रियासत का दीवान

मिस्टर मेहता उन बद-नसीबों में से थे जो अपने आक़ा को ख़ुश नहीं रख सकते। वो दिल से अपना काम करते थे बड़ी यकसूई और ज़िम्मेदारी के साथ और ये भूल जाते थे कि वो काम के तो नौकर हैं ही अपने आक़ा के नौकर भी हैं। जब उनके दूसरे भाई दरबार में बैठे ख़ुश-गप्पियाँ करते वो दफ़्तर में बैठे काग़ज़ों से सर मारते और उसका नतीजा था कि जो आक़ा परवर थे उनकी तरक़्कियां होती थीं। इनाम-ओ-इकराम पाते थे और ये हज़रत जो फ़र्ज़ परवर थे, रांदा दरगाह समझे जाते थे और किसी न किसी इल्ज़ाम में निकाल लिए जाते थे, ज़िंदगी में तल्ख़ तजुर्बे उन्हें कई बार हुए थे। इसलिए जब अब की राजा साहिब सत्या ने अपने हाँ एक मुअज़्ज़ज़ ओह्दा दे दिया तो उन्होंने अह्द कर लिया था कि अब मैं भी आक़ा का रुख देखकर काम करूँगा और उनकी मिज़ाजदारी को अपना शिआर बनाऊँगा। लगन के साथ काम करने का फल पा चुका। अब ऐसी ग़लती न करूँगा। दो साल भी न गुज़रे थे कि राजा साहब ने उन्हें अपना दीवान बना लिया। एक मुख़्तार रियासत की दीवानी का क्या कहना। तनख़्वाह तो बहुत कम थी मगर इख़्तियारात ग़ैर महदूद। राजा साहब अपने सैर व शिकार और ऐश व नशात में मसरूफ़ रहते थे सारी ज़िम्मेदारी मिस्टर मेहता पर थी। रियासत के हुक्काम उनके सामने सर-ए-नियाज़ ख़म करते। रूसा नज़राने देते। तजार सज्दे बजा लाते। यहां तक कि रानियां भी उनकी ख़ुशामद करती थीं। राजा साहब भी बदमिज़ाज आदमी थे और बदज़बान भी कभी कभी सख़्त सुस्त कह बैठते। मगर मेहता ने अपना वतीरा बनालिया था। कि सफ़ाई या उज़्र में एक लफ़्ज़ भी मुँह से न निकालते। सब कुछ सर झुका कर सुन लेते। राजा साहब का गु़स्सा फ़रौ हो जाता।
गर्मियों के दिन थे पॉलिटिकल एजेंट का दौरा था, रियासत में उनके ख़ैरमक़्दम की तैयारियां हो रही थीं। राजा साहब ने मिस्टर मेहता को बुला कर कहा, "मैं चाहता हूँ कि साहब बहादुर यहां से मेरा कलमा पढ़ते हुए जाएं।"

मेहता ने सर उठा कर कहा, "कोशिश तो ऐसी ही कर रहा हूँ अन्नदाता।"
"मैं कोशिश नहीं चाहता, जिसमें नाकामी का पहलू भी शामिल है। क़तई वादा चाहता हूँ।"

"ऐसा ही होगा।"
"रुपये की परवाह मत कीजिए।"

"जो हुक्म।"
"किसी की फ़र्याद या शिकायत पर कान न दीजिए।"

"जो हुक्म।"
"रियासत में जो चीज़ है, वो रियासत की है, आप उसका बे-दरेग़ इस्तिमाल कर सकते हैं।"

"जो हुक्म।"
उधर तो पॉलिटिकल एजेंट की आमद थी इधर मिस्टर मेहता का लड़का जय कृष्ण गर्मियों की तातील में घर आया। इलाहाबाद यूनीवर्सिटी में पढ़ता था, एक-बार 1932 में कोई तक़रीर करने के जुर्म में छः महीने जेल हो आया था और तब से किसी क़दर ख़ुद सर हो गया था। मिस्टर मेहता के तक़र्रुर के बाद जब रियासत में वो पहली बार आया था तो राजा साहब ने बड़ी बे-तकल्लुफ़ी से बातें की थीं। उसे अपने साथ शिकार खेलने के लिए ले गए थे और रोज़ाना उसके साथ खेलते थे, जय कृष्ण राजा साहब के क़ौम परवराना ख़यालात से मुतास्सिर हुआ था। उसे मालूम हुआ था कि राजा साहब सच्चे मुहिब-ए-वतन ही नहीं इन्क़िलाब के हामियों में से हैं। रूस और फ़्रांस के इन्क़िलाब पर दोनों में ख़ूब मुबाहिसे हुए लेकिन अब की यहां उसने कुछ और ही रंग देखा, इलाक़े के हर एक काश्तकार और ज़मींदार से इस तक़रीब के लिए जबरन चंदा वसूल किया जा रहा है। रक़म का ताय्युन दीवान साहब करते। वसूल करना पुलिस का काम था। फ़र्याद और एहतिजाज की मुतलक़ सुनवाई न होती थी। हज़ारों मज़दूर सरकारी इमारतों की सफ़ाई सजावट और सड़कों की मरम्मत में बेगार थे, बनियों से रसद जमा की जा रही थी, सारी रियासत में वावेला मचा हुआ था, जय कृष्ण को हैरत हो रही थी कि ये क्या हो रहा है, राजा साहब के मिज़ाज में इतना तग़य्युर कैसे हो गया कहीं ऐसा तो नहीं है कि राजा साहब को इन ज़बरदस्तियों की ख़बर न हो और इन्होंने जिन तैयारियों का हुक्म दिया, हवास की तामील में कारपरदाज़ियों की जानिब से इस सरगर्मी का इज़हार किया जा रहा हो। रात भर तो उसने ज़ब्त किया और दूसरे दिन सुब्ह ही उसने दीवान साहिब से पूछा, "आपने राजा साहब को इन ज़्यादतियों की इत्तिला नहीं दी?"

