रात को दिन कहा नहीं जाता यूँ तो सूली चढ़ा नहीं जाता लोग तो चुप हैं ज़ुल्म सह कर भी मुझ से क्यों चुप रहा नहीं जाता आज तो शहर में है सन्नाटा कल हो क्या कुछ कहा नहीं जाता धूप सर पे हो और सहरा हो पाँव नंगे चला नहीं जाता जान हर पल रहे हथेली पर इस तरह तो जिया नहीं जाता बढ़ गया क्या बिसात से उस की दिल से ग़म क्यों सहा नहीं जाता जिस को मिलना है ख़ाक में 'मसऊद' उस के आगे झुका नहीं जाता