आदमी और आबरू के बग़ैर फूल हो जैसे रंग-ओ-बू के बग़ैर मैं फ़िदा तुझ पे ऐ निगाह-ए-करम चल गया काम गुफ़्तुगू के बग़ैर क्या इसी का है नाम मय-ख़ाना लोग बैठे हैं हा-ओ-हू के बग़ैर था रग-ए-जाँ से तू क़रीब मगर पा सके हम न जुस्तुजू के बग़ैर क्या मुझे तुम ख़ुदा समझते हो बात करते नहीं जो तू के बग़ैर फ़र्ज़ कर लो कि मिल गई जन्नत कैसे गुज़रेगी उस के कू के बग़ैर तुम से 'अर्शी' न हो सकेगी कभी ज़ीस्त उस शोख़-ए-तुंद-ख़ू के बग़ैर