आँचल जो ढलकता है उन का कभी शानों से पायल की सदा आ कर टकराती है कानों से अपनी ही हलाकत का बाइ'स हुए जाते हैं जो तीर निकलते हैं आज अपनी कमानों से हम ने रह-ए-उल्फ़त में आ कर यही सीखा है मंज़िल का पता लेना क़दमों के निशानों से इक बार भी जो सुनना हम को न गवारा था सौ बार सुना हम ने दुनिया की ज़बानों से जिस ने कभी दुनिया की पर्वा ही नहीं की थी वो 'नाज़' से मिलता है अब लाख बहानों से