इज़दवाजे मुहब्बत

बिछड़े दोस्तों से भी मिल के कैसी ख़ुशी होती है! बस ख़ुद आप ही अंदाज़ा कर लीजिए।आख़िरकार आपका भी तो कोई दोस्त बिछड़ गया होगा। और फिर आपसे अचानक आ मिला होगा। आप ही फ़रमाईए क्या शादी मर्ग का ख़ौफ़ नहीं हो जाता। मेरी भी वल्लाह, एक हफ़्ता हुआ यही कैफ़ीयत हुई। इत्तिफ़ाक़ से एक काम के बाइस मेरा जाना अलीगढ़ हो गया। मैं कॉलेज के देखने का अर्से से मुश्ताक़ तो था ही। इस मौके़ को ग़नीमत जाना और एक ज़ाइर की हैसियत से कॉलेज की सैर में मसरूफ़ हुआ। हर चीज़ को अज़मत और मुहब्बत की निगाह से देखता था और जिस इमारत पर नज़र पड़ जाती उस में मह्व हो जाता था। इस इस्तिग़राक़ की हालत में इक नज़र एक साहिब पर भी जा पड़ी जो मेरी तरह मह्व-ए-नज़ारा थे। मैं आपसे सच्च कहता हूँ कि जब तक कोई ऐसी ही ख़ास कशिश ना होती मैं कॉलेज से आँख थोड़ा ही उठाने वाला था। लेकिन उन पर नज़र पड़ती थी कि मैं अपने गर्द-ओ-पेश की कुल चीज़ों को भूल गया और बेताबाना उनसे जा कर लिपट गया। अव्वल तो वो झिजके लेकिन फिर एक इस्तिजाब आमेज़ “तुम कहाँ?” कह के मुझसे लिपट गए। असलियत ये थी कि हम दोनों बिछड़े हुए कम-ओ-बेश तेरह -चौदह बरस के बाद मिले थे। मैं इस बात को तूल ना दूंगा कि हम दोनों कैसे जुदा हुए थे और मैं इन तेरह- चौदह बरस में कहाँ कहाँ रहा। मुख़्तसर ये है कि मुझमें मेरे दोस्त मुहम्मद नईम में बादालमशरक़ीं रहा। और हम उस ज़माने में एक दूसरे के हालात से बिलकुल बे-ख़बर रहे। मैं बर्मा में था, तो वो इंग्लिस्तान में, और वो भी एक ज़ाइर बन कर अलीगढ़ आए थे। मुहम्मद नईम को देखते ही कॉलेज की सैर कुछ वक़्त के लिए मौक़ूफ़ हुई और एक दूसरे के हालात दरयाफ्त होने लगे। आख़िरकार इन सब का नतीजा ये हुआ कि दो दिन बाद हमें ईस्ट इंडियन रेलवे की डाकगाड़ी अज़ीमाबादी की तरफ़ ले जा रही थी। जहां मेरे दोस्त मुहम्मद नईम, एम.डी. (एल आर सी पी, क्योंकि अब मुझे मालूम हुआ कि इस अर्से में मुहम्मद नईम इंग्लिस्तान जा कर एम.डी. हो आए थे) का मकान है।
अज़ीमाबाद पहुंचते ही डाक्टर साहिब ने मुझे अपनी आलीशान और बेनज़ीर कोठी में उतारा। और उसी रोज़ अपने कुल अहबाब की दावत की ताकि मुझसे मिलाएँ। दावत के बाद सब लोग बाहर चमन में आ बैठे और इधर- उधर की बातें होती रहीं। आकर यके बाद दीगरे सब रुख़्सत हो गए और हम दोनों अकेले रह गए।

