शाम दबे-पाँव रेंग रही थी। टीले पर दरख़्तों के साये फैलते जा रहे थे लेकिन चोटी की झोली सूरज की थकी माँदी किरनों से अभी तक भरी हुई थी- स्वामी जी की कुटिया का दरवाज़ा सुबह से बंद था। बालका और दास दोनों दरख़्तों की छाँव तले बैठे अपने अपने काम में मसरूफ़ थे। हर-चंद साअत बाद वो सर उठा कर स्वामी जी की कुटिया के दरवाज़े की तरफ़ उम्मीद भरी निगाहों से देखते कि कब दरवाज़ा खुले और दर्शन के भाग जागें लेकिन दरवाज़ा नहीं खुला था। सुबह दास ने थाली में भोजन परोस कर स्वामी जी के दरवाज़े पर रख दिया लेकिन अब तक थाली जूं की तूं धरी थी। न दरवाज़ा खुला, न स्वामी जी ने भोजन उठाया। अब वो रात के भोजन की तैयारी में लगा हुआ था। पास ही बालका मंझ के बने हुए जूते की मरम्मत कर रहा था। दूर टीले के मग़रिबी कोने के परे शहर के मकानात साफ़ दिखाई दे रहे थे। जैसे माचिस की रोग़नी डिबियां नीचे ऊपर धरी हों। शहर के लू भी भंवरे की मद्धम भिन भिन साफ़ सुनाई दे रही थी। दफ़अतन उसके मुँह से एक चीख़ सी निकली। 'हे राम' और चाक़ू उसके हाथ से गिर गया। "हाथ कट गया था?" बालके ने सर उठा कर पूछा। "नाहीँ महाराज, वो देखो... उधर।" बालके ने इधर देखा। उसकी आँखें खुली की खुली रह गईं। टीले के मग़रिबी किनारे पर दो लड़कियां उनकी तरफ़ आ रही थीं। चुस्त लिबास पहने, बाल फैलाए, मुख सजाये, पर्स झुलाती हुई। यूं जैसे वो स्वामी जी का आश्रम नहीं बल्कि पिकनिक स्पाट हो। "ये तो कॉलेज की दिखती हैं महाराज।" दास ने कहा। "आजकल तो सभी कॉलेज की दिखती हैं।" बालके ने जवाब दिया। "क्या माता की पुत्री..." बालका उठकर खड़ा हो गया और घबराहट में टहलने लगा। दास छिले हुए आलूओं को फिर से छीलने में लग गया। टीले पर घबराहट भरी ख़ामोशी के ढेर लग गए। वक़्त थम गया। फिर एक लोचदार आवाज़ ने तितली की तरह पर फड़फड़ाये। "हमें स्वामी जी से मिलना है।" बालके ने सर उठाया। शीला और बिमला की कटोरा सी आँखें देखकर बालके ने घबरा कर सर झुका लिया और बोला, "स्वामी जी की कुटीया के द्वार के पट कल से बंद हैं देवी। उन्होंने सुबह का भोजन भी नहीं उठाया।" "तो द्वार के फट खोल दो।" शीला बोली। "हमें इसकी आज्ञा नहीं देवी।" "स्वामी जी को भी तो द्वार बंद करने की आज्ञा नहीं।" बिमला ग़ुस्से में चिल्लाई, "अगर परमात्मा का द्वार भी बंद हो गया तो मंगतों का क्या होगा?" ये सुनकर बालके के हाथ पांव फूल गए। सुध-बुध मारी गई। अब क्या जवाब दे। कोई हो तो दे। टीले पर ख़ामोशी तारी हो गई। फिर दास उठा। उसने लपक कर चटाई उठाई और कन्याओं के सामने बिछा कर नीची निगाहों से बोला, "बैठो श्रीमती बैठो।" "हमारे पास बैठने का टाइम नहीं।" शीला ने कहा। "स्वामी जी से कोई मांग करना है या पूछना है?" दास ने पूछा। "मांग भी, पूछना भी।" शीला ने कहा। "हम तुम्हारा सन्सदे पहुंचा देंगे देवी।" बालका बोला। "उंह।" शीला ने तेवरी चढ़ा कर कहा," हम ख़ुद स्वामी जी से बात करेंगे।" "पर देवी जी! स्वामी जी स्त्रियों से नहीं