आम

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खज़ाने के तमाम कलर्क जानते थे कि मुंशी करीम बख़्श की रसाई बड़े साहब तक भी है। चुनांचे वो सब उसकी इज़्ज़त करते थे। हर महीने पेंशन के काग़ज़ भरने और रुपया लेने के लिए जब वो खज़ाने में आता तो उसका काम इसी वजह से जल्द जल्द कर दिया जाता था। पच्चास रुपये उसको अपनी तीस साला ख़िदमात के ए’वज़ हर महीने सरकार की तरफ़ से मिलते थे।
हर महीने दस दस के पाँच नोट वो अपने ख़फ़ीफ़ तौर पर काँपते हुए हाथों से पकड़ता और अपने पुराने वज़ा के लंबे कोट की अंदरूनी जेब में रख लेता। चश्मे में ख़ज़ानची की तरफ़ तशक्कुर भरी नज़रों से देखता और ये कह कर “अगर ज़िंदगी हुई तो अगले महीने फिर सलाम करने के लिए हाज़िर हूँगा,” बड़े साहब के कमरे की तरफ़ चला जाता।

आठ बरस से उसका यही दस्तूर था। खज़ाने के क़रीब क़रीब हर क्लर्क को मालूम था कि मुंशी करीम बख़्श जो मुतालिबात-ए-ख़ुफ़िया की कचहरी में कभी मुहाफ़िज़-ए-दफ़्तर हुआ करता था बेहद वज़ा’दार, शरीफ़ुत्तबा और हलीम आदमी है। मुंशी करीम बख़्श वाक़ई इन सिफ़ात का मालिक था। कचहरी में अपनी तवील मुलाज़मत के दौरान में आफ़सरान-ए-बाला ने हमेशा उसकी तारीफ़ की है। बा’ज़ मुंसिफ़ों को तो मुंशी करीम बख़्श से मोहब्बत हो गई थी। उसके ख़ुलूस का हर शख़्स क़ाइल था।
इस वक़्त मुंशी करीम बख़्श की उम्र पैंसठ से कुछ ऊपर थी। बुढ़ापे में आदमी उमूमन कमगो और हलीम हो जाता है मगर वो जवानी में भी ऐसी ही तबीयत का मालिक था। दूसरों की ख़िदमत करने का शौक़ इस उम्र में भी वैसे का वैसा ही क़ायम था। [...]

आख़िरी सल्यूट

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ये कश्मीर की लड़ाई भी अजीब-ओ-ग़रीब थी। सूबेदार रब नवाज़ का दिमाग़ ऐसी बंदूक़ बन गया था जिसका का घोड़ा ख़राब हो गया हो।
पिछली बड़ी जंग में वो कई महाज़ों पर लड़ चुका था। मारना और मरना जानता था। छोटे बड़े अफ़सरों की नज़रों में उसकी बड़ी तौक़ीर थी, इसलिए कि वो बड़ा बहादुर, निडर और समझदार सिपाही था। प्लाटून कमांडर मुश्किल काम हमेशा उसे ही सौंपते थे और वो उनसे ओहदा-बरा होता था। मगर इस लड़ाई का ढंग ही निराला था।

दिल में बड़ा वलवला, बड़ा जोश था। भूक-प्यास से बेपर्वा सिर्फ़ एक ही लगन थी, दुश्मन का सफ़ाया कर देने की, मगर जब उससे सामना होता, तो जानी-पहचानी सूरतें नज़र आतीं। बा'ज़ दोस्त दिखाई देते, बड़े बग़ली क़िस्म के दोस्त, जो पिछली लड़ाई में उसके दोश-बदोश, इत्तिहादियों के दुश्मनों से लड़े थे, पर अब जान के प्यासे बने हुए थे।
सूबेदार रब नवाज़ सोचता था कि ये सब ख़्वाब तो नहीं। पिछली बड़ी जंग का ऐलान। भर्ती, क़द-आवर छातियों की पैमाइश, पी टी, चांद मारी और फिर महाज़। उधर से इधर, इधर से उधर, आख़िर जंग का ख़ातमा। फिर एक दम पाकिस्तान का क़ियाम और साथ ही कश्मीर की लड़ाई। ऊपर-तले कितनी चीज़ें। रब नवाज़ सोचता था कि करने वाले ने ये सब कुछ सोच-समझ कर किया है ताकि दूसरे बौखला जाएं और समझ न सकें। वर्ना ये भी कोई बात थी कि इतनी जल्दी इतने बड़े इन्क़िलाब बरपा हो जाएं। [...]

