आ न जाना बात में शैतान की याद रखना हश्र के मैदान की बाग़-ए-दिल का तज़्किरा कुछ यूँ हुआ बात जैसे हो किसी शमशान की घर से बरकत इस लिए भी उठ गई क़दर कर पाए न दस्तरख़्वान की कह नहीं सकता मुकम्मल जो ग़ज़ल वो भी तय्यारी में है दीवान की मैं तो कब का मर चुका हूँ दोस्तो ये सदा है दफ़्न के एलान की हम ने देखा पत्थरों को टूटते हम ने चीख़ें भी सुनीं चट्टान की 'फ़ैज़' कर दो कल अदा क़र्ज़-ए-वफ़ा आख़िरी तारीख़ है भुगतान की