मिस्टर मेहता रिआया परवर आदमी थे। उन्हें ख़ुद इन बे-उनवानियों से कोफ़्त हो रही थी। मगर हालात से मजबूर थे, बेकसाना अंदाज़ से बोले, "राजा साहब का यही हुक्म है तो क्या-किया जाये?"
"अब तो आपको ऐसी हालत में किनाराकश हो जाना चाहिए था। आप जानते हैं ये जो कुछ हो रहा है, इसकी ज़िम्मेदारी आपके ऊपर आइद हो रही है। रिआया आप ही को मुजरिम समझती है।"

"मैं मजबूर हूँ, मैंने अहलकारों से बार-बार किनायतन कहा है कि ज़रूरत से ज़्यादा सख़्ती न की जाये। लेकिन हर एक मौक़े पर मैं मौजूद तो नहीं रह सकता। अगर ज़्यादा मुदाख़िलत करूँ तो शायद अहलकार मेरी शिकायत राजा साहब से कर दें। अहलकार ऐसे ही मौक़ों के मुंतज़िर रहते हैं। उन्हें तो अवाम के लौटने का कोई बहाना चाहिए। जितना सरकारी ख़ज़ाने में दाख़िल करते हैं उस से ज़्यादा अपने घर में रखते हैं। मैं कुछ नहीं कर सकता।"
जय कृष्ण का चेहरा सुर्ख़ हो रहा था, "तो आप इस्तीफ़ा क्यों नहीं दे देते।"

मिस्टर मेहता हमदर्दाना लहजे में बोले, "बेशक मेरे लिए मुनासिब तो यही था लेकिन ज़िंदगी में इतने धक्के खा चुका हूँ कि अब बर्दाश्त की ताक़त नहीं रही। मैंने तय कर लिया है कि मुलाज़मत में ज़मीर को बेदाग़ नहीं रख सकता, नेक व बद-फ़र्ज़ और ईमानदारी के झमेलों में पड़कर मैंने बहुत से तल्ख़ तजुर्बात हासिल किए। मैंने देखा कि दुनिया दुनियादारों के लिए है जो मौक़ा-ओ-महल देखकर काम करते हैं। उसूल परस्तों के लिए दुनिया मुनासिब जगह नहीं है।"
जय कृष्ण ने पूछा, "मैं राजा साहब के पास जाऊं?"

मेहता ने इस सवाल का जवाब न देकर पूछा, "क्या तुम्हारा ख़याल है, राजा साहब को इन वाक़ियात का इल्म नहीं?"
"कम से कम उन पर हक़ीक़त तो रौशन हो जाएगी।"

"मुझे ख़ौफ़ है तुम्हारे मुँह से कोई ऐसा कलमा न निकल जाये जो महाराज की नाराज़गी का बाइस हो।"
जय कृष्ण ने उन्हें यक़ीन दिलाया कि इसकी जानिब से कोई ऐसी हरकत सरज़द न होगी मगर उसे क्या ख़बर थी कि आज के महाराज साहब वो नहीं हैं जो आज से एक साल क़ब्ल थे। मुम्किन है पॉलिटिकल एजेंट के रुख़्सत हो जाने के बाद हो जाएं। उनके लिए आज़ादी और इन्क़लाब की गुफ़्तगू भी इसी तरह तफ़रीह का बाइस थी जैसे क़त्ल और डाका की वारदातें या बाज़ार-ए-हुस्न की दिल-आवेज़ ख़बरें। इसलिए जब उसने महाराज की ख़िदमत में इत्तिला कराई तो मालूम हुआ कि उनकी तबीयत इस वक़्त नासाज़ है लेकिन वो लौट ही रहा था कि महाराज को ख़याल आया, शायद उससे फ़िल्मी दुनिया की ताज़ा ख़बरें मालूम हो जाएं। उसे बुला लिया और मुस्कराकर बोले, "तुम ख़ूब आए, भई कहो तुमने एम.सी.सी. का मैच देखा या नहीं। मैं तो उन परेशानियों में कुछ ऐसा गिरफ़्तार हुआ कि हिल न सका। अब तो यही दुआ कर रहां हूँ कि किसी तरह एजेंट साहब ख़ुश ख़ुश रुख़्सत हो जाएं। मैंने जो तक़रीर तैयार करवाई है वो ज़रा तुम भी देख लो। मैंने उन क़ौमी तहरीकों की ख़ूब ख़बर ली है और हरिजन तहरीक के भी छींटे उड़ा दिये हैं।"

जय कृष्ण ने एतिराज़ किया, "लेकिन हरिजन तहरीक से सरकार को भी इत्तिफ़ाक़ है इसीलिए उसने महात्माजी को रिहा कर दिया और जेल में भी उन्हें इस तहरीक के मुताल्लिक़ लिखने पढ़ने की कामिल आज़ादी दे रखी है।"
राजा साहब ने आज़िमन तबस्सुम के साथ कहा, "तुम इन रुमूज़ से वाक़िफ़ नहीं हो। ये भी सरकार की एक मस्लिहत है। दिल में गर्वनमेंट ख़ूब समझती है कि बिलआख़िर ये तहरीक भी क़ौम में हैजान पैदा करेगी और ऐसी तहरीकों से फ़ित्रतन कोई हमदर्दी नहीं हो सकती। सरकार इस कैफ़ियत को बड़े ग़ौर से देख रही है। लायलटी में जितनी सरगर्मी का इज़हार करो, चाहे वो हिमाक़त के दर्जा तक ही क्यों न पहुंच जाये सरकार कभी बुरा न मानेगी, इसी तरह जैसे शोअरा की मुबालग़ा आमेज़ मद्दह सराइयां हमारी ख़ुशी का बाइस होती हैं। चाहे उनमें तज़हीक का पहलू क्यों न हो हम उसे शायर समझें। अहमक़ भी समझ सकते हैं। मगर उनसे नाराज़ नहीं हो सकते। वो जितना भी मुबालग़ा करे, उतना ही हमारे क़रीब आजाता है।"