मिलते।" बालके ने कहा। "क्या कहा?" शीला और बिमला दोनों चिल्लाईं। "क्या वो पुरुष-स्त्री को बराबर नहीं जानते?" शीला ने तल्ख़ी से कहा। बालके ने सर लटका लिया और चुप साध ली। अब वो क्या कहे, क्या जवाब दे। टीले पर ख़ामोशी छा गई, गहरी लंबी ख़ामोशी। आख़िर शीला ज़ेर-ए-लब बोली, जैसे ख़ुद से कह रही हो। उसकी आवाज़ में मायूसी की झलक थी, "बेकार है बिमला।" "स्त्री के लिए परमात्मा का द्वार भी बंद है। यहां भी अंधेर नगरी है। ये देश भी पुरुष का देश निकला।" बिमला का चेहरा ग़ुस्से से सुर्ख़ हो गया। वो चिल्ला कर बोली, "स्वामी जी पुरुष से मिलते हैं, स्त्री से नहीं, क्या स्वामी जी स्त्री से डरते हैं।" बालके ने जवाब दिया, "स्त्री से स्वामी जी नहीं, उनके अंदर का पुरुष डरता है और पुरुष स्त्री से नहीं, ख़ुद से डरता है। उस में इतनी शक्ति नहीं देवी कि वो अंदर के मर्द को रोक में रख सके।" ये सुनकर दोनों कन्याएं सोच में पड़ गईं। इस सहमे दास ने दो प्याले चाय की थाली में धरे और कन्याओं के सामने रखकर बोला, "देवी चाय पियो। तुम थक गई होगी। बड़ी कठिन चढ़ाई है इस टीले की।" "बीबी ये तो हमारा अंदर का खोट है।" बालके ने कहा, "कि स्त्री से बचने के लिए हम उसे देवी बना देते हैं।" "तुम्हारे अंदर भी खोट है क्या? तुम जो दिन रात राम नाम की धुनकी से दिल को पवित्र करने में वक़्त गुज़ारते हो।" बिमला ने पूछा। "देवी।" बालका बोला, "मन का खोट कुवें के पानी की तरह होता है। जितना निकालो, इतना ही भीतर से रिस कर बाहर आ जाता है।" ये सुनकर वो दोनों चुप हो गईं। दफ़अतन उन्होंने महसूस किया कि वो बहुत थक गई हैं। इसलिए चटाई पर बैठ कर चाय पीने लगीं। "हाँ !" शीला सोच में गुम बड़ बड़ाई, "मेरे पति ने भी मुझे देवी बना रखा था। इतना प्यार करता था कि वो पूजा लगती थी। मैं कहती, प्रकाश मुझे देवी न बनाओ। मुतरन्नुम बनाओ, साथी जानो, बराबर का साथी..." "उंह।" बिमला ने आह भरी, "वो बराबर का नहीं जानते। साथी नहीं मानते या तो देवी बना कर पूजा करते हैं और या बांदी समझ कर हुक्म चलाते हैं।" "ऐसा क्यों है बालका जी?" बिमला ने पूछा। "क्या स्वामी जी से यही पूछने आई हो देवी?" बालके ने कहा। "हाँ !" शीला बोली, "जब पुरुष और स्त्री एक गाड़ी के दो पाए हैं तो फिर बड़ा छोटा क्यों?" "सच कहती हो श्रीमती... सच कहती हो।" बालके ने आह भरी, ये तो स्त्री की जन्म जन्म की पुकार है। उस दिन से स्त्री बराबर की भीक माँगती फिरे है जिस दिन रानी विजयवंती ने राज पाट को त्याग कर बराबरी के खोज में राज भवन से पांव बाहर धरा था। ये कह कर बालका चुप हो गया। "विजयवंती कौन थे बालके जी?" बिमला ने पूछा। "तुम्हें नहीं पता क्या?" बालका बोला, "आज भी राज गढ़ी की ढेरी में आधी रात के वक़्त रानी विजयवंती की आवाज़ें सुनाई देती हैं।" "आज भी...?" बिमला ने पूछा। "हाँ आज भी, उसकी ढूंढ आज भी जारी है।" ये सुनकर शीला-बिमला को चुप लग गई। साये और भी लंबे हो गए। दरख़्तों की टहनियां