خاندانی کرسی

Shayari By

ایئرپورٹ سے نکل کر جب وہ لاہور کی وسیع، شاداب اور خوبصورت سڑکوں سے اپنے بھتیجے کے ساتھ گزرنے لگا تو اسے انیس برس کے پرانے لاہور اور موجودہ لاہور میں کوئی خاص فرق محسوس نہ ہوا۔ کوئی بھی ایسی تبدیلی اسے نظر نہ آئی جو پرانے لاہور سے نئے لاہور کو الگ کرتی۔ وہی سب کچھ تو تھا جو وہ کبھی کبھی کسی دوست سےملنے یا صرف سیر و تفریح کی خاطران سڑکوں پر، گھومتے ہوئے ان سڑکوں کے دو رویہ کھڑے ہوئے درختوں پر اور ان بارونق دکانوں پر بارہا دیکھ چکا تھا۔
اس کے ساتھ بیٹھے ہوئے اور پورے انہماک سے گاڑی ڈرائیو کرتے ہوئے اس کےجوان سال بھتیجے نے اس کے خیالات کا جائزہ لے لیا تھا اور اب اس کے چہرے پر ہلکی سی مسکراہٹ پھیل گئی تھی۔

’’انکل! شاید آپ سوچ رہے ہیں کہ لاہور تو وہی ہے۔‘‘
’’ہاں انور کچھ ایسی ہی سوچ میرے ذہن میں ہے۔‘‘ [...]

आधे चेहरे

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मैं समझता हूँ कि आज की दुनिया में सबसे अहम मसला इमोशनल स्ट्रैस और स्ट्रेन का है। असलम ने कहा, अगर हम इमोशनल स्ट्रैस को कंट्रोल करने में कामयाब हो जाएं तो बहुत सी कॉम्प्लिकेशन्ज़ से नजात मिल सकती है।
आपका मतलब है ट्रंकुलाइज़र क़िस्म की चीज़। रशीद ने पूछा।

नहीं नहीं। असलम ने कहा, ट्रंकुलाइज़र ने मज़ीद पेचीदगियां पैदा कर रखी हैं। एलोपैथी ने जो मर्ज़ को दबा देने की रस्म पैदा की है, उससे अमराज़ में इज़ाफ़ा हो गया है और सिर्फ़ इज़ाफ़ा ही नहीं इस सपरीशन की वजह से मर्ज़ ने किमोफ़लाज करना सीख लिया है। लिहाज़ा मर्ज़ भेस बदल बदल कर ख़ुद को ज़ाहिर करता है। इसी वजह से उसमें इसरार का उंसुर बढ़ता जा रहा है। तशख़ीस करना मुश्किल हो गया है। क्यों ताऊस, तुम्हारा क्या ख़याल है? असलम ने पूछा।
मैं तो सिर्फ़ एक बात जानता हूँ। ताऊस बोला, हमारा तरीक़-ए-इलाज यानी होम्योपैथी यक़ीनन रुहानी तरीक़ा-ए-इलाज है। हमारी अदवियात माद्दे की नहीं बल्कि अनर्जी की सूरत में होती हैं। जितनी दवा कम हो, उसमें उतनी ही ताक़त ज़्यादा होती है। यही इस बात का मुँह बोलता सबूत है। [...]

