आह पाबंद-ए-असर हो ये ज़रूरी तो नहीं शाम-ए-ग़म तेरी सहर हो ये ज़रूरी तो नहीं सर को टकराना तो है जोश-ए-जुनूँ की फ़ितरत इस से दीवार में दर हो ये ज़रूरी तो नहीं आदमी आया है दुनिया में मुसाफ़िर बन कर चाँद ही हद्द-ए-सफ़र हो ये ज़रूरी तो नहीं अश्क-ए-ग़म पी के जो हर लब को तबस्सुम दे दे हर बशर ऐसा बशर हो ये ज़रूरी तो नहीं डूबते देखे हैं साहिल पे सफ़ीने अक्सर ग़र्क़ होने को भँवर हो ये ज़रूरी तो नहीं अब तो रहबर की भी निय्यत हमें चौंकाती है सिर्फ़ रहज़न ही का डर हो ये ज़रूरी तो नहीं एक दीवाना हूँ बैठा हूँ सर-ए-राह 'मुहिब' उन का आना भी इधर हो ये ज़रूरी तो नहीं