एक दूसरे से लिपट लिपट कर रोने लगीं। सूरज के लहू ने रिस रिस कर बादलों को रंग दिया। वक़्त रुक गया। फिर शीला की मद्धम आवाज़ आई, "बालका जी, विजयवंती कौन थी?" और फिर बालके ने विजयवंती की कहानी सुनानी शुरू की। बालका बोला, "विजयवंती राज गढ़ी के महाराज मात्री राज की रानी थी। महाराज का सिंघासन उसके चरणों में धरा था। महाराज उसे आँखों पर बिठाते। वारे न्यारे जाते... उसकी कोई बात न टालते, उल्टा पल्ले बांध लेते। उन्हें विजय सब रानियों से प्यारी थी। कैसे न होती, सुंदरता में वो सबसे उत्तम थी। सिर्फ़ नाक नक़्शा ही नहीं, उसकी चाल-ढाल, रंग-रूप सुभाव सभी कुछ सुंदरता में भीगा हुआ था। पलकें उठाती तो दिए जल जाते। होंट खोलती तो फूल खिल उठते। बांह हिलाती तो नाग झूलते। भरपूर नजर से देखती तो रंग पिचकारी भिगो कर रख देती। महारानी राज भवन में बड़े आनंद से जीवन गुजार रही थी।" बालका रुक गया। फिर कुछ देर बाद बोला, "फिर एक रोज़ आधी रात के समय महारानी का द्वार बजा, वो समझी, महाराज आए हैं। उठकर दरवाज़ा खोला तो क्या देखती है कि महाराज नहीं एक बूढ़ी खूसट स्त्री खड़ी है।" "कौन है तू?" वो ग़ुस्से से चिल्लाई। उसकी आवाज़ सुनकर महारानी की बांदी शोषी जाग उठी और दौड़ कर दरवाज़े पर आ गई। उसकी इतनी जान कि आधी रात को महारानी का दरवाज़ा खटखटाए। रानी ने शोषी से कहा, "कौन है तू?" शोषी बुढ़िया की तरफ़ झपटी। "मैं शिव बाला हूँ।" बुढ़िया ने जवाब दिया, "मेरा दारू खत्म हो गया है। दारू बिना मेरी रात नहीं कटेगी। मैंने सोचा कि रानी के आगे झोली फैलाऊँ। जो कृपा करें तो मेरी रात कट जाये।" "तू स्त्री हो के दारू पीती है।" रानी ने घुन खा कर झुरझुरी ली। "न महारानी, जो मैं स्त्री होती तो दारू पीने की क्या ज़रूरत थी। जब मैं स्त्री थी तो दारू पीती नहीं थी। पिलाया करती थी। लेकिन अब... अब मैं वो दिन भूलने के लिए दारू पीती हूँ।" "ये क्या बोल रही है शोषी?" विजय ने कहा, "कहती है, मैं स्त्री नहीं।" शिव बाला बोली,"स्त्री एक सुगन्द होती है जो कुछ दिनां रहती है, फिर उड़ जाती है और फिर फूल की जगों डंठल रह जाता है।" "तू राज भवन की बांदी है क्या?" शोषी ने पूछा। "नहीं," शिव बाला ने कहा, "मैं बांदी नहीं हूँ। आज से तीस वर्ष पहले मैं भी इसी रंग भवन में रहती थी। इसी दिलाँ में जिसमें तू रहती है। इसी सेज पर सोती थी। जब महाराज मात्री राज के पिता राज-सिंघासन पर बिराजमान थे। महाराज मुझे आँखों पर बिठाते थे। जैसे तुझे बिठाते हैं। बात मुँह से निकलती तो पूरी हो जाती। ये सौ चोंचले सुंदरता के कारन थे। जैसे आज तेरे चाव-चोंचले हैं। फिर एक दिन आएगा जब तू भी उन दिनों को भूलने के लिए दारू का सहारा लेगी।" ये सुनकर विजय का दिल धक से रह गया। वो सोच में पड़ गई। "तो क्या ये सारी चाननी रूप की है? मैं कुछ भी नहीं?" "कुछ भी नहीं।" शिव बाला ने जवाब दिया, "जब तक दुकान सजी है। ग्राहकों की भीड़ है। जब दुकान लुट जाये तो स्त्री को कौन जाने है