चूँकि गर्मी का मौसम था, इसलिए रात का वक़्त व चांदी रात सेहन-ए-चमन और ठंडी हवा ऐसी चीज़ें न थीं कि हम में से किसी का दिल उठने को चाहता। बाहरी कुर्सियाँ डाले बैठे रहे। बातों बातों में ये ज़िक्र आगया कि इन्सान की ज़िंदगी में ऐसे दिलचस्प वाक़ियात नहीं होते जिनमें नाविल का मज़ा आए, मैं इस बारे में बहुत भरा बैठा था। मैंने नाविल नवीसों पर निहायत ले दे शुरू की कि कमबख़्त ऐसी ऐसी बातें लिखते हैं कि हमें रश्क होता है कि हमारी ज़िंदगी में क्यों ऐसे वाक़ियात पेश नहीं आते। और क्या, और क्या बहुत ही कुछ कह डाला, नईम चुपका सुना किया। सिर्फ एक-आध जगह मुस्कुराया। मुझे हैरत थी कि ये क्यों अपनी राय ज़ाहिर नहीं करते। खैर जब मैं सब कुछ कह चुका तो नईम ने एक और मज़मून पेश किया। कहने लगे: “आजकल पर्दे की बहस छिड़ी हुई है, तुम्हारी इसके मुता’ल्लिक़ क्या राय है।जदीद ख़्याल हो या कुहना ख़्याल ?कुहना ख़्याल होगे, क्योंकि पर्दे की मुख़ालिफ़त तो तुमसे क़ियामत तक भी नहीं होने की”।
मैंने कहा, “बे-शक पर्दे की मुख़ालिफ़त कौन साहिबे अक़्ल कर सकता है”।

“तो फिर ये शिकायत भी छोड़ दीजिए कि हमारी ज़िंदगी में दिलचस्पी नहीं”।
“उसको पर्दे से क्या ता’ल्लुक़?”

“ईं ता’ल्लुक़ ही नहीं! जब तक पर्दा है। इश्क़िया शादी जिसके आप इस क़दर दिल दादा मालूम होते हैं मुम्किन ही नहीं। वहां तो ये होता है कि बढ़े तो माँ- बाप ने जहां उनका दिल चाहा ब्याह दिया। चूँ व चरा की गुंजाइश ही नहीं और हो भी तो क्या, न देख सकते हैं, न बात कर सकते हैं। शादी क्या हुई सरकारी नौकरी हुई। जहां सरकार का दिल चाहा, नौकर को भेज दिया। हाकिम को मातहत की ख़बर नहीं, मातहत को ये मालूम नहीं कि हाकिम कैसा मिलेगा। इस ज़िंदगी में राज़ सर बस्ता कैसे पैदा हो सकते हैं और अफ़सानों का सिलसिला-ए-राज़ आख़िर में जा कर खुल कैसे सकता है? ये सब सच्चे इश्क़ की तुफ़ैल में नसीब हो सकता है। रुपया के लिए शादी मत कीजिए, बल्कि इश्क़ के लिए और फिर मेरा दावा है कि एक एक लफ़्ज़ नाविलों का आपको सही मालूम होगा। लीजिए मेरी ही सरगुज़िश्त सुनिए और बताईए क्या ये नाविल नहीं?”
यहां नईम यका-य़क रुक गया, कुछ देर तक मुतास्सिर हालत में सिगार के धुंए को देखा किया, गोया नज़र वहां है और ख़्याल कहीं और फिर कहने लगा: “क्या इससे भी बढ़के कोई अफ़साना हो सकता है”।

मैंने ज़रा चिल्ला के कहा, “लिल्लाह मेरे इश्तियाक़ को मत भड़काओ, कहो तो”।
“भाई असल ये है कि ये सरगुज़िश्त ऐसी नहीं (नईम की आवाज़ यहां रिक़्क़त भरी थी) कि मैं ठंडे दिल से बयान कर सकूं मुझे माफ़ करना अगर कहीं वारफ़्तगी की हालत तारी हो जाये। तुम्हें याद होगा कि जब हम तुम कॉलेज में पढ़ा करते थे तो मैं हमेशा विलायत जाने की तमन्ना ज़ाहिर किया करता था। जब तुम कॉलेज छोड़ के चले गए, उस के कुछ दिनों बाद, वालिद मरहूम मुझे विलायत भेजने पर राज़ी हो गए,

हैदराबाद में तो नौकर थे ही वहां कोशिश कर के रियासत की तरफ़ से मुझे भिजवाया। पाँच बरस की मेहनत-ए-शाक़ा के बाद बफ़ज़ले ख़ुदा मैं एम.डी. हो कर वापस आ गया और रियासत में सिवल सर्जन मुक़र्रर किया गया। इसके एक साल बाद ही वालिद-ए-माजिद का साया मेरे सर से उठ गया। वालिद मरहूम की तमन्ना ये थी कि मेरी शादी उनकी ज़िंदगी ही में हो जाती, मगर हाय ऐसे बाप किसे नसीब होते हैं। उन्होंने कभी मुझ पर ख़बर नहीं किया, और इसको मेरी मर्ज़ी पर छोड़ दिया। शादी के बारे में मेरे
ख़्यालात उस वक़्त कुछ और ही थे और मैं उन पर हँसता था जो ख़्वाह-मख़ाह शादी कर के मुसीबत में