राजा साहब ने अपने ख़ुत्बे की एक ख़ूबसूरत कापी मेज़ की दराज़ से निकाल कर जय कृष्ण के हाथ में रख दी। मगर जय कृष्ण के लिए अब इस तक़रीर में कोई दिलचस्पी न थी। अगर वो मौक़ा-शनास होता तो ज़ाहिरदारी के लिए ही इस तक़रीर को बड़े ग़ौर से देखता, इस इबारत आराइयों की दाद देता, उसका मुवाज़ना महाराजा साहब बीकानेर या पटियाला की तक़रीरों से करता, मगर अभी वो उन कोचों से नाआशना था जिस चीज़ को बुरा समझता था उसे बुरा कहता था, जिस चीज़ को अच्छा उसे अच्छा। बुरे को अच्छा और अच्छे को बुरा कहना अभी उसे न आया था। उसने तक़रीर पर सरसरी निगाह डाली और मेज़ पर रख दिया और अपनी आज़ादी का बिगुल बजाते हुए बोला,
"मैं इन उक़दों को क्या समझूँगा। लेकिन मेरा ख़याल है कि हुक्काम पक्के नब्ज़ शनास होते हैं और तसन्नो से मुतलक़ मुतास्सिर नहीं होते। बल्कि इससे इन्सान उनकी नज़रों में और भी गिर जाता है। अगर पॉलिटिकल एजेंट को मालूम हो जाए कि उसके ख़ैरमक़्दम के लिए रिआया पर कितने ज़ुल्म किए जा रहे हैं तो शायद यहां से ख़ुश हो कर न जाएगा। फिर एजेंट की ख़ुशनूदी आपके लिए मुफ़ीद साबित हो सकती है रियाया को इस से नुक़्सान ही होगा।"

राजा साहब दीगर फ़र्रमारवाओं की तरह अपने से ज़्यादा ताक़तवरों के सामने तो इन्किसार के पुतले थे लेकिन कमज़ोरों की जानिब से नुक्ता-चीनी उन्हें मुतलक़ बर्दाश्त न थी। उनके ग़ुस्से की इब्तिदाई सूरत जिरह होती थी। फिर इस्तिदलाल का दर्जा आता था जो फ़ौरन तर्दीद की सूरत इख़्तियार कर लेता था। इस के बाद वो ज़लज़ले की हरकतों में नुमूदार होता। सुर्ख़ तिरछी आँखों से देखते हुए बोले,
"क्या नुक़्सान होगा? ज़रा सुनूँ।"

जय कृष्ण समझ गया कि गु़स्सा की मशीनगन गर्दिश में आगई, सँभल कर बोला, "इसे आप मुझसे ज़्यादा समझ सकते हैं।"
"नहीं मैं इतना ज़ूद फ़हम नहीं हूँ।"

"आप बुरा मान जाएंगे।"
"क्या तुम समझते हो कि मैं बारूद का ढेर हूँ।"

"बेहतर हो अगर आप मुझसे ये सवाल न करें।"
"तुम्हें बतलाना पड़ेगा..." और इज़्तिराबी तौर पर उनकी मुट्ठियाँ बंध गईं, "फ़ौरन उसी वक़्त।"

जय कृष्ण पर रोब क्यों तारी होने लगा। बोला, "आप अभी पॉलिटिकल एजेंट से डरते हैं। जब वो आपका मम्नून हो जाएगा तब आप मुतलक़-उल-अनान हो जाएंगे और रिआया की फ़र्याद सुनने वाला कोई न रहेगा।"
राजा साहब शोला-बार आँखों से ताकते हुए बोले, "मैं एजेंट का ग़ुलाम नहीं हूँ कि उससे डरूं। बिल्कुल कोई वजह नहीं है। मैं एजेंट की महज़ इसलिए ख़ातिर करता हूँ कि वो शहनशाह का क़ाइम मक़ाम है। मेरे और शहनशाह के दरमियान बिरादराना ताल्लुक़ात हैं। महज़ आईन-ए-सल्तनत की पाबंदी कर रहा हूँ। मैं विलाएत जाऊं तो इसी तरह हिज़ मेजिस्टी भी मेरी तवाज़ो-ओ-तकरीम करेंगे। मैं डरूं क्यों, मैं अपनी रियासत का ख़ुद-मुख़्तार राजा हूँ। जिसे चाहूँ फांसी दे सकता हूँ। मैं किसी से क्यों डरने लगा। डरना बुज़दिलों का काम है, मैं ख़ुदा से भी नहीं डरता। डर क्या चीज़ है। ये मैं आज तक न जान सका। मैं तुम्हारी तरह कॉलेज का ग़ैर ज़िम्मादार तालिब-इल्म नहीं हूँ कि इन्क़िलाब और आज़ादी की सदा लगाता फिरूँ। हालाँकि तुमने इन चीज़ों का महज़ अभी नाम सुना है। इसके ख़ूनी मनाज़िर आँखों से नहीं देखे। तुम ख़ुश होगे अगर मैं एजेंट से पंजा आज़माई करूँ। मैं इतना अहमक़ नहीं हूँ। अंधा नहीं हूँ। रिआया की हालत का मुझे तुमसे कहीं ज़्यादा इल्म है, मैं शादी व ग़म में उनका शरीक और हमदर्द रहा हूँ। उनसे जो मुहब्बत हो सकती है वो तुम्हें कभी नहीं हो सकती, तुम मेरी रिआया को इन्क़िलाब के ख़्वाब दिखा कर गुमराह नहीं कर सकते। तुम मेरी रियासत में फ़साद और शोरिश के बीज नहीं बो सकते। तुम्हें अपनी ज़बान पर ख़ामोशी की मुहर लगानी होगी।