महारानी।" "तू बकती है, सब झूटी है।" विजय ने चीख़ कर कहा, "ऐसा नहीं हो सकता, नहीं हो सकता।" बालका रुक गया। दास ने चौंक कर देखा। तो पड़ा हुआ फल जल कर काला हो गया था। बिमला सर झुकाए चटाई को कुरेद रही थी। शीला की निगाहें चलते बादलों पर टिकी हुई थीं। "फिर क्या हुआ बालक महाराज?" दास की आवाज़ सुनकर वो सब चौंक पड़े, बालके ने बात चला दी। बोला, "शिव बाला के जाने के बाद विजय रानी बेकल हो गई। क्या ये सच है सुंदरता ही सभी कुछ है? स्त्री किसी गिनती में नहीं? नहीं, ये नहीं हो सकता। ये झूट है। शोषी ने उसे बहुत समझाया। महारानी सच के खोज की लगन न लगा। सच कोई मीठा फल नहीं। वो झूट जो शांत कर दे, उस सच से अच्छा है जो अंदर भट्टी सुलगावे है। परंतु महारानी को सच की ढूंढ का ताप चढ़ा था। बोली, मनुश की रथ में दो पहिये लगे हैं। पुरुष और स्त्री। रथ कैसे चल सकती है, जद तोड़ी दोनों पहिये बराबर न हों।" "नहीं रानी।" शोषी ने कहा, "दो पहिये बराबर नहीं। कारन ये कि पुरुष का पहिया चले है। स्त्री खाली सजाट के लिए है। चलता नहीं।" बांदी ने विजय को बहुत समझाया पर वो न मानी। बालका रुक गया। फिर उसने सर उठा कर बिमला शीला की तरफ़ देखा। बोला, कन्याओ! जिसके मन में सच की ढूंढ का कीड़ा लग जाये फिर जीवन भर उसे न सुख मिलता है न शांति।" "ये क्या कह दिया बालक महाराज?" दास बोला। द्वार का दास बालक ने कहा, "सच को अपनाओ, सच जियो परंतु सच की ढूंढ में न निकलना। सदा चलते रहोगे। चलने के भर में आ जाओगे। न रस्ता होगा। न डंडी, न और... और न कहीं पहुँचोगे। सिर्फ़ चलना, चलते रहना।" बालके ने आह भरी और कहानी सुनाने लगा, "लाख समझाने पर भी विजय रानी सच की ढूंढ में चल निकली। सबसे पहले उसने महाराज को परखने की ठानी कि वो मुझे बराबर का जानें हैं कि नहीं। उसके मन में चिंता का कांटा लग गया। जूँ-जूँ उस की चिंता बढ़ती गई, तूं तूं महाराज उसे अपने ध्यान की गोद में झल्लाते गए। उसके सामने यूं सीस नवाते गए जैसे वो सचमुच की देवी हो। जूँ-जूँ वो देवी को मनाते गए, तूं तूं रानी की कल्पना बढ़ती गई, महाराज मुझे मूर्ती न बनाइऐ। मंदिर में न बिठाईए। अपने पास बिठाईए, अपने बराबर जानिए। महाराज को समझ में न आता था कि बराबर कैसे जानें। जिसे ध्यान दिया जाये। मान दिया जाये, ऊंचा बिठाया जाये, वो बराबर क्यों चाहे। जिसे सारा दिया जाये वो आधा क्यों मांगे? विजय रानी को जल्द ही पता चल गया कि महाराज उसे देवी के समान बना सकते हैं, महारानी बना सकते हैं, चहेती समझ सकते हैं, साथी नहीं बना सकते। ये जान कर विजय ने ठान ली कि वो राज भवन को छोड़ देगी। रानी नहीं बल्कि स्त्री बन कर जिएगी। सुंदरता के ज़ोर पर नहीं, जीओ के ज़ोर पर। भभूत मलकर सुंदरता छुपाए रखेगी और किसी के साथ ब्याह न करेगी जब तक वो उसे बराबर की न समझे, साथी न जाने। फिर एक रात जब गरज-चमक जोरों पर थी और राज भवन के चौकीदार कोनों में सहमे बैठे थे तो विजय ने भेस बदला और शोषी को साथ लेकर चोर दरवाज़े