आफ़ियत ज़ुल्म से और प्यार क़ज़ा से माँगा हम ने इंसाफ़ भी अर्बाब-ए-जफ़ा से माँगा कर दिया ख़ुल्द के हर खेत से बे-दख़्ल हमें हिस्सा जब दाना-ए-गंदुम में ख़ुदा से माँगा जब झटक कर उठे हम नींद से बोझल सपने ताज़गी सुब्ह से ली साँस सबा से माँगा नूर जब चाहा किया अपने ही माथे से तुलूअ' साया माँगा तो तिरी ज़ुल्फ़-ए-दोता से माँगा वो भटकता रहा मंज़िल के क़रीब आवारा जिस ने मंज़िल का पता राह-नुमा से माँगा हक़-ओ-नाहक़ की लड़ाई की सवानेह है गवाह भीक में रहम उसी मुनइ'म ने गदा से माँगा वो मिरा नुत्क़ ही दे दे तो ग़नीमत 'शौकत' लहन-ए-दाऊद नहीं नग़्मा-सरा से माँगा