टोबा टेक सिंह

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बटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदोस्तान की हुकूमतों को ख़्याल आया कि अख़लाक़ी क़ैदियों की तरह पागलों का तबादला भी होना चाहिए यानी जो मुसलमान पागल, हिंदोस्तान के पागलख़ानों में हैं उन्हें पाकिस्तान पहुंचा दिया जाये और जो हिंदू और सिख, पाकिस्तान के पागलख़ानों में हैं उन्हें हिंदोस्तान के हवाले कर दिया जाये।
मालूम नहीं ये बात माक़ूल थी या ग़ैरमाक़ूल, बहरहाल दानिशमंदों के फ़ैसले के मुताबिक़ इधर उधर ऊंची सतह की कांफ्रेंसें हुईं और बिलआख़िर एक दिन पागलों के तबादले के लिए मुक़र्रर हो गया। अच्छी तरह छानबीन की गई। वो मुसलमान पागल जिनके लवाहिक़ीन हिंदोस्तान ही में थे, वहीं रहने दिए गए थे। जो बाक़ी थे, उनको सरहद पर रवाना कर दिया गया।

यहां पाकिस्तान में चूँकि क़रीब-क़रीब तमाम हिंदू-सिख जा चुके थे इसीलिए किसी को रखने रखाने का सवाल ही न पैदा हुआ। जितने हिंदू-सिख पागल थे सबके सब पुलिस की हिफ़ाज़त में बॉर्डर पर पहुंचा दिए गए।
उधर का मालूम नहीं, लेकिन इधर लाहौर के पागलखाने में जब इस तबादले की ख़बर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प चेमिगोईयां होने लगीं। एक मुसलमान पागल जो बारह बरस से हर रोज़ बाक़ायदगी के साथ 'ज़मींदार' पढ़ता था, उससे जब उसके एक दोस्त ने पूछा, “मौलबी साब! ये पाकिस्तान क्या होता है?” तो उसने बड़े ग़ौर-ओ-फ़िक्र के बाद जवाब दिया, “हिंदोस्तान में एक ऐसी जगह है जहां उस्तरे बनते हैं।” ये जवाब सुन कर उसका दोस्त मुतमइन हो गया। [...]

باغی

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آم کا کنج اور بڑے بابو، ان دونوں میں کوئی تعلق بظاہر تو معلوم نہیں ہوتا، لیکن ہندوستان باوجود ضرب المثل کثرت کے وحدت کاملک ہے۔ یہاں ہر چیز دوسری چیز سے رشتہ رکھتی ہے، یہ رشتہ ہر شخص کو نظر نہیں آتا، لیکن شاعر (یہاں اس لفظ کے وسیع معنی مراد ہیں) کی درد پرور نظر اسے دیکھتی ہے اور دوسروں کو دکھاتی ہے اور جو دیکھنے سے انکار کرے وہ ’’باغی‘‘ کہلاتا ہے۔ باغی کا مفہوم سمجھنے کے لیے تعزیرات ہند، عدالت اور کالا پانی کاخیال دل سے نکال دیجیے اور ذرا دیر کے لیے ناموسِ فطرت کی طرف توجہ کیجیے جو انسان یعنی ’’کائنات مجمل اور اس کے ماحول یعنی کائنات مفصل‘‘ میں ہم آہنگی چاہتا ہے اور جس کی خلاف ورزی ’’بغاوت‘‘ ہے۔ مگر خدا کے لیے ان مسائل میں اتنے محو نہ ہو جائیے گا کہ قصے کی سادگی، اندازبیان کی دل آویزی اور ایک خاص طرح کی ظرافت جو بجا موجود ہے نظر سے چھپ جائے۔
(ڈاکٹر سید عابد حسین)