से बाहर निकल गई। चलते चलते वो राज नगरी से दूर एक शहर में रुकीं। विजय गुजारे के लिए फुलकारियां बनाती, शोषी उन्हें बाजार में बेच कर देती। कुछ दिनों में विजय की फुलकारियों की मांग बढ़ गई। इतनी साफ़ सुथरी फुलकारियां कौन बनावे है? मंडी में बातें होने लगीं। फिर बिदेश से एक घबरो ब्योपरी आनंद आ निकला। फुलकारियां देखकर भौंचक्का रह गया। उसने शोषी को ढूंढ निकाला। बोला, "ये फुलकारियां कौन काढ़ती है? मुझे उसके पास ले चल।" शोषी उसे घर ले आई। विजय को देखकर वो फुलकारियां भूल गया। विजय फुलकारियां दिखाती रही। आनंद विजय को देखता रहा। विजय समझती थी कि भभूत सुंदरता को ढाँप लेती है। आनंद सोचता रहा कि जिस गुण को स्त्री उछालती है, ये श्रीमती उसे छुपा रही है। अवश् कोई भेद है। आनंद बहुत सयाना था। उसने शहर शहर का पानी पी रखा था। उसने सोचा, पांव धीरे धीरे धरो। बड़ी फिसलन है और जो गिरा तो यहां सहारा देकर उठाने वाला कोई नहीं। पहले तेल देख, तेल की धार देख, फिर पांव धरना, तो वो तेल की धार जांचने के लिए फुलकारियों के बहाने विजय के घर आने जाने लगा। दो-चार फेरों में उसे पता चल गया कि सुंदरता की बात नहीं चलेगी। प्रेम की बात नहीं चलेगी। मुलायम बात नहीं चलेगी, लगाव की नहीं, बेलाग, खुरदुरी, गँवार। वो बोला, "बी काढ़न। तो तू चियूंटी की चाल चले है। पर मुझे तो बहुत सी फुलकारियां चाहिऐं ताकि उन्हें बेच कर अपना पेट पाल सकूँ।" फिर चार एक दिन के बाद आनंद विजय से बहुत बिगड़ा। सब झूट-मूट, बोला, तू काम-चोर है री। मैं तेरे सर पर बैठ कर काम कराऊँगा।" इस बहाने वो सारा सारा दिन विजय के घर रहने लगा। जूँ-जूँ वो उसके नेड़े होता गया। उसका मन हाथों से निकलता गया। फिर एक दिन आनंद ने उसकी बांह पकड़ ली। बोला, "बी काढ़न, मेरा धंदा नहीं चलता। इतनी कमाई भी नहीं होती कि सूखा गुजारा कर सकूँ। जो तू मुझसे ब्याह कर ले तो जीवन सुखी हो जाये। तू फुलकारियां काढ़े, मैं उन्हें बेचूं , काम तेरा, दौड़ धूप मेरी।" विजय उसकी चाल में आ गई, उसकी ममता जाग उठी, बोली, "मैं तो उससे ब्याह करूँगी जो पत्नी को बराबर का समझे। न उसे देवी बनाए न बांदी। अपना जीवन साथी जाने, दुख सुख का साथी।" "ठीक है।" आनंद बोला, "तू मेरी साथिन है, साथिन रहेगी।" जब विजय दुल्हन बनी तो भभूत का पर्दा भी उठ गया। अंदर से रानी निकल आई। आनंद धक से रह गया। पर भू ऐसी मूर्ती...!" बालका रुक गया। दास मुँह खोले बैठा था। चूल्हा जल रहा था। तवा जो खाली पड़ा था तप तप कर काला हो गया था। पेड़ा हाथ में यूं धरा था जैसे बालक के हाथ का कद्दू हो। शीला की निगाहें घास पर बिछी हुई थीं जैसे ढूंढ में लगी हों। बिमला की आँखें डबडबा रही थीं। अब रोई कि अब रोई। टीले पर साये मंडला रहे थे। बादलों में आग चल रही थी। शाम दबे-पाँव जा रही थी। रात अपने पर फड़फड़ा रही थी। "फिर क्या हुआ बालक जी?" दास ने जैसे हिचकी ली। बालक बोला, "आनंद बहुत बड़ा सौदागर था। हवेलियाँ थीं, नौकर-चाकर थे। धन-दौलत