अलग तुम से हुआ फ़िरक़ा हमारा ...
ऐसा ग़म है कि जो कर देगा मिरे बाल सफ़ेद ...
वल्लाह इन शहीदों का मेआ'र देख कर
यहाँ जनाज़ों में क़ातिल शरीक होते हैं ...
तुम ऐसे पौदों ने बढ़ कर शजर नहीं होना ...
थके तो क़ाफ़िला वापस घरों को मोड़ लिया ...
नया नज़ारा भी देखा हुआ दिखाता है ...
मैं बाहें खोल के पूरा शजर नहीं बनता ...
कशाकशी को जो तैयार भी नहीं रहते ...
कहीं दीवार-मिसाल और कहीं दर जैसा था ...
जब उस की तरफ़ से कोई पत्थर नहीं आता ...
हरे हुए नहीं अतराफ़ के शजर मेरे ...
गोशे गोशे पे कोई नक़्श-ए-क़दम बनता है ...
फ़ितरत की बंद मुट्ठियों को खोलता रहा ...
ये 'इबादत है अलग 'इश्क़ के मे'यार अलग ...
तिरे बग़ैर हूँ ज़िंदा मगर ये हालत है ...
नई हवाओं के हमराह चल रहा हूँ मैं ...
मैं आग हूँ पानी हूँ न मिट्टी न हवा हूँ ...
ख़ाक सहराओं में उड़ाने का ...
कई दिनों से जो ज़हरीली चल रही है हवा ...