पड़ते थे और अपनी आज़ादी से हाथ धो बैठे थे। मैं कहता था कि इस से बढ़कर भी कोई ग़लती नहीं हो
सकती कि जान-बूझ कर इन्सान अपने पांव में बेड़ियाँ डाल ले, क्या मालूम था कि थोड़े दिनों बाद लोग मुझ पर हँसेंगे। जो शिफ़ाख़ाने मेरी ज़ेरे निगरानी थे उनमें से तीन चार ज़नाने शिफ़ाख़ाने भी थे और ये निहायत हैरत-अंगेज़ बात थी कि उनमें एक डाक्टरनी मुस्लमान थी लाहौर में तालीम पाई थी और हैदराबाद मुक़र्रर हो कर आई थी। चूँकि ये बिल्कुल एक नई बात थी इसलिए हैदराबाद में उस मुस्लमान लेडी डाक्टर का शुहरा था। हिंदुस्तानियों की बदगुमानी! आप जानें ये किसी के हक़ में कलिमा ख़ैर थोड़ा ही कहेंगे। किसी को उसकी पाक दामनी में शुबहा था। कोई कहता था जाने किस रज़ील क़ौम की है। ग़रज़ कि जितने मुँह उतनी ही बातें थीं। लेकिन उसका हुस्न सबको खैरा किए हुए था। क्योंकि वो पर्दा बिल्कुल नहीं करती थी। मुझको अपने ओहदे की हैसियत से अक्सर मिलने का इत्तिफ़ाक़ होता था। मगर उस रख-रखाव की औरत मैंने कभी नहीं देखी। चाहे उस मिज़ाज की संजीदगी कहिए, या ग़ुरूर-ए-हुस्न ख़्याल कीजिए, कुछ हो। नतीजा ये था कि किसी की मजाल न थी कि आँख भर कर देख सके। काम इतना उम्दा कि कुल रियासत के ज़नाना शिफ़ाख़ानों में उसका शिफ़ाख़ाना अव्वल रहता था। मेरा ये हाल था कि अगर कोई कहीं उसकी ज़रा सी भी बुराई करता तो मुझे ताब ना रहती थी। मैं कहता कि ये पहली मिसाल है कि एक मुस्लमान औरत ने डाकटरी इम्तिहान पास किया और वो पहली मिसाल भी इतनी उम्दा है, फिर भी उसे बुरा कहा जाता है। ग़रज़ कि मैं लोगों से उसकी हिमायत में लड़ा करता था। थोड़े दिनों बाद मुझे मालूम हुआ कि मुझे महज़ उससे मुहब्बत ही नहीं, इश्क़ है, क्योंकि रोज़ बरोज़ उसका ख़याल दिल में घर करता जाता था। उस ख़्याल को जितना मैं हटाना चाहा उतने ही ज़्यादा ज़ोर से वो दिल में मुतमक्किन होता गया। मैं अपने दिल से कहता था कि: “दुनिया क्या कहेगी, अज़ीज़-ओ-अका़रिब क्या कहेंगे” दिल कहता था कि “इश्क़ में इन बातों का क्या ख़्याल? क्या ये काफ़ी नहीं कि वो शरीफ़ है, नेक है, लाखों में इंतिख़ाब है, जब ख़ुदा और रसूल नहीं रोकते तो और रोकने वाला कौन होता है”। मैं उन्हीं ख़्यालात में मुसतग़र्क़ि रहता था और कोई तसफ़िया नहीं कर सकता था कि मुझे मालूम नहीं किस तरह और किस बे ख़ुदी की हालत में एक दिन मैं उसे ये कह गया कि: “आपकी शादी हो गई है और अगर नहीं तो क्या आपकी ज़ौजियत की इज़्ज़त मुझे हासिल हो सकती है?”