थी। किस बात की कमी थी उसे, वो तो विजय को राम करने के लिए उसने निर्धन का स्वाँग रचाया था। बस एक बात सच थी। वो तन-मन धन से विजय का हो चुका था। उसका बाहर जाने को जी नहीं चाहता पर क्या करता, इतना बड़ा व्यापार था। उसकी देख-भाल तो करनी ही थी। उसे जाना ही पड़ता। फुलकारियां बेचने के बहाने चला जाता, दिनों बाहर रहता। चला जाता तो जैसे घर का ध्यान ही न हो। आ जाता तो जैसे जाने से होल खाता हो। फिर ये भी था कि उसने विजय को फुलकारियां काढ़ने से रोक दिया था। बोला, "पत्नी तू साल में एक ठाठ की फुलकारी बना दिया कर। ऐसी जो राजा-रानी जोगी हो। ऐसी जो एक बेच ली तो घर में लहर बहर हो गई।" इस पर विजय सोच में पड़ गई। सोचती रही, सोचती रही। जब वो आया तो उसे कहने लगी, "रे तू मुझसे अपने व्योपार की बात क्यों नहीं करता?" आनंद ने जवाब दिया, "साथिन व्योपार में ऊंच नीच होती है। फन फ़रेब होता है। छल बट्टे होते हैं , व्योपार की बात सुनकर क्या करेगी?" विजय बोली, "देख में तेरी साथिन हूँ, बराबर की साथिन और साथी खाली सुख का नहीं होता, दुख का भी होता है। ऊंच का नहीं नीच का भी होता है। तू मुझे अपने व्योपार की सारी बात बता। अपने दुख गिनवा।" इस पर आनंद ने एक लंबी चौड़ी तोता-मैना की कहानी सुना दी कि किस तरह नगर-नगर फिरा। राजाओं, रानियों से मिला। उन्हें फुलकारी दिखाई और अंत में इक राज नर्तकी फुलकारी को देखकर इस पर लट्टू हो गई। बोली, "बोल ब्योपोरी मुँह-माँगे दाम दूँगी।" ** उस रात विजय को यूं लगा जैसे आनंद उसका जी बहलाने के लिए कहानी सुना रहा हो। सुलाने के लिए लोरी दे रहा हो। इस पर वो सोच में खो गई। मन में घुंडी पड़ गई, बोली, "शोशो ये तो वो नहीं जो ये कहे है। जो भेद ही न दे, वो साथी क्या बनेगा।" "देख रानी।" शोषी बोली, "वो अवश् भेद रखे है पर उसके मन में दूज नहीं, खोट नहीं, पुरुष पत्नी को अपने व्योपार का भेद कभी नहीं देता, वो उसे सारी बात कभी नहीं बताता। जरूर डंडी मारे है, यही जग की रीत है।" "तो क्या वो स्त्री को इस जोग नहीं जानता कि सारी बात जाने, ये तो साथ न हुआ बराबरी न हुई। जा शोषी मंडी में जा कर पूछ गछ कर, उसके भेद का पता लगा।" शोषी ने पूछ गछ की तो पता चला कि आनंद तो एक राज ब्योपारी है। उसने बेजा नगरी की महारानी के लिए शेष भवन बनवाने का ठेका ले रखा है। जब विजय ने ये सुना तो उसका दिल टूट गया, "तो फुलकारियां बेच कर गुजारा करने की बात इक बहाना थी। क्यों शोषी... तू क्या कहती है?" शोषी ने विजय को बहुत समझाया-बुझाया कि देख दइया उससे अच्छा जीवन साथी तुझे नहीं मिलेगा। उससे ज्यादा बराबरी कोई नहीं देगा लेकिन विजय न मानी। "शोषी इतने पर्दे ऊपर कुछ, भीतर कुछ, न शोषी जहां पर्दे हों, झूट हो, दिखावा हो, बराबरी कैसी। चल शोषी किसी ऐसी जगह चलें जहां पर्दा न हो, झूट न हो, अब यहां मेरा दम घुटता है।" बालका रुक गया। "तो क्या विजय आनंद को छोड़कर चली गई?" शीला ने पूछा। "हाँ ! चली गई।" बालका बोला। बिमला