रौग़नी पुतले

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शहर का इलिट शॉपिंग सेंटर... जिसकी दीवारें, शेल्फ़, अलमारियां बिलौर की बनी हुई हैं। जिसका बना सजा फ़ेकेड जलते-बुझते रंगदार साइज़ से मुज़य्यन है। जिसके काउंटर्ज़ मुख़्तलिफ़ रंगों के गुलू क्लर्ज़ पेंटस की धारियों से सजे हुए हैं और शेल्फ़ दीदा ज़ेब सामान से लदे हैं जिसके काउंटरों पर स्मार्ट मुतबस्सिम लड़कियां और लड़के यूं ईस्तादा हैं जैसे वो भी प्लास्टिक के पुतले हों। जो उनके इर्दगिर्द यहां वहां सारे हाल में जगह जगह रंगा-रंग लिबास पहने खड़े हैं... हाल फ़ैशन आर्केड से कौन वाक़िफ़ नहीं।
चाहे उन्हें कुछ न ख़रीदना हो, लोग किसी न किसी बहाने फ़ैशन आर्केड का फेरा ज़रूर लगाते हैं। वहां घूमते फिरते नज़र आना एक हैसियत पैदा कर देता है। कुछ पाश चीज़ों और नए डिज़ाइनों को देखने आते हैं ताकि महफ़िलों में लेटस्ट फ़ैशन की बात कर के उप टू डेट होने का रोब जमा सकें। नौजवान आर्केड में घूमने फिरने वालियों को निगाहों से टटोलने आते हैं। गुंडे सेल गर्लज़ से अटास्टा लगाने की कोशिश करते हैं। लड़कियां अपनी नुमाइश के लिए आती हैं। बूढ़े ख़ाली आँखें सेंकते हैं। घाग बेगमात ग्रीन यूथ की टोह में आती हैं। वो सिर्फ़ फ़ैशन आर्केड ही नहीं, रूमान आर्केड भी है, क्यों न हो। आज मुहब्बत भी तो फ़ैशन ही है।

कौन सी चीज़ है जो फ़ैशन आर्केड मुहय्या नहीं करता। ज़रबफ्त से गाढे तक। मोस्ट माडर्न गैजट्स से सुई सलाई तक सी थ्रो से रंगीन मालाओं तक। सब कुछ वहां मौजूद है। लोग घूम घाम कर थक जाते हैं तो आर्केड के रेस्तोराँ में काफ़ी का प्याला लेकर बैठ जाते हैं।
फ़ैशन आर्केड की अहमियत का ये आलम है कि फ़ोरेन डिग्नीटरीज़ ने ख़रीद-ओ-फ़रोख़त करनी हो तो उन्हें ख़ास इंतिज़ामात के तहत आर्केड में लाया जाता है। [...]

पीतल का घंटा

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आठवीं मर्तबा हम सब मुसाफ़िरों ने लारी को धक्का दिया और ढकेलते हुए ख़ासी दूर तक चले गए। लेकिन इंजन गुनगुनाया तक नहीं। डराइवर गर्दन हिलाता हुआ उतर पड़ा। कंडक्टर सड़क के किनारे एक दरख़्त की जड़ पर बैठ कर बैट्री सुलगाने लगा। मुसाफ़िरों की नज़रें गालियां देने लगीं और होंट बड़बड़ाने लगे। मैं भी सड़क के किनारे सोचते हुए दूसरे पेड़ की जड़ पर बैठ कर सिगरेट बनाने लगा। एक-बार निगाह उठी तो सामने दूर दरख़्तों की चोटियों पर मस्जिद के मीनार खड़े थे। मैं अभी सिगरेट सुलगा ही रहा था कि एक मज़बूत खुरदुरे देहाती हाथ ने मेरी चुटकियों से आधी जली हुई तीली निकाल ली। मैं उसकी बे-तकल्लुफ़ी पर नागवारी के साथ चौंक पड़ा। मगर वो इत्मिनान से अपनी बीड़ी जला रहा था वो मेरे पास ही बैठ कर बेड़ी पीने लगा या बीड़ी खाने लगा।
“ये कौन गांव है?” मैंने मीनारों की तरफ़ इशारा कर के पूछा।

“यो... यो भुसवल है।”
भुसवल का नाम सुनते ही मुझे अपनी शादी याद आ गई। मैं अंदर सलाम करने जा रहा था कि एक बुज़ुर्ग ने टोक कर रोक दिया। वो क्लासिकी काट की बानात की अचकन और चौड़े पायंचे का पाजामा और फ़र की टोपी दिये मेरे सामने खड़े थे। मैंने सर उठाकर उनकी सफ़ेद पूरी मूँछें और हुकूमत से सींची हुई आँखें देखीँ। उन्होंने सामने खड़े हुए ख़िदमतगार के हाथ से फूलों की बद्धियाँ ले लीं और मुझे पहनाने लगे। मैंने बल खा कर अपनी बारसी पोत की झिलमिलाती हुई शेरवानी की तरफ़ इशारा करके तल्ख़ी से कहा, “क्या ये काफ़ी नहीं थी?” वो मेरी बात पी गए। बद्धियाँ बराबर कीं फिर मेरे नन्हे सर पर हाथ फेरा और मुस्कुरा कर कहा अब तशरीफ़ ले जाइए। मैंने डयोढ़ी पर किसी से पूछा कि “ये कौन बुज़ुर्ग थे।” बताया गया कि ये भुसवल के क़ाज़ी इनाम हुसैन हैं। [...]

