आग जलती है ख़ार-ओ-ख़स से परे कोई बैठा है दस्तरस से परे काश ऐसा कभी तो मुमकिन हो उस को ले जाएँ पेश-ओ-पस से परे क़ैद ऐसी है कुछ नहीं खुलता हम क़फ़स में हैं या क़फ़स से परे 'उम्र में किस तरह शुमार करें वक़्त गुज़रा जो हम-नफ़स से परे उलझनें दिल की हो गईं मा'दूम जा के देखा जो दाद-रस से परे उस की क़ुर्बत में रह के ‘बद्र-मुनीर' 'इश्क़ रहता है हर हवस से परे