उफ़! इस फ़िक़रे का असर उस पर कैसा हुआ है? चेहरा यकायक तमतमा उठा, आँखें जो हिस्सियात रूह की बेज़बान तर्जुमान हैं, पर ग़ज़ब हो गईं और निहायत ग़ुस्सा भरी आवाज़ से उसने मुझे जवाब दिया:
“जनाब मैं नहीं जानती आप क्या इरशाद फ़र्मा रहे हैं। आप मेरे अफ़्सर हैं, मुझे आपसे इस क़िस्म की बातों की उम्मीद ना थी”।

बजाय इसके मैं इस जवाब से अपने होश में आता न मालूम वो क्या बात थी कि जिसने मुझे और बे-ख़ुद कर दिया और बेताब हो कर निहायत आजिज़ी से इल्तिजा करने लगा। उस दिन मुझे यक़ीन हुआ है कि
इश्क़ अव्वल दर-ए-दिल माशूक़ पैदा मी शूद

गर ना सोज़ दशमा के परवाना शैदा मी शूद
जब में अपनी जुनूँ-आमेज़ गुफ़्तगु ख़त्म कर चुका तो मुझे यक़ीन था कि शायद उस वक़्त अ’ताब की

इंतिहा ना रहेगी। लेकिन मेरे नसीब कि उसने निहायत आहिस्तगी से कहा: “ख़ुद आप ख़्याल कीजिए कि मैं एक मामूली दर्जे की औरत हूँ, आप अल्लाह रखे, इतने बड़े ओहदे पर हैं कहाँ मैं, कहाँ आप, मुझे यक़ीन है कि जब आप अपनी कोठी पर जाऐंगे तो आप कहेंगे कि लाहौल वला क़ुवत... मुझसे भी क्या बेहूदगी हुई है, एक अदना दर्जे की औरत से क्या-क्या बातें कही हैं, इसलिए मुझे मेरे हाल पर रहने दीजिए”।
ये जवाब शायद तुम्हारे नज़दीक मायूसी दिलाने वाला हो, मगर मुझ पर तो उसने उल्टा असर किया। मैं घर गया तो उन ख़्यालात में कमी कैसी, उल्टा मैं किसी काम के क़ाबिल ना रहा। उठते बैठते, यही धुन थी कि वो किसी तरह मेरी इल्तिजा को क़बूल करे। मेरी ये हालत कि ज़रूरत हो या ना हो, उसके शिफ़ाख़ाने का मुआ’इना ज़रूर करता, और किसी ना किसी तरह अर्ज़-ए-हाल करता, कुछ अर्से के बाद मैंने देखा कि रफ़्ता-रफ़्ता उसकी पहली भड़क में भी कमी होती गई और क़िस्से को तूल क्या दूं एक दिन वो आया कि मैं और वो दूल्हा और दुल्हन हो गए। लेकिन मेरी और क़मरउन्निसा(ये उसका नाम था) की शादी कोई मामूली बात ना थी। हैदराबाद भर में उसका चर्चा हुआ। अगरचे हमने सादे तौर पर शादी की थी मगर अपनी अपनी क़िस्मत है कोई हज़ारों रुपया ख़र्च करता है और धूम धड़क्के से ब्याह रचाता है, ताहम शौहरत उसकी अश्रे अशीर भी नहीं होती जो हमारी ग़रीबी की शादी की हुई, मगर जो सुनता था कानों पर हाथ धरता था, हम पर लॉ’न ता’न करता था। हम ऐश से ज़िंदगी बसर करते थे, क्या ख़बर थी कि हम पर यूँ ज़ुल्म होगा:

