आह से या आह की तासीर से जी बहल जाता किसी तदबीर से अब से ग़म सहने की आदत ही सही सुल्ह कर लें लाओ चर्ख़-ए-पीर से जब्र को क्यूँकर न समझूँ इख़्तियार तुम ने बाँधा है मुझे ज़ंजीर से काम अब उस तदबीर पर है मुनहसिर वास्ता जिस को न हो तक़दीर से उस निगाह-ए-नाज़ का अल्लाह रे फ़ैज़ निस्बतें हैं ज़ख़्म-ए-दिल को तीर से होशियार ओ शोख़-ए-बे-परवा-ख़िराम बच के मेरी ख़ाक-ए-दामन-गीर से इश्क़-ए-'फ़ानी' उस पे अपनी ये बिसात खेलती हैं बिजलियाँ तस्वीर से