आफ़ताब मग़रिब में डूब रहा था और उसकी किरनें महराब के रंगीन शीशों से गुज़र कर राजा के चेहरा को और ग़ज़बनाक बना रही थीं। उनके बाल नीले हो गए थे, आँखें ज़र्द थीं। चेहरा सुर्ख़ और जिस्म सब्ज़ हो गया मालूम होता था कि दूसरी दुनिया की हैबतनाक मख़्लूक़ है। जय कृष्ण की सारी इन्क़िलाब पसंदी ग़ायब हो गई। राजा साहब को इतने तैश में उसने कभी न देखा था लेकिन इसके साथ उसका मर्दाना वक़ार इस ललकार का जवाब देने के लिए बेताब हो रहा था। जैसे इल्म का जवाब इल्म है। वैसे ही गु़स्सा है। जब वो रोब, ख़ौफ़, लिहाज़ और अदब की बंदिशों को तोड़कर बदमस्त हो कर बाहर निकलता है फिर चाहे वो इस मदमस्ती में सर-निगूँ ही क्यों न हो जाए, उसने भी राजा साहब को मजरूह नज़रों से देखकर कहा,
"मैं अपनी आँखों से ये ज़ुल्म-ओ-सितम देखकर ख़ामोश नहीं रह सकता।"

राजा साहब ने दाँत पीस कर कहा, "तुम्हें बोलने का कोई हक़ नहीं है।"
"हर ज़ी-होश इन्सान को ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का हक़ है, आप मुझे इससे महरूम नहीं कर सकते।"

"मैं सब कुछ कर सकता हूँ। मैं तुम्हें अभी जेल में बंद कर सकता हूँ।"
"आपको उसका ख़मियाज़ा उठाना पड़ेगा। मैं आपकी रिआया नहीं हूँ।"

उसी वक़्त मिस्टर मेहता ने एक वहशत के आलम में कमरे में क़दम रखा और जय कृष्ण की तरफ़ क़हर की आँखों से देखकर बोले, "कृष्णा निकल जा यहां से ना ख़ल्फ़, तुझे ख़बर है तू किस से ज़बान दराज़ी कर रहा है। अभी मेरी नज़रों से दूर हो जा। एहसान फ़रामोश कहीं के, जिस थाल में खाता है उसी में सुराख़ करता है। दीवाना अगर अब ज़बान खोली तो मैं तेरा ख़ून पी जाऊँगा।"
जय कृष्ण एक लम्हा तक मेहता के ग़ज़बनाक चेहरे को हिक़ारत आमेज़ नज़रों से देखता रहा और तब फ़ातिहाना ग़ुरूर से अकड़ता हुआ दीवानख़ाने से निकल गया।

राजा साहब ने कोच पर लेट कर कहा, "चुग़द आदमी है। इंतिहा दर्जे का चुग़द। मैं नहीं चाहता कि ऐसा ख़तरनाक आदमी मेरी रियासत में एक लम्हा भी रहे। तुम उससे जा कर कह दो कि इसी वक़्त यहां से निकल जाये। वर्ना उसके हक़ में अच्छा न होगा, मैं ख़ुद सर की गोशमाली करना जानता हूँ। मैं महज़ आपकी मुरव्वत से इतना तहम्मुल कर गया। वर्ना इसी वक़्त उसकी फ़ित्ना अंगेज़ियों का ख़ातमा कर सकता था। आपको इसी वक़्त फ़ैसला करना होगा। यहां रहना है कि नहीं, अगर रहना मंज़ूर है तो तुलू-ए-सहर से क़ब्ल उसे मेरे क़लम रौ से बाहर निकल जाना चाहिए वर्ना आप हिरासत में होंगे और आपका माल व असबाब ज़ब्त कर लिया जाएगा।"
मिस्टर मेहता ने ख़तावाराना अंदाज़ से कह, "आज ही इरशाद की तामील करूँगा।"

राजा साहब ने आँखें निकाल कर कहा, "आज नहीं, इसी वक़्त।"
मेहता ने ज़िल्लत को निगल कर जवाब दिया, "इसी वक़्त निकाल दूँगा।"

राजा साहब बोले, "अच्छी बात है तशरीफ़ ले जाईए और आध घंटा के अंदर मुझे इत्तिला दीजिए।" मिस्टर मेहता घर चले तो उन्हें जय कृष्ण पर बे-इंतिहा तैश आ रहा था। अहमक़ चला है आज़ादी का राग अलापने। अब बच्चे को मालूम होगा ये राजे किस आब व गिल के बने होते हैं। मैं उस के पीछे दुनिया में रुस्वा व ज़लील नहीं हो सकता। वो ख़ुद अपने फ़ेल का ख़मियाज़ा उठाए। ये बेउन्वानियाँ मुझे बुरी लगती हैं। जब किसी बात का इलाज मेरे इमकान में नहीं तो उसी एक मुआमला के पीछे क्यों अपनी ज़िंदगी ख़राब कर दूं।
घर में क़दम रखते ही उन्होंने करख़्त लहजे में पुकारा, "जय कृष्ण।"

जय कृष्ण अभी तक घर न आया था। सुजाता ने कहा, "वो तो तुमसे पहले ही राजा साहब से मिलने गया था। तब से कब आया। बैठा गपशप कर रहा होगा।"
उसी वक़्त एक सिपाही ने एक रुक्क़ा लाकर उनके हाथ पर रख दिया। मेहता ने पढ़ा।

