आगही कब यहाँ पलकों पे सही जाती है बात ये शिद्दत-ए-गिर्या से कही जाती है हम उसे अन्फ़ुस ओ आफ़ाक़ से रखते हैं परे शाम कोई जो तिरे ग़म से तही जाती है इक ज़रा ठहर अभी मोहलत-ए-बेनाम-ओ-निशाँ दरमियाँ बात कोई हम से रही जाती है गर्मी-ए-शौक़ से पिघली तिरे दीदार की लौ तेज़ हो कर मरी आँखों से बही जाती है शाख़-ए-नाज़ुक से दम-ए-तेज़ हवा-ए-फ़ुर्क़त ना-तवानी कहाँ पत्तों की सही जाती है हर्फ़-ए-इंकार लिखा जिस पे हवा ने कल तक रहगुज़र दिल की तरफ़ आज वही जाती है जाए जाती नहीं ज़ुल्मत मगर अक्सर 'मोहसिन' इक दिया उस की तरफ़ हो तो यही जाती है