आए मशरिक़ से शहसवार बहुत किस को था उन का इंतिज़ार बहुत क़ाफ़िलों की कोई ख़बर सी नहीं दूर उठता रहा ग़ुबार बहुत सुब्ह होने तक उस ने जान न दी उम्र भर था ख़ुद-इख़्तियार बहुत फिर कोई सानेहा हुआ होगा मेहरबाँ क्यूँ हैं ग़म-गुसार बहुत क्यूँ है हर ज़र्रा कर्बला-मंज़र है हमें उन पे ए'तिबार बहुत हो गई सब के आगे रुस्वाई किस हुनर पर था इफ़्तिख़ार बहुत