डरता हूँ आसमान से बिजली ना गिर पड़े
सय्याद की निगाह सुए आशयां नहीं

दुश्मनों ने हमारे अफ़्सर बाला के कान भरे और एक दिन मर्ग-ए-मुफ़ाजात की तरह हमारे पास ये हुक्म आया दोनों हदूद रियासत से बाहर 48 घंटे में निकल जाएं। हम कर ही क्या सकते थे। संग आमद-ओ-सख़्त आमद हम अपने क़लील अलतादाद हमदर्दों की अफ़सोस और टिड्डी दल दुश्मनों की ख़ुशियों में हैदराबाद से रुख़्सत हुए। क़मरउन्निसा ने मुझसे आबदीदा हो कर कहा, “देखा! मेरी वजह से तुम पर ये मुसीबत नाज़िल हुई”। लेकिन मुझे बख़ुदा, ज़रा भी जो इस का ख़्याल हो कि मुझ पर ये मुसीबत है मैं अपने तईं दुनिया में सबसे बड़ा ख़ुशक़िस्मत समझता था क्योंकि मेरी क़मरउन्निसा मेरे साथ थी। मैं हैदराबाद से सीधा लखनऊ पहुंचा और यहां मैंने अपना मतब जारी कर दिया। सच्च कहा है कि मुसीबत तन्हा नहीं आती। हैदराबाद से यूं निकला, यहां पहुंच के बिलकुल ना-उमीदी हो गई। कई महीने गुज़र गए और आमदनी अ’नक़ा! और एक दम चलती भी किस की है? ये तो एक सौदागरी है। ज़ाहिरी टीप- टाप जब तक न हो कौन आता है? और मेरे पास क्या था? जब हैदराबाद में रहा कभी कुछ पस-अंदाज़ ही ना किया, जिसका ख़मियाज़ा अब भुगतना पड़ा। कहते हुए शर्म आती है मगर कहना ही पड़ता है, ये हालत हो गई थी कि एक मामा तक रखने की मुक़द्दरत ना रही। क़मरउन्निसा बेचारी सारे काम घर के करती थी और जब मैं घर में आता तो निहायत ख़ंदापेशानी से कहती कि: “खाना पकाना और घर का काम करना मुझे बहुत अच्छा मालूम होता है”। उसका ये कहना गो वो दिल से ही होता था, मुझ पर तीर का काम करता था, मैं कहता था कि: “हाय मैं कम्बख़्त ही तो इस बेचारी पर इन मुसीबतों के पड़ने का बाइस हुआ हूँ”।
ख़ुदा की शान उसी ज़माने में क़मरउन्निसा उम्मीद से हो गई, अब तो मुझे बेहद फ़िक्र हो गई। हर वक़त ये ख़्याल कि ऐसे ऐसे सख़्त काम करती है। कहीं झटका वटका आ जाये तो और मुश्किल आ पड़े, इसी फ़िक्र में रात-दिन घुलता था और कुछ ना कर सकता था। मेरा कोई रिश्तेदार भी न था कि जिसके हाँ जा पड़ता और क़मरउन्निसा भी कहती थी कि मैं यतीम और बिलकुल बे वाली वारिस हूँ। लेकिन एक दिन ख़ुद ही उसने कहा कि पटना में मेरे एक दूर के रिश्तेदार हैं, शायद वो ज़िंदा हों, चलो वहीं चलें”। मुझको इस बात का ख़्याल करते भी शर्म आती थी कि मैं उनके यहां जा के पड़ूँगा, लेकिन क्या करता, क़मर उन्निसा की जान भी प्यारी थी। गया, मगर बादिल-ए-नाख़्वासता। जब हम पटना पहुंचे, तो क़मरउन्निसा पता पूछती हुई एक निहायत मामूली दर्जे के मकान में मुझे ले गई। दरवाज़ा खटखटाने पर, एक बुज़ुर्ग सूरत बाहर आए। क़मरउन्निसा को देखते ही मुतअ’ज्जिब हुए फिर ख़ुशी ख़ुशी घर में ले गए। घर में एक बड़ी-बी थीं, जो हम दोनों पर सदक़े हुईं और क़मरउन्निसा से कहने लगीं कि: “मेरी भांजी! तुम्हें तो हम मुर्दा ख़्याल कर चुके थे। दो- तीन दिन मैं यहां रहा। एक दिन क़मरउन्निसा के ख़ालू, हमारे मेज़बान ने मुझसे कहा: “यहां एक नवाब साहिब हैं, मैं उनकी सरकार में नौकर हूँ चलिए आपको भी उनसे मिलाऊं। फिर एक निहायत आलीशान कोठी में मुझे ले गए और गोल कमरे में बिठा के कहा कि तुम यहीं बैठे रहना, मैं अभी आता हूँ, नवाब साहिब भी इस वक़्त तशरीफ़ लाएँगे महल में हैं”।

मैं अकेला बैठा रहा, कोठी की एक एक चीज़ को देखता था और अश अश करता था,लेकिन एक बात से हैरत थी, सारी कोठी में सन्नाटा था, मैं ऐसी हालत में था कि यकायक सामने का दरवाज़ा खुला और शाहज़ादियों के लिबास में मलबूस एक ख़ातून कमरे में दाख़िल हुई। मैं झिजक के चाहता था कि कमरे से बाहर निकल जाऊं और इस ख़्याल से मैं बाहर की तरफ़ लपका भी कि उस ख़ातून ने कहा: “प्यारे नईम”।
फिर कर जो ग़ौर से देखता हूँ तो मेरी प्यारी क़मरउन्निसा बादशाहज़ादी बनी खड़ी है। बेसाख़्ता मेरी ज़बान से निकल गया: “ख़्वाब देख रहा हूँ या मेरी आँखें धोका दे रही हैं”।