ایک چھوٹے سے دیہاتی اسٹیشن کا ذکر ہے، مسافر یہاں بہت کم دیکھنے میں آتے تھے اور گاڑیاں اور بھی کم، لیکن کسی مصلحت سے خداوندانِ تدبیر نے تین ملازمان ریلوے کا یہاں تعین کر رکھا تھا جن کی تفصیل یہ ہے، ایک اسٹیشن ماسٹر (بڑے بابو) ایک ٹکٹ بابو اور ایک سگنل والا۔
کشن پرشاد اسٹیشن ماسٹر کشیدہ قامت متین آدمی تھے۔ ان کا چہرہ چوڑا چکلا تھا اور مونچھیں بھری بھری اور کسی قدر نیچے کی طرف مڑی ہوئی، ظاہر ہے کہ ان کی ذات گویا اسٹیشن کے مرقعے میں نقش مرکزی تھی۔ یہ اپنی تنہائی کی زندگی پر قانع بلکہ اس میں مگن تھے اور جو کوئی ان کے پرسکون چہرے اور خاموشی بھری آنکھوں پر نظر ڈالتا اسے اس بات پر حیرت نہ ہوتی۔ ان کے چہرے سے غور و فکر، علم و فضل کا اظہار ہوتا تھا، حالانکہ انھوں نے برائے نام تعلیم پائی تھی اور ان کی چمک ان کے کور سواد ساتھیوں کے ساتھ۔۔۔ تقابل کا نتیجہ تھی۔ [...]

प्रेम कहानी

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मैं आज उस वाक़िए’ का हाल सुनाता हूँ। तुम शायद ये कहो कि मैं अपने आपको धोका दे रहा हूँ। लेकिन तुमने कभी इस बात का तो मुशाहिदा किया होगा कि वो शख़्स जो ज़िंदगी से मुहब्बत करता है कभी-कभी ऐसी हरकतें भी कर बैठता है जिनसे सर्द-मेहरी और ज़िंदगी से नफ़रत टपकती है।
इसकी वज्ह ये है कि उसको ज़िंदगी ने कुछ ऐसी ईज़ा पहुँचाई है कि वो ज़िंदगी की ख़्वाहिश को घोंट कर उससे दूर भागने लगता है और अपने गोशा-ए-आफ़ियत में उसकी राहों को भूल जाता है। लेकिन उसकी मुहब्बत कभी मर नहीं सकती और उसकी आग ख़्वाबों के खंडरात की तह में अंदर ही सुलगती रहती है।

चूँकि ख़्वाबों की दुनिया में रहने की वज्ह से वो ज़िंदगी से बे-बहरा हो जाता है, इसलिए अपनी मंज़िल-ए-मक़्सूद के क़रीब पहुँच कर वो ख़ुशी और ग़ुरूर से इस क़दर भर जाता है कि अपनी सब तदबीरों को ख़ुद ही उल्टा कर देता है और इस ख़याल में कि अब तो मा-हसल मिल गया वो अपनी महबूबा को बजाए ख़ुश करने के मुतनफ़्फ़िर कर देता है। बस यही मेरे साथ भी हुआ।
अब अपनी ज़िंदगी के हालात दोहराने से किया हासिल? ताहम तुम्हें मेरी ज़िंदगी का वो ला-जवाब और सोगवार ज़माना तो याद होगा जब मुझे उससे मुहब्बत थी। मुझे तुम्हारी मुहब्बत भरी तसल्ली-ओ-तशफ़्फ़ी ख़ूब याद है, लेकिन इसके बा-वजूद भी मैं अपने किए को न मिटा सका। मैंने मुहब्बत का ख़ून मुहब्बत से कर डाला और हालाँकि मैं उस वक़्त अपने को क़ातिल न समझता था मगर अब मुझे अपने जुर्म का यक़ीन है। [...]

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