ने एक लंबी आह भरी। "फिर वे कहाँ गई?" दास ने पूछा। "पहले वो एक पुजारी के फंदे में फंस गई। पुजारी ने उसे दासी बना लिया। प्रभु की दासी, फिर आप प्रभु बन बैठा। वहां से भागी तो एक नर्तकी के जाल में जा फंसी। उसने उसे अपने चौबारे में सजा लिया। चौबारे से उसे एक राज गायक ले उड़ा। वहां से भी उसे बराबरी न मिली। गायक सारा दिन सितार सीने से लगाए रखता। फिर थक कर मांदगी उतारने के लिए वो विजय से दिल बहलाता।" "चल शोषी।" एक दिन विजय ने कहा, "यहां तो राग विध्या का राज है।" शोषी बोल, दइया जो चाहे है, वो उधर नहीं मिलेगा। जहां धनवान बस्ते हैं। वो इधर मिलेगा जहां निर्धन बस्ते हैं। कामी बस्ते हैं , जहां पुरुष पत्नी का सहारा लिए बग़ैर कुछ नहीं कर सकता। जहां पत्नी न मोह होती है न माया। बस इक बाजू होती है। पहले सहारा होती है, फिर कुछ और। जहां दूजे के बिना गुजारा नहीं होता। वहां स्त्री को बराबरी मिल जाये तो मिल जाये।" "वो कौन सी जगहें हैं? कहाँ है शोषी?" विजय ने पूछा। "वो जगह वहां है जहां धन का जोर नहीं होता, काम का होता है। देखो दइया तू मान न मान। परंतु स्त्री जीव की धरती है। जिसके दम से जीव कोंपल हरी रहती है। स्त्री की सार वही जाने है। जो धरती की सार जाने है, जो बूटा लगाना जाने है, जो खेती उगाए है। जिसका गुजारा धरती की पैदा पर है। बस वही स्त्री को बाजू समझे है। अपने सा जाने है।" विजय के दिल पर बात उतर गई। इक बार फिर वो घर छोड़कर निकल गईं। शहर से दूर गांव की ओर। शोषी ने विजय को मोटे कपड़े पहना दिए। मुँह पर हल्दी मल दी, कालिक का उबटन मल दिया। बोली, "यहां स्त्री स्त्री होती है। गुण के जोर पर नहीं , जीव के जोर पर। यहां सुंदरता शोभा नहीं रस्ते की रोक है। तू अपनी सुंदरता को छुपा रखना, जो नजर आ गई तो गड़बड़ी होगी।" "शोषी।" विजय बोली, "मैं इस सुंदरता के कारन बड़ा दुखी हूँ। कोई बिस भरी बूटी ढूंढ ला कि मैं मुख पर मल लूं जो सुंदरता की काट कर दे।" शोषी हंसी। बोली, "भोली रानी, सुंदरता मुख पर नहीं होता। सारे पिंडे में होती है। अंग अंग से फूटी है। बात हिलाने में होती है। पग धरने में होती है। आँख उठाने में होती है। होंट खोलने में होती है। तू उसे अपने सोभाओ से कैसे निचोड़ फेंकेगी?" गांव में पहुंच कर उन्होंने एक झुग्गी में डेरा कर लिया और खेत में कपाह के फूल चुनने लगीं। एक दिन लाखा किसान ने विजय से कहा, "तू कैसी जनानी है री। तेरी उंगलियां तो क़ैंची सी चलती हैं।" उसने विजय का हाथ पकड़ लिया। उंगलियां देखीं तो सिटपिटा गया। "री ये कैसी उंगलियां हैं? उंगलियां हैं या कि रसभरी फल्लियाँ। इतनी लंबी इतनी पतली।" फिर वो रोज़ उसकी चलती चुनती उंगलियां देखने लगा। देखते देखते एक दिन उंगलियां पकड़ कर बोला, "री तू मेरे घर क्यों नहीं बैठ जाती। मैं अकेला हूँ। पिता जी परमात्मा को प्यारे हो गए। माता बहुत बूढ़ी है। मेरा हाथ नहीं बटा सकती। भाई-बहन हैं नहीं। अकेला हूँ। तू मेरा बाजू बन जा री। मैं हल