क़मरउन्निसा ने हंस के कहा: “नहीं तुम जागते हो, और मैं ही तुम्हारी क़मरउन्निसा हूँ। अल्लाह अल्लाह मुझे तुम पहचानते भी नहीं (फिर मेरी तरफ़ बढ़के और गले में बाहें डाल के) ख़ुदा का शुक्र है कि हमारी
मुसीबतें दूर हुईं मेरे पास बड़ी रियासत है और हम अब उम्र-भर यहीं रहेंगे”।

मैंने हैरत-ज़दा हो कर पूछा “तो तुमने हैदराबाद में नौकरी क्यों की थी?” “सब बताती हूँ,बेसब्र क्यों हुए जाते हो। मेरे वालिद मरहूम, निहायत रोशन ख़्याल आदमी थे, उन्होंने मेरी ता’लीम निहायत आ’ला दर्जे की की थी और कहते थे कि औलाद को ता’लीम देना बस यही वालदैन का फ़र्ज़ है। सिवाए मेरे उनके
कोई औलाद न थी, और ख़ुदा की मर्ज़ी ये हुई कि मेरे बारहवीं साल में, अल्लाह बख़्शे अब्बा का साया

मेरे सर से उठ गया। सारी जायदाद की मैं ही मालिक हुई। मैंने अपने सरपरस्त से कहा कि मैं डाक्टरी
पढ़ूंगी। चुनांचे मैं लाहौर भेजी गई, वहां से आई तो बड़े बड़े घरानों से मेरे लिए पैग़ाम आए, मगर मैंने दिल में ठान ली थी कि जब तक कोई मुझे सिर्फ मेरे लिए ब्याहेगा, मैं किसी से शादी ना करूँगी। इसलिए ग़रीब बनी और हैदराबाद गई और सदक़े उसकी करीमी के कि अल्लाह ने तुम जैसा प्यारा ख़ाविंद मुझे दिया, जिसने मुझे मेरी दौलत के लिए नहीं ब्याहा, बल्कि सिर्फ मेरे लिए सारी दुनिया मुझे बद कहती थी, मेरी तरफ़ से बदगुमान थी, फिर भी (मेरा बोसा लेकर) तुमने मुझसे शादी की और मैंने तुम्हारे साथ सारी मुसीबतें झेलीं, सिर्फ ये देखने के लिए कि आया तुम्हें मुझसे असली मुहब्बत है या उकता जाओगे।अपनी कोठी पर मैं बराबर हालत लिखती रहती थी, इस वजह से ख़ालू को सब हाल मालूम था”। इसके बाद हम हंसी ख़ुशी रहने लगे।

ये कह के नईम रुका और फिर भर्राई हुई आवाज़ से कहने लगा, “मशीयत एज़दी में किस को दख़ल है। आठ साल बाद, अल्लाह ने क़मरउन्निसा भी मुझसे छीन ली। अब वो जन्नत में है और मैं यहां ज़िंदगी के दिन पूरे कर रहा हूँ। एक उसकी यादगार है और वही मेरी ज़िंदगी का सहारा है। यानी मेरी प्यारी बेटी नजमउन्निसा जो हमारे पटने आने के पाँच महीने बाद दुनिया में आई थी। अल्लाह उसे जीता रखे। मेरी तबाबत भी यहां ख़ूब चमकी और अब मेरी ज़ाती जायदाद बहुत कुछ है। इसलिए मेरा इरादा है कि क़मरउन्निसा की जायदाद किसी कारे खैर के लिए वक़्फ़ करदूं।
अज़्म ये है कि कुल जायदाद औरतों की ता’लीम के वास्ते वक़्फ़ कर दूं। जब महमडन यूनीवर्सिटी बने तो एक कॉलेज ख़ासतौर पर मुस्लमान ख़ातूनों के लिए तैयार किया जाये। एक लाख की जायदाद है। मेरे ख़्याल में कॉलेज के इबतिदाई अख़राजात के लिए काफ़ी होगी। तुम्हारी क्या राय है”। मैंने तो कहा: “ज़रूर वल्लाह ज़रूर। ख़ुदा तुम्हारे इरादे में बरकत दे। कल क़ौम एहसानमंद होगी, मगर शब बख़ैर, नीयत शब हराम। चलिए रात बहुत आई है। लो एक बज गया अब चल के सोना चाहिए”।

ये कह के हम कोठी में दाख़िल हुए। अब कोठी की एक एक चीज़ मुझे अ’जीब मालूम होती और मेरे दिल पर अ’जीब असर डालती थी।
है यूं कि

किसी का हो रहे आतिश किसी को कर रखे
दो-रोज़ा उम्र को इंसान न राइगां काटे


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