'इस ज़िल्लत के बाद मैं इस रियासत में एक लम्हा भी गवारा नहीं कर सकता, मैं जानता हूँ आपको अपना ओह्दा और एज़ाज़ अपने ज़मीर से ज़्यादा अज़ीज़ है। आप शौक़ से रहें। मैं फिर इस रियासत में क़दम न रखूँगा। अम्मां जी से मेरा परनाम कहियेगा।"
मिस्टर मेहता ने पुर्ज़ा बीवी के हाथ पर रख दिया और मायूसाना अंदाज़ से बोले, "इस लौंडे को न जाने कब अक़्ल आएगी। जाकर महाराजा साहब से उलझ पड़ा। वो तो ये कहो मैं पहुंच गया। वर्ना राजा उसी वक़्त उसे हिरासत में ले लेते। ये ख़ुद-मुख़्तार राजे हैं। उन्हें किसी का ख़ौफ़ नहीं। अंग्रेज़ी सरकार भी तो उन्हीं की सुनती है। मगर बहुत अच्छा हुआ बच्चे को सबक़ मिल गया। अब मालूम हो गया होगा कि दुनिया में किस तरह रहना चाहिए और अपने जज़्बात पर क़ाबू न रखने का क्या नतीजा होता है। मैं ये तमाशा बहुत देख चुका और इन ख़ुराफ़ात के पीछे अपनी ज़िंदगी नहीं बर्बाद करना चाहता।"

उसी वक़्त वो राजा साहब को इस वाक़िया की इत्तिला देने चले।
एक लम्हा में सारी रियासत में ये ख़बर मशहूर हो गई, जय कृष्ण अपनी ग़रीब दोस्ती के बाइस अवाम में बहुत मक़बूल था। लोग बाज़ारों में और चौरस्तों पर खड़े हो कर इस वाक़िया पर राय ज़नी करने लगे, "अजी वो आदमी नहीं था भाई मेरे, किसी देवता का अवतार समझो उसे। महाराजा साहब से जाकर बोला अभी बेगार बंद कीजिए। वर्ना शहर में आफ़त आजाएगी। राजा साहब की तो उसके सामने ज़बान बंद हो गई। साहब बग़लें झाँकने लगे। शेर है शेर और वो बेगार बंद कराके रहता। राजा साहब को भागने की राह न मिली। सुना है घिघयाने लगे थे। मगर इसी बीच में दीवान साहब ने जाकर उसके देस निकाले का हुक्म दे दिया। ये सुनकर आँखों में ख़ून इतराया लेकिन बाप की बे इज़्ज़ती कैसे करता।

ऐसे बाप को तो गोली मार देनी चाहिए। ये बाप है या दुश्मन।"
"वो कुछ भी है, है तो बाप ही।"

जय कृष्ण की माँ का नाम सुजाता था। बेटे की जिलावतनी उसके जिगर में बर्छियाँ चुभोने लगी। अभी तो जी खोल कर उससे बातें भी न करने पाई थी, सोचा था इस साल ब्याह रचाएँगे। चुन्नी मुन्नी बहू घर में आएगी। इधर न बिजली पड़ी, न जाने बेचारा कहाँ गया। रात को कहाँ सोएगा। उसके पास रुपये भी तो नहीं हैं, ग़रीब पांव-पांव भागता चला जाता था। दिल में ऐसा तूफ़ान उठा कि घर और शहर छोड़ छाड़ कर रियासत से निकल जाये। उन्हें अपना ओह्दा प्यारा है, लेकर रखें। वो अपने लख़्त-ए-जिगर के साथ फ़ाक़े करेगी। उसे आँखों से देखती रहेगी। लेकिन वो जाकर फ़र्याद करेगी। उन्हें भी ईश्वर ने बच्चे दिए हैं। माँ का दर्द भी माँ ही समझ सकती है, इससे पहले भी वो कई बार महारानी के क़दमबोस हो चुकी थी। फ़ौरन सवारी मँगवाई और महारानी के पास जा पहुंची।
महारानी के तेवर आज बदले हुए थे, मुँह लटका हुआ था। राजा साहब के अक़लीम दिल पर तूफ़ान का राज न थ। मगर वो वलीअह्द की माँ थीं। और ये ग़ुरूर उन्हें महाराजा से बेनियाज़ रखने के लिए काफ़ी था। बोलीं, "बहन तुम्हारा लड़का बड़ा बदज़बान है। ज़रा भी अदब नहीं। किससे किस तरह बात करनी चाहिए। इसका उसे ज़रा सलीक़ा भी नहीं। महाराज ने पहली बार ज़रा उसे मुँह लगाया तो अब की सर चढ़ गया, कहने लगा, बेगार बंद कर दीजिए। और एजेंट साहब के इस्तिक़बाल और मेहमानदारी की कोई तैयारी न कीजिए। इतनी समझ उसे नहीं है कि इस तरह हेकड़ी जता कर हम कै घंटे गद्दी पर रह सकते हैं। फिर ये ख़याल भी तो होना चाहिए कि एजेंट का रुत्बा क्या है। एजेंट बादशाह सलामत का क़ाइम मक़ाम है। उसकी ख़ातिर तवाज़ो करना हमारा फ़र्ज़ है। ये बेगार आख़िर किस काम आएँगे, इसी मौक़े के लिए रियासत से उनको जागीरें मुक़र्रर हैं। रिआया में ऐसी बग़ावत फैलाना कोई भले आदमी का काम है, जिस थाल में खाओ उसी में सुराख़ करो। महाराजा साहब ने दीवान साहब का लिहाज़ किया। वर्ना उसी वक़्त उसे हिरासत में डाल देते। वो अब कोई बच्चा नहीं है। ख़ासा जवान है। सब कुछ देखता और समझता है। सोचो! हाकिमों से बैर करें तो कितने दिन निबाह होगा। उसको क्या बिगड़ता है, सो-पच्चास की नौकरी पा ही जाएगा। यहां तो रियासत तबाह हो जाएगी।"

