वलवले जितने सफ़र के थे सफ़र इतने न थे दूर थे रौशन नगर हम से मगर इतने न थे बंद आँखें जब खुलीं तो रौशनी पहचान ली बे-ख़बर हम हों तो हों पर बे-बसर इतने न थे मस्लहत के हाथ अब अपनी अना भी बिक गई बे-सर-ओ-सामाँ थे पहले भी मगर इतने न थे मुस्तहिक़ आँखें मिरी जानिब उठी थीं जिस क़दर दुख तो ये है मेरी शाख़ों पर समर इतने न थे सतह-ए-चेहरा पर भी पहले एक ठहराव सा था दिल की गहराई में भी 'मोहसिन' भँवर इतने न थे