अन्न-दाता

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(1)
वो आदमी जिसके ज़मीर में कांटा है

(एक ग़ैर मुल्की कौंसिल के मकतूब जो उसने अपने अफ़्सर आला को कलकत्ता से रवाना किए)
8 अगस्त 1943 –कलाइव स्ट्रीट, मून शाईन ला। [...]

क्वारंटीन

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प्लेग और क्वारंटीन!
हिमाला के पाँव में लेटे हुए मैदानों पर फैल कर हर एक चीज़ को धुँदला बना देने वाली कुहरे के मानिंद प्लेग के ख़ौफ़ ने चारों तरफ़ अपना तसल्लुत जमा लिया था।

शह्​र का बच्चा-बच्चा उसका नाम सुन कर काँप जाता था।
प्लेग तो ख़ौफ़नाक थी ही, मगर क्वारंटीन उससे भी ज़ियादा ख़ौफ़नाक थी। लोग प्लेग से इतने हिरासाँ नहीं थे जितने क्वारंटीन से, और यही वज्ह थी कि महकमा-ए-हिफ़्ज़ान-ए-सेहत ने शह्​रियों को चूहों से बचने की तलक़ीन करने के लिए जो क़द-ए-आदम इश्तिहार छपवाकर दरवाज़ों, गुज़रगाहों और शाहराहों पर लगाया था, उस पर “न चूहा न प्लेग” के उनवान में इज़ाफ़ा करते हुए “न चूहा न प्लेग, न क्वारंटीन” लिखा था। [...]

ऊपर नीचे और दरमियान

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मियाँ साहब: बहुत देर के बा’द आज मिल बैठने का इत्तेफ़ाक़ हुआ है।
बेगम साहिबा: जी हाँ,

मियाँ साहब: मस्रूफ़ियतें... बहुत पीछे हटता हूँ मगर ना-अह्ल लोगों का ख़याल करके क़ौम की पेश की हुई ज़िम्मेदारियाँ सँभालनी ही पड़ती हैं।
बेगम साहिबा: अस्ल में आप ऐसे मुआमलों में बहुत नर्म दिल वाक़े हुए हैं, बिल्कुल मेरी तरह। [...]

दो मुंही

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सोचती हूँ कि मैं त्याग क्लीनिक में गई ही क्यों? क्या फ़ायदा हुआ भला? अपनी बीमारी दूर कराने के लिए गई थी, सारी मख़लूक़ को बीमार कर के आ गई। वही बात हुई ना। बुढ़िया बुढ़िया तेरा कूबड़ दूर हो जाये या सारी दुनिया कुबड़ी हो जाये।
लेकिन त्याग बीती सुनाने से पहले में अपना तआरुफ़ तो करा लूं। मैं सांवरी हूँ। तीस साल की। सलमान से मैरिज हुए दो साल हुए हैं। लव मैरिज थी। मेरे ख़द्द-ओ-ख़ाल आम से हैं यानी एवरेज से कुछ बेहतर। हाँ ज़ेह्न की तीखी हूँ। काठी मज़बूत है जिस्म तना तना... लेकिन नहीं मैं ग़लत बयानी कर रही हूँ। कस्र-ए-नफ़सी से काम ले रही हूँ। मेरे ख़द्द-ओ-ख़ाल एवरेज सही लेकिन मुझमें बड़ा चार्म है। राह चलते सर उठा कर, गर्दन मोड़ मोड़ कर देखते हैं तो यूं देखते हैं जैसे सर से पांव तक उल्लू के पट्ठे बन गए हों। बस में नहीं रहते, कन्ट्रोल्ज़ हाथ से छूट जाते हैं। डोलते हैं, पतवार छूट जाये तो कश्ती डोलती है ना।

मैं लड़कीपन से निकल आई हूँ। लेकिन अभी लड़की ही हूँ। औरत नहीं बनी। अल्लाह न करे कि बनूँ।
अजीब सा आलम है। जैसे शाम को डिस्क होती है, रात नहीं पड़ी। दिन भी नहीं रहा लेकिन दिन दिन सा लगता है। [...]

तीन मोटी औरतें

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एक का नाम मिसेज़ रिचमेन और दूसरी का नाम मिसेज़ सतलफ़ था। एक बेवा थी तो दूसरी दो शौहरों को तलाक़ दे चुकी थी। तीसरी का नाम मिस बेकन था। वो अभी नाकतख़दा थी। उन तीनों की उम्र चालीस के लगभग थी। और ज़िंदगी के दिन मज़े से कट रहे थे।
मिसेज़ सतलफ़ के ख़द्द-ओ-ख़ाल मोटापे की वजह से भद्दे पड़ गए थे। उसकी बाहें कंधे और कूल्हे भारी मालूम होते थे। लेकिन इस उधेड़ उम्र में भी वो बन-संवर कर रहती थी। वो नीला लिबास सिर्फ़ इसलिए पहनती थी कि उसकी आँखों की चमक नुमायाँ हो और बनावटी तरीक़ों से उसने अपने बालों की ख़ूबसूरती भी क़ायम रखी थीं।

उसे मिसेज़ रिचमेन और मिस बेकन इसलिए पसंद थीं कि वो दोनों उसकी निस्बत मोटी थीं और चूँकि वो उम्र में भी उनसे क़दरे छोटी थी इसलिए वो उसे अपनी बच्ची की तरह ख़याल करतीं। ये कोई नापसंदीदा बात न थी। वो दोनों ख़ुश तबीयत थीं। अक्सर तफ़रीहन उसके होने वाले मंगेतर का ज़िक्र छेड़ देती।
वो ख़ुद तो इस इश्क़-ओ-मुहब्बत की उलझन से कोसों दूर थीं लेकिन इस मुआमले में उन्हें मिसेज़ सतलफ़ से पूरी हमदर्दी थी। उन्हें यक़ीन था कि वो दिनों ही में कोई नया गुल खिलाने वाली है। [...]

डॉक्टर शिरोडकर

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बंबई में डॉक्टर शिरोडकर का बहुत नाम था। इसलिए कि औरतों के अमराज़ का बेहतरीन मुआलिज था। उसके हाथ में शफ़ा थी। उसका शिफ़ाख़ाना बहुत बड़ा था, एक आलीशान इमारत की दो मंज़िलों में जिनमें कई कमरे थे, निचली मंज़िल के कमरे मुतवस्सित और निचले तबक़े की औरतों के लिए मख़सूस थे। बालाई मंज़िल के कमरे अमीर औरतों के लिए।
एक लेबोरेटरी थी। उसके साथ ही कमपाउन्डर का कमरा। ऐक्स रे का कमरा अलाहिदा था। उसकी माहाना आमदनी ढाई-तीन हज़ार के क़रीब होगी।

मरीज़ औरतों के खाने का इंतिज़ाम बहुत अच्छा था जो उसने एक पारसन के सुपुर्द कर रखा था जो उसकी एक दोस्त की बीवी थी।
डॉक्टर शिरोडकर का ये छोटा सा हस्पताल मेटर्निटी होम भी था। बंबई की आबादी के मुतअल्लिक़ आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कितनी होगी। वहां बेशुमार सरकारी हस्पताल और मेटर्निटी होम हैं, लेकिन इसके बावजूद डाक्टर शिरोडकर का क्लीनिक भरा रहता। [...]

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