सुजाता ने आँचल फैला कर कहा, "महारानी बजा फ़रमाती हैं, मगर अब तो उसकी ख़ता-मुआफ़ कीजिए। बेचारा शर्म और ख़ौफ़ से घर नहीं गया न जाने किधर निकल गया, हमारी ज़िंदगी का यही एक सहारा है। महारानी हम दोनों रो-रो कर मर जाएंगे। आँचल फैला कर आपसे भीक माँगती हूँ। उसकी ख़ता-मुआफ़ कीजिए, माँ के दर्द को आपसे ज़्यादा कौन समझेगा। आप ही मेरे रंज का अंदाज़ा कर सकती हैं। आप महाराज से सिफ़ारिश कर दें तो...?"
महारानी ने बात काट कर कहा, "क्या कहती हो सुजाता देवी। महाराज से उसकी सिफ़ारिश करूँ। आसतीन में साँप पालूँ, तुम किस मुँह से ऐसी दरख़ास्त करती हो और महाराज मुझे क्या कहेंगे। मैं तो ऐसे लड़के का मुँह न देखती और तुम ऐसे कुपूत बेटे की सिफ़ारिश के लिए आई हो।"

"एक बदनसीब माँ क्या महारानी के दरबार से मायूस हो कर जाएगी?"
ये कहते कहते सुजाता की आँखें आबगूं हो गईं। महारानी का गु़स्सा कुछ ठंडा हुआ। मगर वो महाराजा के मिज़ाज से वाक़िफ़ थीं। इस वक़्त वो कोई सिफ़ारिश न सुनेंगे। इसलिए महारानी कोई वादा करके शर्मिंदगी की ज़िल्लत न उठाना चाहती थीं।

"मैं कुछ नहीं कर सकती सुजाता देवी।"
"सिफ़ारिश का एक लफ़्ज़ भी ज़बान से नहीं निकाल सकतीं।"

"मैं मजबूर हूँ।"
सुजाता आँखों में गु़स्से के आँसू लाकर बोली, "इस का मतलब ये है कि यहां मज़लूमों के लिए फ़र्याद की कोई जगह नहीं है।"

महारानी को रहम देर में आता था। गु़स्सा नाक पर रहता था गर्म हो कर बोलीं, "अगर तुमने सोचा था कि मैं तुम्हारे आँसू पोछूँगी तो तुमने ग़लती की थी जो क़ातिल हमारी जान लेने पर आमादा हो उसकी सिफ़ारिश ले के आना इसके अलावा और क्या कहना है कि तुम इस जुर्म को ख़फ़ीफ़ समझती हो। अगर तुमने उसकी हिम्मत का अंदाज़ा किया होता तो हरगिज़ मेरे पास न आतीं। जिसने रियासत का नमक खाया है वो रियासत के एक बद-ख़्वाह से हमदर्दी करे। ये ख़ुद बहुत बड़ा जुर्म है।"
सुजाता भी गर्म हुई, जज़्बा-ए-मादरी मस्लिहत पर ग़ालिब आगई, "राजा का काम महज़ अपने हुक्काम को ख़ुश करना नहीं रिआया पर्वरी की ज़िम्मेदारी भी उसके सर है, ये उसका मुक़द्दम फ़र्ज़ है।"

उसी वक़्त महाराज ने कमरे में क़दम रखा। रानी ने उठकर उनकी ताज़ीम की। सुजाता घूँघट निकाल कर सर झुकाए दम-ब-ख़ुद खड़ी रह गई। कहीं महाराजा साहब ने तो उसकी बात नहीं सुन ली।
राजा ने कहा, "ये कौन औरत तुम्हें राजों के फ़राइज़ की तालीम दे रही थी?"

रानी ने कहा, "ये दीवान साहब की बीवी हैं।"
राजा ने मज़हका उड़ाते हुए कहा, "जब माँ ऐसी ज़बान दराज़ है तो लड़का क्यों न गुस्ताख़ और बाग़ी हो। देवी जी मैं तुमसे ये तालीम नहीं लेना चाहता, बेहतर हो कि तुम किसी से ये तालीम हासिल करलो कि आक़ा की जानिब उसके नमक-ख़्वारों के क्या फ़राइज़ हैं और जो नमक-हराम है उनके सामने उसे कैसा बरताव करना चाहिए।"

राजा साहब तैश के आलम में बाहर चले गए, मिस्टर मेहता जा ही रहे थे कि राजा साहब ने तुंद लहजे में पुकारा, "सुनिए मिस्टर मेहता, आपके साहबज़ादे तो रुख़्सत हो गए लेकिन मुझे अभी मालूम हुआ है कि ग़द्दारी के मैदान में आपकी देवी जी उनसे भी दो क़दम आगे हैं बल्कि मैं तो महज़ कहूँगा कि वो रिकार्ड है जिसमें देवी की आवाज़ बोल रही है, मैं नहीं चाहता कि जो शख़्स रियासत की ज़िम्मेदारियों का मर्कज़ है उसके साये में रियासत के ऐसे बदख़्वाहों को पनाह मिले। आप ख़ुद इस ज़िम्मेदारी से बरी नहीं हो सकते। ये हरगिज़ बे-इंसाफ़ी न होगी। अगर मैं ये ख़याल करलूं कि आपकी चश्मपोशी ने ही ये हालात पैदा किए हैं, मैं ये ख़याल करने में हक़-ए-ब-जानिब हूँ कि आपने सरीहन नहीं तो किनायतन इन ख़यालात की तहरीक की है।"
मिस्टर मेहता अपनी ज़िम्मेदारी और आक़ा पर्वरी पर ये हमला बर्दाश्त न कर सके। फ़ौरन मर्दाना तर्दीद की कि "मैं किस ज़बान से कहूं कि इस मुआमले में हुज़ूर बे-इंसाफ़ी कर रहे हैं लेकिन मैं बेक़ुसूर हूँ और मुझे ये देखकर मलाल होता है कि मेरी वफ़ादारी पर यूं शुब्हा किया जावे।"

महाराज ने तहक्कुमाना लहजे में कहा, "इसके लिए सुबूत की ज़रूरत है, दीवान साहब।"
"क्या अभी सुबूत की ज़रूरत है? मेरा ख़याल है मैं सुबूत दे चुका।"

"नहीं नये इन्किशाफ़ात के लिए नए सुबूत की ज़रूरत है। मैं चाहता हूँ कि आप अपनी देवी जी को हमेशा के लिए रियासत से रुख़्सत कर दें। मैं इसमें किसी तरह का उज़्र नहीं सुनना चाहता।"
"लेकिन महाराज..."

