आदमी इंसान से हैवान कैसे हो गया एक ज़िंदा मुल्क क़ब्रिस्तान कैसे हो गया आग देने वाले ही आए हैं मुझ से पूछने एक पल में शहर ये वीरान कैसे हो गया कौन है वो मेरे हक़ में जो दुआएँ करता है सख़्त मुश्किल मरहला आसान कैसे हो गया उस ने सच कहने की खाई थी क़सम हर हाल में दिन का सूरज रात का मेहमान कैसे हो गया यूँ तो कहने को यहाँ गंगा भी है जमुना भी है नज़्र-ए-आतिश फिर ये हिन्दोस्तान कैसे हो गया ज़ेहन में जो नाचती है एक किरन बे-नाम सी बंद कमरे में ये रौशन-दान कैसे हो गया वैसे 'नुसरत' पाई थी विर्से में तेग़-ए-बे-नियाम ख़ौफ़ ऐसी क़ौम का उन्वान कैसे हो गया