पिएँगे आज मस्जिद ही सही मय-ख़ाना हो जाए जनाब-ए-शैख़ का ज़र्फ़-ए-वज़ू पैमाना हो जाए ज़माना भूल जाए नाम ही फ़रहाद-ओ-शीरीं का हमारे दर्द का क़िस्सा भी इक अफ़्साना हो जाए ख़ुदा के वास्ते महशर में बे-पर्दा न हो जाना तुम्हीं पर हूर-ए-जन्नत का कहीं धोका न हो जाए सदाक़त से करे इंसाँ जो निय्यत जाँ-निसारी की यक़ीनन दिल में पैदा हिम्मत-ए-मर्दाना हो जाए मिरे ग़म की कहानी सुन के बोले और लुत्फ़ आए अगर एक एक हर्फ़ अफ़्साने का अफ़्साना हो जाए तुम्हें है जल्वा-ए-रंगीं दिखाने से ग़रज़ साहिब किसी के होश जाएँ या कोई दीवाना हो जाए निकलने दूँ मैं अपने घर से क्यों उन की तमन्नाएँ नहीं मंज़ूर ये आबाद घर वीराना हो जाए कहाँ इंसान की ताक़त जो रोके उस को दम-भर में किसी की उम्र का लबरेज़ जब पैमाना हो जाए तिरे मस्तों में गाढ़ी छन रही है मय-गुसारी पर कहीं ऐसा न हो उन में सर-ए-मय-ख़ाना हो जाए अगर वो मह-जमाल आए शब-ए-तारीक ऐ 'साबिर' तो ज़ुल्मत दूर हो रौशन मिरा काशाना हो जाए