आदमी था क्या वही इक काम का अर्ज़ पर जिस का कोई मस्कन न था जो किसी ने पैरहन मुझ को दिया वो मिरे ही तन का हिस्सा बन गया हम थे जुड़वाँ इस लिए तन एक था एक सर्जन ने अलग हम को किया जल में जब तक मैं रहा ज़िंदा रहा तट पे सागर के मैं आ कर मर गया जब कभी मैं सोचने कुछ लग पड़ा दूर तक फिर सिलसिला चलता रहा मैं ज़मीं पर इक तरह का बोझ था वो तो माँ थी उस को ये सहना पड़ा वज्द में आता कभी तो पेड़ की टहनियों पर चढ़ के अक्सर झूलता था मैं सालिक इक अनोखा दहर में जो भी मस्लक मिल गया मैं चल पड़ा आलम-ए-जबरूत का साकिन था मैं आलम-ए-सिफ़्ली में कैसे आ गया हादसे को रोकना था इस लिए रास्ते पर हो गया जा कर खड़ा बंद करते थे कभी थे खोलते रूप दरवाज़े का मुझ को क्या मिला लेट जाता पीठ के बल फ़र्श पर देख लेता जब भी आते में क़ज़ा जो समावी थे क़मर पर जा बसे मैं था ख़ाकी दहर में ही रह गया मुझ को देना था 'फ़िगार' उन का जवाब चिट्ठियों का सामने अम्बार था