जुवारी

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पुलिस ने ऐसी होशियारी से छापा मारा था कि उनमें से एक भी बच कर नहीं निकल सका था और फिर जाता तो कहाँ, बैठक का एक ही ज़ीना था जिस पर पुलिस के सिपाहियों ने पहले ही क़ब्ज़ा जमा लिया था। रही खिड़की, अगर कोई मनचला जान की परवाना कर के उसमें से कूद भी पड़ता तो अव्वल तो उसके घुटने ही सलामत न रहते और बिल-फ़र्ज़ ज़्यादा चोट न आती तो भी उसे भागने का मौक़ा न मिलता क्योंकि पुलिस के निस्फ़-दर्जन सिपाही नीचे बाज़ार में बैठक को घेरे हुए थे और यूँ वो सब के सब जुवारी, जिनकी तादाद दस थी पकड़ लिए गए थे।
इत्तिफ़ाक़ से उस दिन जो जुवारी इस बैठक में आए थे उनमें दो एक पेशावरों को छोड़ कर बाक़ी सब कभी-कभार के शौक़िया खेलने वाले थे और यूँ भी इज़्ज़तदार और आसूदा हाल थे। एक ठेकादार था, एक सरकारी दफ़्तर का ओह्देदार, एक महाजन का बेटा था, एक लारी ड्राईवर था और एक शख़्स चमड़े का कारोबार करता था।

उनमें दो शख़्स ऐसे भी थे जो बे-गुनाह पकड़ लिए गए थे। उनमें एक तो मनसुख पनवाड़ी था। हर-चंद वो भी कभी खेल भी लिया करता था मगर उस शाम वो क़तअन इस मक़सद से वहाँ नहीं गया। वो दुकान पर एक दोस्त को बिठा कर दस के नोट की रेज़गारी लेने आया था। रेज़गारी ले चुका तो चलते एक खिलाड़ी के पत्तों पर नज़र पड़ गई , पत्ते ग़ैर-मामूली तौर पर अच्छे थे। ये देखने को कि वो खिलाड़ी क्या चाल चलता है ये ज़रा की ज़रा रुका था कि इतने में पुलिस आ गई। बस फिर कहाँ जा सकता था!
दूसरा शख़्स एक उम्र रसीदा वसीक़ा नवीस था जो ठेकादार को ढूँढता ढूँढता इस बैठक में पहुँच गया था। ठेकादार से उस की पुरानी साहिब सलामत थी और वो चाहता था कि ठेकादार उसके बेटे को भी छोटा मोटा ठेके का काम दिला दिया करे। वो कई दिन से ठेकेदार की तलाश में सरगर्दां था और आख़िर मिला भी तो कहाँ, जहाँ न तो ठेकादार को खेल से फ़ुर्सत और न उसे इतने आदमियों के सामने मतलब की बात कहने का यारा। ठेकेदार खेल में मुनहमिक था और वसीक़ा नवीस इस सोच में कि वो कौन सी तर्कीब हो सकती है जिससे ये खेल घड़ी-भर के लिए थम जाए और दूसरे सब लोग उठ कर बाहर चले जाएँ। मगर इस क़िस्म की कोई सूरत उसे नज़र न आती थी। उधर ठेकेदार था कि घंटों से बराबर खेले जा रहा था। आख़िर वसीक़ा नवीस मायूस हो कर चलने की सोच ही रहा था कि इतने में पुलिस आ गई और जुवारीयों के साथ उसे भी धर लिया गया। [...]

ایک قتل کی کوشش

Shayari By

ایک میں ہوں۔۔۔ متحیر اور مبہوت۔
ایک وہ ہے۔ پیتھالوجسٹ۔

بہت دنوں سے یہ پیتھالوجسٹ مجھ سے کہہ رہا ہے، ’’دیکھو! جو کچھ خارج ہوکر باہر آتا ہے بس وہی میرا مقدر ہے۔‘‘
[...]

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