अर्बाब-ए-करम से बदला है दस्तूर-ए-ग़म-ए-अय्याम कहाँ इस दौर-ए-जहान-ए-हस्ती में इंसान को है आराम कहाँ दुनिया है जफ़ाओं की शैदा दुनिया को वफ़ा से काम कहाँ ऐ हुस्न-ए-वफ़ा के दीवाने लेता है वफ़ा का नाम कहाँ रहबर नज़र आते हैं रहज़न तारीक दिल और माथे पे शिकन पूछो न हक़ीक़त कुछ अपनी ग़ुर्बत में हुई है शाम कहाँ ऐ ताइर-ए-ख़ुश-आवाज़ अभी रहने दे बहारों के नग़्मे शायद ये तुझे मालूम नहीं गुलशन में बिछे हैं दाम कहाँ रहबर न मिला मंज़िल न मिली बाक़ी है सफ़र दिन ख़त्म हुआ मैं देख रहा हूँ हसरत से जलता है चराग़-ए-शाम कहाँ