आ जा अँधेरी रातें तन्हा बिता चुका हूँ शमएँ जहाँ न जलतीं आँखें जला चुका हूँ ख़ुर्शीद-ए-शाम-ए-रफ़्ता लौटे तो उस से पूछूँ मैं ज़िंदगी की कितनी सुब्हें गँवा चुका हूँ उम्मीद-ओ-बीम-ए-शब ने ये भी भुला दिया है कितने दिए जलाए कितने बुझा चुका हूँ मैं बाज़-गश्त-ए-दिल हूँ पैहम शिकस्त-ए-दिल हूँ वो आज़मा रहा हूँ जो आज़मा चुका हूँ ये शब बुझी बुझी है शायद कि आख़िरी है ऐ सुब्ह-ए-दर्द तेरे नज़दीक आ चुका हूँ मुझ को फ़रेब मत दे ऐ मौसम-ए-बहाराँ ऐसे कई शगूफ़े मैं भी खिला चुका हूँ सूरज तुलूअ' हों या सूरज ग़ुरूब 'सहबा' शब-हा-ए-ग़म के पर्दे ख़ुद पर गिरा चुका हूँ