"मैं एक हर्फ़ नहीं सुनना चाहता।"
"मैं कुछ अर्ज़ नहीं कर सकता?"

"एक लफ़्ज़ भी नहीं।"
मिस्टर मेहता यहां से चले तो उन्हें सुजाता पर बेहद गु़स्सा आरहा था। सब के दिमाग़ में न जाने क्यों ये ख़ब्त समा गया है जय कृष्ण तो ख़ैर लड़का है आज़मूदाकार इस बुढ़िया को क्या हिमाक़त सूझी। न जाने रानी से क्या-क्या कह आई, मेरे ही घर में किसी को मुझसे हमदर्दी नहीं। सब अपनी अपनी धुन में मस्त हैं किस मुसीबत से मैं अपनी ज़िंदगी के दिन काट रहा हूँ। ये कोई नहीं सोचता कितनी परेशानियों और नाकामियों के बाद ज़रा इत्मिनान से सांस लेने पाया था कि इन सबने ये नई मुसीबत खड़ी कर दी, हक़ और इन्साफ़ का ठेका क्या हमने ले लिया है, यहां भी वही है जो सारी दुनिया में ग़रीब और कमज़ोर होना जुर्म है। इसकी सज़ा से कोई नहीं बच सकता। बाज़ कबूतर पर कभी रहम नहीं करता। हक़ और इन्साफ़ की हिमायत इन्सान की शराफ़त का जुज़्व है, बेशक इससे कोई इनकार नहीं कर सकता लेकिन जिस तरह और सब लोग सिर्फ़ ज़बान से इसकी हिमायत करते हैं क्या उसी तरह हम भी नहीं कर सकते और जिन लोगों की हिमायत की जाये उनकी निगाह में कुछ इस हिमायत की क़दर भी तो हो, आज राजा इन्हीं मज़लूम मज़दूरों से ज़रा हंस कर बातें करलें तो ये लोग सारी शिकायतें भूल जाएं और हमारी ही ग़र्दनकुशी पर आमादा हो जाएंगे। सुजाता की भवें चढ़ी हुई थीं। ज़रूर उसने महारानी साहिबा से बदज़बानी की होगी। ख़ूब अपने दिल का ग़ुबार निकाला होगा। ये ना समझीं कि दुनिया में किस तरह इज़्ज़त और आबरू के साथ बैठा जाये। इसके सिवा और हमें क्या चाहिए। अगर तक़दीर में नेक-नामी लिखी होती तो इस तरह दूसरों की गु़लामी क्यों करता? लेकिन सवाल ये है कि उस को भेजूँ कहाँ? मैके में कोई नहीं है मेरे घर में कोई नहीं। उंह अब मैं उस की कहाँ तक फ़िक्र करूँ। जहां जी चाहे जाये।

वो इस ग़म-ओ-गु़स्से की हालत में घर में दाख़िल हुए, सुजाता अभी अभी आई थी कि मेहता ने पहुंच कर दिल-शिकन अंदाज़ से कहा, "आख़िर तुम्हें भी वही हिमाक़त सूझी जो उस लौंडे को सूझी थी। मैं कहता हूँ आख़िर तुम लोगों को अक़ल कभी... आएगी या नहीं, सारी दुनिया की इस्लाह का बीड़ा हम ही ने उठाया है? कौन राजा है जो अपनी रिआया पर ज़ुल्म न करता हो? उनके हुक़ूक़ न पामाल करता हो। राजा ही क्यों? हम तुम दूसरों के हुक़ूक़ पर दस्त अंदाज़ी कर रहे हैं। तुम्हें क्या हक़ है कि तुम दर्जनों ख़िदमतगार रखो और उन्हें ज़रा ज़रा से क़ुसूर पर सज़ाएं दो। हक़ और इन्साफ़ मुहमल लफ़्ज़ हैं जिनका मस्रफ़ इस के सिवा और कुछ नहीं कि चंद अक़ल मंदों को शहादत का दर्जा मिले और बहुत से अहमक़ों को ज़िल्लत-ओ-रुस्वाई का। तुम अपने साथ दबाए देती हो। हालाँ कि मैं तुमसे बार-बार कह चुका हूँ कि मैं अपनी ज़िंदगी में महाराजा से परख़ाश न करूँगा। हक़ की हिमायत करके देख लिया। पशेमानी और बर्बादी के सिवा कुछ हाथ न आया। मैं साफ़ कहता हूँ कि मैं तुम्हारी हिमाक़तों का ख़मियाज़ा उठाने के लिए तैयार नहीं हूँ।"
सुजाता ने ख़ुद्दारी की शान से कहा, "मैं यहां से चली जाऊं यही तो तुम्हारा मंशा है, मैं बड़ी ख़ुशी से जाने के लिए तैयार हूँ। मैं ऐसे ज़ालिम की अमलदारी में पानी पीना भी गुनाह समझती हूँ।"

"इसके सिवा मुझे और कोई सूरत नज़र नहीं आई। मैं पोशीदा तौर पर तुम्हारे अख़राजात के लिए रुपया भेजता रहूँगा।"
"नहीं मुझे तुम्हारे रूपों की ज़रूरत नहीं है, तुम अपने रुपये जमा करना और बैंक का एकाउंट देख देख कर ख़ुश होना। कौन जाने कहीं राज़ फ़ाश हो जाएगी तो आक़ाए नामदार का क़हर तुम्हारे ऊपर नाज़िल हो जाएगी। मेरा लड़का और कुछ न कर सकेगा तो शाम तक नमक रोटी ले ही आएगा। मैं उसी में ख़ुश हूँगी, मैं भी देखूँगी कि तुम्हारी आक़ा पर्वरी कब तक निभती है और तुम कहाँ तक अपने ज़मीर का ख़ून करते हो।"

