'ऐन-मुमकिन है ये ज़हमत भी उठानी पड़ जाए बातों बातों में कोई बात छुपानी पड़ जाए सोच कर और कोई ‘उज़्र भी रक्खें शायद रू-ब-रू उस के ये तौजीह पुरानी पड़ जाए दर-ब-दर फिरते हैं इस आस पे हम दिल-ज़दगाँ किसी रस्ते में कोई शाम सुहानी पड़ जाए मस्लहत ओढ़ने वालों को ये मा'लूम नहीं अपने रस्ते की ये दीवार जो ढानी पड़ जाए देखते हैं जिसे आईना-ए-दिल में अक्सर वही तस्वीर जो दुनिया को दिखानी पड़ जाए शहर के तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल से तो बेहतर है 'मुनीर' अपने हिस्से में कोई नक़्ल-ए-मकानी पड़ जाए