आग अश्क-ए-गर्म को लगे जी क्या ही जल गया आँसू चू उस ने पोंछे शब और हाथ फल गया फोड़ा था दिल न था ये मुए पर ख़लल गया जब ठेस साँस की लगी दम ही निकल गया क्या रोऊँ ख़ीरा-चश्मी-ए-बख़्त-ए-सियाह को वाँ शग़्ल-ए-सुर्मा है अभी याँ सैल ढल गया की मुझ को हाथ मलने की ता'लीम वर्ना क्यूँ ग़ैरों को आगे बज़्म में वो इत्र मल गया उस कूचे की हवा थी कि मेरी ही आह थी कोई तो दिल की आग पे पंखा सा झल गया जों ख़ुफ़्तगान-ए-ख़ाक है अपनी फ़तादगी आया जो ज़लज़ला कभी करवट बदल गया उस नक़्श-ए-पा के सज्दे ने क्या क्या किया ज़लील मैं कूचा-ए-रक़ीब में भी सर के बल गया कुछ जी गिरा पड़े था पर अब तू ने नाज़ से मुझ को गिरा दिया तो मिरा जी सँभल गया मिल जाए गर ये ख़ाक में उस ने वहाँ की ख़ाक गुल की थी क्यूँ कि पाँव वो नाज़ुक फिसल गया बुत-ख़ाने से न का'बे को तकलीफ़ दे मुझे 'मोमिन' बस अब मुआ'फ़ कि याँ जी बहल गया