ज़रा सा शर था अगर ख़ैर से निकल जाता तअ'ल्लुक़ात का मफ़्हूम ही बदल जाता कोई सुनहरी किरन रोज़ हम बना लेते ये बर्फ़ होता हुआ शहर कुछ पिघल जाता किसी शजर पे मोहब्बत से हाथ रख देते तो घोंसलों पे मुसल्लत अज़ाब टल जाता तने से टेक लगाए मनाते शाम-ए-वफ़ा तो रात रात में सारा दरख़्त फल जाता मैं सब्ज़ बेल के मानिंद फैलती हर सू सफ़ेद ऊँचे सुतूनों पे मेरा बल जाता तिरे नफ़ीस अमामे के पेच यूँ खुलते मुसाफ़िरों के लिए साएबाँ में ढल जाता कपास चुनती हुई औरतें सुखी होतीं जहाँ जहाँ ये ज़मीं है किसाँ का हल जाता घरों में फैलती जाती मोहब्बतों की महक मुग़ाइरत का धुआँ ख़ुद-ब-ख़ुद निकल जाता हम एक दूसरे की बात रख लिया करते ये रख-रखाव सभी फ़ासले निगल जाता