मेहता ने हाथ मलकर कहा, "तुम क्या चाहती हो कि फिर उसी तरह चारों तरफ़ ठोकरें खाता फिरूँ?"
सुजाता ने तंज़ के साथ कहा, "हरगिज़ नहीं, अब तक मेरा ख़याल था कि ओहदे और रुपये से अज़ीज़तर भी तुम्हारे पास कोई चीज़ है। जिसके लिए तुम ठोकरें खाना अच्छा समझते हो। अब मालूम हुआ तुम्हें ओहदा और मुरव्वत अपने ज़मीर से भी ज़्यादा अज़ीज़ है। फिर क्यों ठोकरें खाओ। कभी कभी अपनी ख़ैरियत का ख़त भेजते रहना या उसके लिए भी राजा साहब की इजाज़त लेनी पड़ेगी।"

मेहता ने आक़ा पर्वरी के जोश में कहा, "साहब इतने ज़ालिम नहीं हैं कि मेरे जायज़ हक़ में दस्त अंदाज़ी करें।"
"अच्छा राजा साहब में इतनी इन्सानियत है, मुझे तो एतिबार नहीं आता।"

"तुमने कहाँ जाने का इरादा किया है।"
"जहन्नुम में।"

जिस वक़्त सुजाता घर से रुख़्सत होने लगी तो मियां-बीवी दोनों ख़ूब रोये और एक तरह से सुजाता ने अपनी ग़लती तस्लीम करली कि वाक़ई इस बेकारी के ज़माने में मेहता का यही तर्ज़-ए-अमल मुनासिब था। सचमुच बेचारे कहाँ कहाँ मारे मारे फिरें।
इस तरह शौहर से अलैहदा होने से उसे रुहानी सदमा हो रहा था और अगर मेहता ने झूटों इसरार कर लिया होता तो वो घर से बाहर पांव न निकालती। मगर उधर राजा साहब पल पल भर बाद दरियाफ़्त कर रहे थे कि देवी जी गईं या नहीं? और अब क़दम पीछे हटाने के लिए कोई बहाना न था।

पॉलिटिकल एजेंट साहब तशरीफ़ लाए ख़ूब दावतें खाईं। ख़ूब शिकार खेले और ख़ूब सैरें कीं। महाराजा साहब ने उनकी तारीफ़ की। उन्होंने महाराजा साहब की तारीफ़ की और उनके इन्साफ़ और रिआया पर्वरी और तंज़ीम की ख़ूब दिल खोल कर दाद दी। मिस्टर मेहता की कार-गुज़ारी ने भी तहसीन का ख़िराज वसूल किया। ऐसा वफ़ाशिआर और कारगुज़ार अफ़्सर इस रियासत में कभी नहीं आया था। एजेंट साहब ने एक घड़ी उन्हें इनाम में दी।
अब राजा साहब को कम अज़ कम तीन साल के लिए फ़राग़त थी। एजेंट उनसे ख़ुश था। अब किस बात का ग़म और किस का ख़ौफ़, अय्याशी का दौर दौरा इन्हिमाक के साथ शुरू हुआ। नित-नए हसीनों की बहम रसानी के लिए खु़फ़िया ख़बर रसानी का एक मोहकमा क़ायम किया गया और उसे ज़नाना तालीम का नाम दिया गया। नई नई चिड़ियां आने लगीं। कहीं तख़्वीफ़ काम करती थीं कहीं तहरीस और कहीं तालीफ़ लेकिन ऐसा मौक़ा भी आया जब इस तस्लीफ़ की सारी इन्फ़िरादी और इज्तिमाई कोशिशें नाकाम हुईं और खु़फ़िया महकमे ने फ़ैसला किया कि इस नाज़नीन को उसके घर से बाजब्र उठा लाया जाये और इस ख़िदमत के लिए मेहता साहब का इंतिख़ाब हुआ जिससे ज़्यादा जांनिसार ख़ादिम रियासत में दूसरा न था, उनकी जानिब से महाराजा साहब को कामिल इत्मिनान था। कमतर दर्जे के अहलकार मुम्किन है रिश्वत लेकर शिकार छोड़ दें... या इफ़्शा राज़ कर बैठें या अमानत में ख़ियानत। मिस्टर मेहता की जानिब से किसी क़िस्म की बे उनवानी का अंदेशा न था। रात को नौ बजे चोबदार ने उनको इत्तिला दी।

"अन्नदाता ने याद किया है।"
मेहता साहब जब डेयुढ़ी पर पहुंचे तो राजा साहब बाग़ीचे में चहलक़दमी कर रहे थे। मेहता को देखते ही बोले,

"आईए मिस्टर मेहता, आपसे अहम मुआमले में मश्वरा लेना है। कुछ लोगों की राय है कि आपका मुजस्समा इस बाग़ के वस्त में नस्ब किया जाये जिससे आपकी यादगार हमेशा क़ायम रहे। आपको ग़ालिबन इसमें कोई एतिराज़ न होगा।"
मेहता ने बड़े इन्किसार के साथ कहा, "ये अन्नदाता की ग़ुलाम नवाज़ी है, मैं तो एक ज़रा नाचीज़ हूँ।"

"मैंने लोगों से कह दिया है कि इस के लिए फ़ंड जमा करें। एजेंट साहब ने अब की जो ख़त लिखा है उसमें आपको ख़ासतौर से लिखा है।"
"ये उनकी ग़रीब परर्वरी है। मैं तो अदना ख़ादिम हूँ।"

राजा साहब ए

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