चलाऊंगा तू बीज डाल। मैं पानी दूँगा तू खेत की बोटी चुन। मैं गेहूँ काटूँगा तू दाने निकाल। फिर हम किसी से हेटे नहीं रहेंगे। जो आधा हूँ , पूर्ण हो जाऊँगा।" उसकी बात में न मोह थी न कामना, न लोभ। विजय को अपनी शर्त भी भूल गई। उसने हाँ कर दी। फिर वो दोनों खेत पर काम में जुत गए। लाख न उसे निर्मल समझता न माड़ी। न सुंदर न देवी। वो तो उसका बाजू थी। फिर कोई बात उससे छुपाता भी तो न था। कैसे छुपाता। हर समय वो दोनों इकट्ठे रहते। खेत में, घर में, हर बात में उसकी मर्ज़ी पूछता। काम में उसे ज़रा छूट न देता। विजय निहाल हो गई। समझी जैसे जल कुकड़ी जोहड़ में आ गई हो। लाखे किसान को विजय की एक बात पर बड़ी चिड़ थी। कहता, "री तू गंदी क्यों रहती है। नहाती-धोती क्यों नहीं? मुँह पर जर्दी छाए रहती है। अलियां बलियां लगी रहती हैं। बाल चिकट। आँखों में किच। विजय ये सुनकर गर्दन लटका लेती। एक दिन जब वो दोनों नदी के किनारे खड़े थे तो लाखा ने ताव खा कर बाल्टी उठाई और विजय पर उंडेल दी। फिर बाल्टी पर बाल्टी गिराने लगा। विजय भागी तो उसने उसे पकड़ कर नदी में छलांग लगा दी और उसे यूं धोने और मांझने लगा जैसे वो कोई रसोई की गडवी हो। फिर जब वो उसे खींच कर पानी से बाहर लाया तो उसे देखकर हक्का बका रह गया। सुनहरे लाँबे बाल। मोर सी गर्दन, कटोरा सी आँखें, धार सी नाक, फूल से होंट, छुई-मुई सा बदन... "तू कौन है री?" वो घिघिया कर बोला, "तू स्त्री नहीं। तू तो परी है री परी।" बालका कुछ देर के लिए चुप हो गया। बस उस दिन से लाखे के मन में झिझक बैठ गई और वो विजय से दूर हटता गया। विजय ने बार-बार उसे समझाया, "देख लाखे मैं परी नहीं, स्त्री हूँ। स्त्री।" पर उसकी झिजक न गई, बोला, "तू परी नहीं तो स्त्री भी नहीं। तू मोर है मैं काग हूँ, तेरा मेरा क्या सम्बंध? कारन ये कि तू कामियों में से नाहीँ।" कुछ दिना विजय उसका मुँह तकती रही। फिर निराश हो गई, फिर एक दिन वो शोषी से बोली, "चल शोषी। यहां हमारा दाना-पानी खत्म हो गया।" शोषी ने सर झुका लिया और जूं की तूं बैठी रही। जैसे बात सुनी ही न हो। कुछ देर वो उसे देखती रही। फिर बात उसकी समझ में आ गई, "शोषी अब लाखे की हो चुकी थी।" विजय का दिल धक से रह गया और वो चुपचाप अकेली बाहर निकल गई। बालका चुप हो गया। सभी चुप हो गए थे। किसी को फिर क्या हुआ पूछने का ध्यान न रहा था। फिर बालके ने कहा, "फिर पता नहीं ... कहते हैं। वो आज तक बराबरी की ढूंढ में भटकती फिर रही है। आज भी आधी रात के समय राज गढ़ी से आवाजें आती हैं ... प्रभु बाहर की सुंदरता को भीतर में रचा दे कि स्त्री, स्त्री बन जाये... पुरुष की कामना के हाथ का खिलौना न रहे।" बालका चुप हो गया, टीले पर ख़ामोशी छा गई। फिर कोई दूर से बोला, "विजय रानी ने सच को पा लिया। जो अपनी सुंदरता को उछालती हैं। बनाव सिंघार का राक्षश खड़ा कर लेती हैं, उन्हें बराबरी मांगने का कोई अधीकार नहीं।" उन्होंने मुड़ कर देखा। स्वामी जी द्वार के बाहर खड़े थे।