आग लौ देने लगी साया-ए-ग़म-ख़्वार के पास मेहर-ए-ना-दीदा कोई है दर-ओ-दीवार के पास जाने क्या सोच के कल अपना पसंदीदा क़लम रख गया है मिरा बच्चा मिरी तलवार के पास किस हवाले से वो देखे क़द-ओ-क़ामत अपना अपनी सूरत ही नहीं आइना-बरदार के पास फूल की ज़र्ब से ज़ख़्मी था सरापा शायद देर तक बैठा रहा आबला-पा ख़ार के पास मोती इस तरह लुटाती है ख़ज़फ़ हो गोया क्या ख़ज़ाना है कोई चश्म-ए-गुहर-बार के पास जानिब-ए-दश्त-ए-गुमाँ देख रहे हो क्या 'राज़' क्या कभी महर भी जाता है शब-ए-तार के पास