामान भी दरहम-बरहम था। मैं एक कुर्सी साफ़ कर के उस पर बैठ गई, बिली ने इधर उधर देखा और मुझसे कहा, “मैं अभी आई।” चंद मिनट के बाद ही वो वापस आ गई और मुझसे कुछ दूर स्टूल पर बैठ गई। मैंने उससे कहा, “आज तुम्हारे मुतअ’ल्लिक़ बहुत बातें हो रही थीं!” “ओह!” उसने कोई दिलचस्पी ज़ाहिर न की। “उल्ला साहब भी थे।” “अच्छा!” “मैंने उन्हें बहुत ग़ौर से देखा, मगर मुझे उनमें स्ट्रीमलैंड आशिक़ के कोई आसार नज़र न आए।” बिली ने मुस्कुराने की नाकाम कोशिश की, फिर संजीदगी के साथ कहा, “मुझे तुमसे एक बात करना थी?” “क्या?” “कोई ऐसी ख़ास नहीं।” लेकिन उसके लहजे ने चुग़ली खाई कि बात बहुत ख़ास क़िस्म की है, चुनांचे मैंने फ़ौरन सोचा कि इस के लिए ख़ास बात सिर्फ़ एक ही हो सकती है। किसी मर्द के इश्क़ में गिरफ़्तार हो जाना, “आँख लड़ गई है किसी से?” बिलक़ीस ने मेरे इस सवाल का कोई जवाब न दिया... मैंने जब उसकी तरफ़ ग़ौर से देखा तो वो मुझे बहुत ही मुतरद्दिद नज़र आई, “बात क्या है, आज तुम में वो शगुफ़्तगी नहीं।” उसने फिर मुस्कुराने की नाकाम कोशिश की, “शगुफ़्तगी? नहीं तो, सफेदी हो रही है ना। सारी परेशानी इसी की है!” ये कह कर वो दाँतों से अपने नाख़ुन काटने लगी, मुझे ये देख कर बहुत तअ’ज्जुब हुआ। क्योंकि वो उसको बहुत ही मकरूह समझती थी। चंद लम्हात ख़ामोशी में गुज़र गए... मैं बेचैन हो रही थी कि वो जल्दी बात करे, लेकिन वो ख़ुदा मालूम किन ख़यालात में ग़र्क़ थी। बिल आख़िर मैंने तंग आकर उससे कहा, “क्या तुम मेरा नफ़्सियाती मुताला तो नहीं कर रही हो... आख़िर कुछ कहोगी या नहीं?” वो बड़बड़ाई, “नफ़्सियाती मुताला...” और उसकी आँखों से टप टप आँसू गिरने लगे। मैं अभी अपने तअ’ज्जुब का इज़हार भी न करने पाई थी कि वो उठकर तेज़ी से ग़ुस्लख़ाने में चली गई। बिली की सदा तमस्ख़ुर उड़ाने वाली आँखें और आँसू? मुझे यक़ीन नहीं आता था मगर उसका रोना निहायत कर्ब आलूद था और तो कुछ मेरी समझ में न आया। सीने के साथ लगा उसकी ढारस दी और कहा, “क्या बात है मेरी जान?” उसके आँसू और तेज़ी से बहने लगे, लेकिन थोड़ी देर बाद एक दम आँसू रुक गए। मुझसे दूर हट कर वो दरीचे के बाहर देखने लगी, “मैं जानती थी कि ये खेल ख़तरनाक है, लेकिन मैंने कोई परवाह न की... क्या दिलचस्प और मज़ेदार खेल था!” वो दीवानों की तरह हंसी, “बहुत ही मज़ेदार खेल... उनकी फ़ित्री कमज़ोरियों से फ़ायदा उठाया, चंद रोज़ बेवक़ूफ़ बनाया और एक अफ़साना लिख दिया। किसका अफ़साना है, बिलक़ीस जहां का... जिन्सी नफ़्सियात की माहिर का...” उसने फिर रोना शुरू कर दिया और मुझसे लिपट कर कहने लगी, “भप्पो... मेरी हालत क़ाबिल-ए-रहम है!” “क्या हुआ मेरी जान?” मुझसे दूर हट कर वो फिर दरीचे के बाहर देखने लगी, “बिलकीस जहां का ख़ातमा...कल इसी कमरे में उसका वजूद हमेशा हमेशा के लिए ख़त्म हो गया।” “कैसे?” “ये मुझसे न पूछो भप्पो।” ये कह कर वो मुझ से लिपट गई, “लेकिन नहीं... मैं तुमसे नहीं छुपा सकती... लो सुनो, चंद दिनों से मैं सफ़ेदी करने वाले मज़दूर का मुताला कर रही थी... कल शाम उसी वहशी ने अचानक...” बिलक़ीस ने धक्का दे कर मुझे बाहर निकाल दिया और ग़ुस्लख़ाने का दरवाज़ा बंद कर दिया। जब मैं घर पहुंची तो उल्ला साहब और हबीब साहब के इलावा और साहब भी मौजूद थे... बिलक़ीस जहां की हैरत-अंगेज़ जिन्सी नफ़्सियात निगारी गुफ़्तगू का मौज़ू था।