आबला-पा कोई गुज़रा था जो पिछले सन में सुर्ख़ काँटों की बहार आई है अब के बन में देखना रंग-ए-बदन यार के पैराहन में चाँदनी दूध सी छिटकी है मिरे आँगन में देखना दीदा-वरो आमद-ए-तूफ़ान तो नहीं टपकी है दर्द की एक बूँद मिरे दामन में मैं हम-आग़ोश-ए-सनम था मगर ए पीर-ए-हरम ये शिकन कैसे पड़ी आप के पैरहन में कुछ न कुछ आज असीरों ने कहा तो है ज़रूर एक इक गुल से लिपटती है सबा गुलशन में सहल इतने भी नहीं ऐ सितम-ईजाद कि हम थाम लेते हैं गरेबान दिवाने-पन में सर तस्लीम नहीं बाज़ू-ए-क़ातिल का जवाब आख़िरश मारे गए ख़ुद भी मसीहा अन में जा रहे हो तो ज़रा देखना तुम भी 'मजरूह' मेरी आँखें वहीं ज़िंदाँ के किसी रौज़न में